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काम बोलता है: पर असल में क्या कहना चाहता है यह काम?

अब यह तो जनता ही तय करेगी कि समाजवादी पार्टा ने कितना काम किया है

Vivek Awasthi

#काम बोलता है यानी काम अपनी कहानी खुद कर रहा है. यही वह नारा है जिसे लेकर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग में उतरी है.

अब यह तो जनता ही तय करेगी कि क्या उन्होंने इतना काम किया है जो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन की नैया इन चुनावों में पार लगा दे.


लेकिन कई ऐसे मामले देखने को मिलते हैं जब राजनेता और नौकरशाह सब नियम कायदों को ताक पर रख कर राज्य की पुलिस को मजबूर करते हैं और मनमाने तरीके से उसका इस्तेमाल करते हैं.

ऐसे कई मामले खूब सुर्खियां बटोरते हैं, लेकिन कुछ मामलों की कानोकान खबर नहीं होती और वे कभी सामने नहीं आ पाते.

आजम खान की भैंसों को खोजती यूपी पुलिस

पीटीआई

इस सिलसिले में सबसे चर्चित मामला था अल्पसंख्यकों की एक दमदार आवाज और राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्री आजम खान की भैंसों का चोरी हो जाना.

हालांकि बाद में पुलिस ने भैंसों को बरामद कर लिया था. लेकिन राज्य में पुलिस के दुरुपयोग का यह आखिरी मामला नहीं है.

यह मामला राज्य के एक सर्वोच्च आईएएस अफसर से जुड़ा है जो अब रिटायर हो चुका है.

बताया जाता है कि यह अफसर मुख्ममंत्री की आंखों का तारा रहा है और रिटायर होने से पहले वह कई मलाईदार पदों पर रहा.

पिछले साल फरवरी में इस अफसर ने लखनऊ में अपने बेटे की शादी के रिसेप्शन की दावत दी.

इस मौके पर एक बड़े उद्योगपति ने एक कीमती हार तोहफे में दिया. रिसेप्शन वाली जगह से सभी तोहफों को अफसर के घर पहुंचाने की जिम्मेदारी घर के कुछ नौकरों को सौंपी गई.

रिसेप्शन के चार दिन बाद जब तोहफों को खोला गया गया तो पता चला कि वह कीमती हार गायब है.

तुरंत शक की सुई घर के दो नौकरों की तरफ गई. झटपट पुलिस बुलाई गई और दोनों नौकरों को उसके हवाले कर दिया गया.

हैरानी की बात यह है कि इन नौकरों को हजरत गंज थाने में नहीं ले जाया गया, जिसके अधिकार क्षेत्र में यह मामला आता था.

इन दोनों को बहुत दूर बख्शी का तालाब पुलिस थाना ले जाया गया जो शहर के बाहर ग्रामीण इलाके में पड़ता है.

एफआईआर तो छोड़िए! पुलिस में एक लिखित शिकायत भी नहीं दी गई थी. लेकिन चूंकि मामला राज्य के सबसे बड़े नौकरशाह से जुड़ा हुआ था तो पुलिस ने भी मामले में जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी दिखाई और दोनों नौकरों पर थर्ड डिग्री इस्तेमाल की गई.

पूरा महकमा जुटा नेकलेस खोजने में 

गहन पूछताछ और पुलिस उत्पीड़न का सिलसिला दो महीने तक चलता रहा. यहां तक कि उन दोनों का लाई डिटेक्टर टेस्ट भी हुआ.

फिर भी पुलिस को कुछ हासिल नहीं हुआ. इनमें से एक ने तो पुलिस हिरासत में जहर पीकर आत्महत्या करने की कोशिश भी की. इससे पुलिस की बड़ी किरकिरी हुई.

जब पुलिस अभियुक्तों से नेकलेस के बारे में कुछ भी नहीं उगलवा पाई तो उन्हें रिहा कर दिया गया.

नौकरशाह के परिवार ने इन दोनों को नौकरी से भी निकाल दिया. पुलिस सूत्रों का कहना है कि अभियुक्त निर्दोष थे और नेकलेस की चोरी के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता था.

लेकिन पुलिस पर सत्ता के गलियारों की तरफ से दबाव था कि लगातार पूछताछ की जाए और थर्ड डिग्री टॉर्चर किया जाए और वो भी बेवजह.

पुलिस सूत्रों के मुताबिक दोनों नौकरों को दो महीने तक गैर कानूनी हिरासत में रखने के बावजूद जब कुछ पता नहीं चला, तो इस आला नौकरशाह ने लखनऊ पुलिस के एक टॉप अधिकारी को बुलाया और 30 लाख रुपए कैश देने को कहा. यह चोरी हुए नेकलेस की कीमत थी.

यह रकम न देने पर इस पुलिस अधिकारी को बड़े बेआबरू तरीके से डीजीपी हेडक्वॉर्टर में तैनात कर दिया गया. इसे सजा वाली यानी पनिशमेंट पोस्टिंग माना जाता है.

इसके लिए जो वजह बताई गई वह यह थी कि पुलिस अधिकारी राज्य की राजधानी में अपराध को नियंत्रित करने में विफल रहा.

जिसकी लाठी, उसकी भैंस

नाम न जाहिर करने की शर्त पर एक रिटायर्ड नौकरशाह ने बताया कि राज्य में पिछले पांच साल से समाजवादी सरकार की सत्ता में 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' वाले लोग रहे हैं.

उनका कहना है, 'राज्य में कानून सिर्फ प्रभावशाली और रसूख वाले लोगों के लिए है. जिस किसी के पास भी ये गुण नहीं हैं, उसका कोई माई बाप नहीं है. उत्तर प्रदेश में कानून सिर्फ ऊंचे और दबंग लोग के लिए है.'

राज्य के लोग इस सरकार के पांच सालों की तुलना इससे पहले बहुजन समाज पार्टी की सरकार से कर रहे हैं.

मायावती की सरकार में कानून व्यवस्था अच्छी और नियंत्रण में बताई जाती थी. जहां तक अपराधों की बात है, इस सरकार के खिलाफ अंदर ही अंदर एक खामोश लहर चल रही है.

लेकिन राज्य में समाजवादी पार्टी सीना ठोक कर कह रही है- काम बोलता है.

लगता है कि यह सोची समझी कोशिश है ताकि राज्य में कानून व्यवस्था की मौजूदा स्थिति पर बात ही न हो.