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आखिर ऐसा क्या हुआ कि वाघेला की कांग्रेस पार्टी छोड़ने की खबरें आ रही हैं

वाघेला कांग्रेस से अलग हुए तो यह भी तय है कि दो दशकों के बाद भी कांग्रेस का गुजरात में सत्ता से वनवास खत्म नहीं होगा

Bishan Kumar

आज से ठीक 45 दिन पहले जिस शख्स के नाम पर कांग्रेस पार्टी के 57 में से 36 विधायकों ने एक मत से पार्टी के मुख्यमंत्री पद के असली दावेदार के रूप में अपनी मुहर लगाई थी, आखिर क्या हो गया कि उसके पार्टी छोड़ने की अटकलें लगने लगीं ? क्या बदल गया इन 45 दिनों में कि कांग्रेस विधायक दल के नेता शंकरसिंह वाघेला इतना नाराज हो गए ?

कहानी कुछ यूं शुरू हुई थी


17 अप्रैल को वाघेला के गांधीनगर स्थित आवास 'वसंत वगडो' पर अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के महामंत्री और गुजरात प्रभारी गुरुदास कामथ की उपस्थिति में कांग्रेस विधायकों और नेताओं नई बैठक हुई थी.

दो- ढाई  घंटे तक चली इस  बैठक में  इस साल के अंत तक होने वाले चुनावों की तैयारी और पार्टी  की जीत की संभावनाओं पर खुल कर चर्चा हुई. इसी चर्चा के दौरान 36 विधायकों ने यह साफ तौर पर कहा था कि पार्टी की तरफ से वाघेला को ही मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया जाना चाहिए और अगला चुनाव वाघेला ने नेतृत्व में ही लड़ा जाना चाहिए.

इस बैठक  में  पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भरतसिंह सोलंकी शामिल नहीं हुए थे. जाहिर है बहुसंख्य विधायकों की यह राय सोलंकी को नागवार गुजरी होगी क्योंकि वो खुद को भी मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते हैं.

आम राय जानकर कामथ ने नेताओं को आश्वस्त किया था कि वह उनकी भावनाओं से पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और वरिष्ठ उपाध्यक्ष राहुल गांधी को अवगत करा देंगे. कामथ ने ऐसा किया भी , लेकिन इसके कुछ दिन बाद ही कामथ ने गुजरात का प्रभार छोड़ दिया.

अखिर क्यों ? लोगों ने बहुत कयास लगाया और कामथ से भी पूछा पर इसका कोई खुलासा कामथ ने नहीं किया. उनकी जगह राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को गुजरात की जिम्मेदारी दी गई.

इसकी खुशी सोलंकी और उनके गुट को हुई और सोलंकी ने फौरन ही एक बयान जारी कर गलहोत की  नियुक्ति का स्वागत किया और उनके नेतृत्व में पार्टी को बड़ी सफलता मिलने की बात कही. कामथ का जाना इस गुट के लिए एक शुभ संकेत था.

उधर बापू ( वाघेला को गुजरात में इसी नाम से पुकारा जाता है) के समर्थकों ने तो फेसबुक पर हैशटैग के साथ इस तरह का अभियान छेड़ दिया था - 'बापू फॉर गुजरात : गुजरात नीड्स शकरसिंह वाघेला, सिंहासन खाली करो कि गुजरात का शेर आता है.'

नहीं चाहते अहमद पटेल कि वाघेला सीएम उम्मीदवार घोषित हों 

चल क्या रहा था ? हुआ यह था कि वाघेला के पक्ष में इतना समर्थन देख कर कांग्रेस पार्टी के केंद्र और राज्य के कुछ वरिष्ठ नेता सकपका गए थे. वाघेला की लोकप्रियता और प्रबंधकीय क्षमता का तो सबको अंदाजा था. उनके विरोधी यह भी मानते थे कि वाघेला संबंध बनाने और निभाने में माहिर आदमी हैं.  लेकिन इतने विधायक खुल कर उनके साथ खड़े हो जाएंगे इसकी उनको आशंका नहीं थी.

संघ और भाजपा से टूट कर आए वाघेला को प्रदेश के नेताओं का एक बड़ा गुट कभी स्वीकार नहीं कर पाया लेकिन अपने बड़े कद और प्रदेश भर में एक मजबूत छवि के चलते यह लोग वाघेला को पूरी तरह किनारे नहीं कर पाए.

वाघेला विरोधियों के सिर पर हमेशा सोनिया गांधी के परम विश्वास पात्र नेता अहमद पटेल का हाथ रहा हैं जिनकी वाघेला से कभी नहीं बनी.

पटेल और उनके समर्थक नेता कभी नहीं चाहते कि वाघेला को कांग्रेस अपना  मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करे. वाघेला को इस बात का पूरा आभास था कि विधायकों के बहुमत के बाद भी उनकी दाल नहीं गलने दी जाएगी.

इसके पहले कि पार्टी हाई कमान कोई विपरीत फैसला ले, अपने 25-30 समर्थक विधायकों और नेताओं के साथ वो दिल्ली पहुंच गए.

कहते हैं कि इसी दिल्ली प्रवास के दौरान ऐसा कुछ घटा जो वाघेला को बहुत नागवार गुजरा और उन्होंने छुटपुट तौर पर इधर-उधर अपनी नाराजगी व्यक्त करनी शुरू कर दी.  ट्विटर पर राहुल गांधी को फॉलो करना बंद कर दिया. पार्टी की स्थानीय  बैठकों में भाग लेना बंद कर दिया और अपने को व्यापक पार्टी कार्यों से काट  लिया.

राहुल गांधी ने नहीं दी तवज्जो

वाघेला की नाराजगी का मूल कारण है कि पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जो उनके कद के एक नेता को दिया जाना चाहिए. इतने सारे नेताओं के साथ राहुल से मिलने पहुंचे वाघेला को उम्मीद थी कि उनकी और  बाकी नेताओं की बात सुनने के लिए राहुल पूरा समय देंगे पर ऐसा नहीं हुआ.

उन सब को जल्दी ही निबटा दिया गया - जैसे बस रस्म अदायगी भर करनी हो.  और तो और सोनिया गांधी ने तो उन्हें चाय तक के लिए नहीं बुलाया जबकि उन्होंने बाकायदा पहले से मिलने का समय मांगा था.

अपने साथी विधायकों और नेताओं के सामने ऐसा असम्मान उन्हें अभूत आहत कर गया और वह अपना लाव-लश्कर लेकर वापस लौट गए. यहीं से शुरू हुआ आपसी दूरियां बढ़ने का सिला जिसके अंत को लेकर सब अटकले लगा रहे हैं.  कुछ पत्रकारों ने तो बाकायदा दिन भी घोषित कर दिया है कि वाघेला इस महीने की इस तारीख को कांग्रेस छोड़ देंगे.

शंकरसिंह वाघेला ने अभी तक खुल कर अपनी मंशा जाहिर नहीं की है पर  इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि वो कांग्रेस पार्टी में तभी बने रहेंगे जब उन्हें अगले चुनाव का सेनापति घोषित किया जाए और बिना किसी हस्तक्षेप के उनकी रणनीति के अनुसार ही अगला चुनाव लड़ा जाए.

लेकिन क्या पटेल और सोलंकी एंड कंपनी ऐसा होने देगी ? कतई नहीं.  फिर वाघेला क्या एक ऐसे योद्धा के रूप में पार्टी को चुनाव लड़वाएंगे जिसके दोनों हांथ बंधे हों ?

जो लोग वाघेला को जानते हैं वो कहते हैं कि बापू इस तरह अपने को बेइज्जत नहीं होने देंगे और पार्टी से किनारा करना बेहतर समझेंगे.  पर कांग्रेस छोड़ कर कहां जायेंगे - वापस भाजपा में ?

वाघेला से मिले थे अमित शाह

कुछ हफ्ते पहले उनसे मिलने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपानी विधान भवन में उनके कक्ष में मिलने गए थे और काफी देर बातें हुईं.

वाघेला उस पार्टी में क्यों वापस आना चाहेंगे जिसका आज सबसे शक्तिशाली व्यक्ति वो हो ( नरेंद्र मोदी) जिसको वाघेला के कहने पर भाजपा ने 1995 में गुजरात से निकाल दिया हो ?  मोदी अपने विरोधियों को आसानी माफ नहीं करते और वाघेला दोहरे होकर मोदी की चौखट पर नहीं जाएंगे. देखना यह है कि क्या अमित शाह उनकी घर वापसी के लिए कोई सम्मानजनक रास्ता निकाल पाएंगे?

वाघेला कहां जातें है और क्या करतें हैं, यह तो जल्दी ही पता चल जायेगा पर इतना तो निश्चित है कि उनके कांग्रेस पार्टी से निकलने पर पार्टी का गुजरात में बंटाधार हो जाएगा.

अगला चुनाव कांग्रेस के लिए एक ऐसा मौका है जब 22 वर्षों के बाद पार्टी के फिर से सत्ता में आने की संभावना हो सकती है. प्रदेश भाजपा में मोदी के बाद नेतृत्व का अभाव है. पाटीदार समाज ( जिनकी जनसख्या 15% है) भाजपा से सख्त नाराज है और कांग्रेस से जुड़ना चाहता है.

किसान भाजपा के खिलाफ आंदोलनरत हैं और प्रदेश के  7% दलित  हिंसा  और  दमन के चलते भाजपा के खिलाफ वोट कर सकते हैं. पर दिक्कत यह है कि वाघेला को किनारे करने की चाहत में कुछ नेता पार्टी को ही ठिकाने लगा देने पर तुले हैं.

भाजपा इस बात को लेकर खुश है कि वाघेला मुश्किल में हैं और उनके पार्टी से हटने की स्थिति में कांग्रेस से निबटना आसान हो जाएगा. क्योंकि कांग्रेस के बड़े नेताओं में भरतसिंह सोलंकी ( प्रदेश अध्यक्ष ), शक्तिसिंह गोहिल और अर्जुन मोडवडिया जैसे लोग हैं जिनका न केवल राजनीतिक कद वाघेला  के सामने छोटा है बल्कि इनकी पूरे प्रदेश में पकड़ भी नहीं हैं.

शक्तिसिंह तो अपने गृह क्षेत्र भावनगर की एक सीट से हारने के बाद एक उपचुनाव में कच्छ से जीत सके. मोडवडिया तो पिछला चुनाव ही हार गए थे.

अगर कहानी का अंत यह है कि बापू कांग्रेस से अलग हो रहे हैं तो यह भी तय है कि दो दशकों के बाद भी कांग्रेस का गुजरात में सत्ता से वनवास खत्म नहीं होगा.