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विपक्षी दलों का मंथन: अखिलेश और मायावती के बगैर विपक्षी कुनबा कितना मजबूत हो पाएगा?

आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू की पहल पर दिल्ली में विपक्षी दलों की बैठक हुई.

Amitesh

आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू की पहल पर दिल्ली में विपक्षी दलों की बैठक हुई. संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से ठीक एक दिन पहले पार्लियामेंट एनेक्सी में हुई बैठक में विपक्षी दलों के नेताओं का जमावड़ा लग गया. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी तक इस बैठक में पहुंचे.

इसके अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस कोषाध्यक्ष और कांग्रेस के बड़े रणनीतिकार अहमद पटेल, एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई महासचिव सुधाकर रेड्डी, डीएमके सुप्रीमो एम के स्टालिन और कनिमोझी, जडीएस से पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौडा, मुस्लिम लीग से पीके कुन्नाहलिकट्टी, एआईयूडीएफ के बदरुद्दीन अजमल, नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला, एलजेडी से शरद यादव, आरजेडी से तेजस्वी यादव, हम के नेता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, जेएमएम के हेमंत सोरेन, जेवीएम के बाबूलाल मरांडी और आरएलडी अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह भी पहुंचे.


इन सभी नेताओं के अलावा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का आना काफी दिलचस्प रहा. ममता तो पहले से ही सरकार के खिलाफ विपक्षी कुनबे की एकता की वकालत करती रही हैं. लेकिन, पहली बार ऐसा लगा कि केजरीवाल के नेतृत्व में आप को भी अब कांग्रेस के साथ मंच साझा कराने में विपक्षी धड़े को सफलता मिली है.

दिल्ली में डेरा डाले चंद्रबाबू नायडू ने इससे पहले अहमद पटेल, फारूक अब्दुल्ला और ममता बनर्जी से अलग से बात कर 2019 के चुनाव को लेकर रणनीति बनाने पर चर्चा की.

संसद परिसर में हो रहे इस मंथन का मकसद सभी विपक्षी दलों को एक नाव पर सवार कर मोदी को मात देना है. यह बैठक उस वक्त हो रही है, जब एक दिन बाद ही पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने हैं. एक्जिट पोल के नतीजों को लेकर विपक्षी खेमे में उत्साह दिख रहा है. राजस्थान में कांग्रेस को जीत औऱ मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस को बढ़त की संभावना ने कांग्रेस समेत सभी विपक्षी खेमे के भीतर एक उर्जा का संचार कर दिया है.

लेकिन, सवाल यह खड़ा होता है कि यूपी की दो बड़ी पार्टियों एसपी और बीएसपी के बगैर विपक्षी खेमे की रणनीति कितनी कारगर होगी? सवाल इसलिए उठ रहा है कि विपक्षी दलों की इस बैठक में न एसपी प्रमुख अखिलेश यादव ही आए और न ही बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने ही शिरकत की. यहां तक कि इनकी तरफ से अपनी पार्टी के किसी दूसरे नेता को भी नहीं भेजा गया.

सीएनएन न्यूज-18 से बात करते हुए अखिलेश यादव ने विपक्षी दलों के साथ आने को एक अच्छी शुरूआत तो बताया लेकिन, जब उनसे यूपी में महागठबंधन में कांग्रेस के शामिल होने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह निश्चित है कि यूपी में अच्छा गठबंधन होगा जो बीजेपी को हराएगा. लेकिन, एसपी सुप्रीमो की तरफ से कांग्रेस को साथ लेने को लेकर कुछ भी भरोसा नहीं दिया गया.

अखिलेश यादव का यही रुख कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बन रहा है. अखिलेश ने यह भी कहकर पूरे मामले को और उलझा दिया कि विपक्ष की और भी बैठकें होनी चाहिए, लेकिन, विपक्षी कुनबे की एकता का सवाल 2019 के चुनाव के बाद ही आएगा.

उनके बयान से साफ है कि अभी लोकसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ किसी तरह के गठबंधन के मूड में नहीं हैं. हालांकि उनकी तरफ से अच्छे गठबंधन की बात कहकर बीएसपी और आरएलडी के साथ चुनावी संभावना के दरवाजे को खोला रखा जा रहा है.

कुछ इसी तरह का अंदाज बीएसपी का भी है.बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने भी इस बैठक में न ही शिरकत की और न ही किसी को शामिल होने के लिए भेजा. मायावती भी कांग्रेस से दूरी बनाकर चल रही हैं. हालाकि, जब जेडीएस-कांग्रेस की सरकार बनी थी तो उस वक्त बेंगलुरु में विपक्षी दलों की एकता का प्रदर्शन किया गया था, जिसमें मायावती की सोनिया गांधी के साथ काफी नजदीकी दिखी थी. लेकिन, बाद में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में मायावती ने कांग्रेस के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया.

मायावती ने मध्यप्रदेश में अपने दम पर जबकि छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के साथ मिलकर बीजेपी और कांग्रेस दोनों के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया. मायावती के इस कदम से कांग्रेस को बड़ा झटका लगा और अब मायावती भी यूपी में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने को लेकर उत्साहित नहीं दिख रही हैं.

दरअसल, हकीकत भी यही है.

यूपी के भीतर 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से अखिलेश यादव को कोई फायदा नहीं दिखा. दूसरी तरफ, जब गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के उपचुनाव में बगैर कांग्रेस के सहयोग के केवल एसपी-बीएसपी ने साथ चुनाव लड़ा तो बीजेपी को पटखनी दे दी.

आरएलडी के साथ समझौता कर पश्चिमी यूपी के कैराना में कुछ ऐसा ही हुआ. मायावती और अखिलेश दोनों को लग रहा है कि यूपी में कांग्रेस का जनाधार काफी कमजोर है, लिहाजा, कांग्रेस के बगैर भी अगर वे दोनों एकसाथ चुनाव मैदान में उतरते हैं तो इसका सीधा फायदा उन्हें होगा. लेकिन, कांग्रेस को साथ लेने पर फायदा केवल कांग्रेस का ही रहेगा.

यही वजह है कि लोकसभा चुनाव बाद विपक्षी एकता और गठबंधन की बात कर अखिलेश यादव कांग्रेस को साथ लेने से कतरा रहे हैं. अगर कांग्रेस का एसपी-बीएसपी के साथ यूपी में गठबंधन नहीं हुआ तो फिर विपक्षी एकता की पूरी कवायद धरी की धरी रह जाएगी. अखिलेश और मायावती की रणनीति ने फिलहाल विपक्षी नेताओं को एकजुट करने की नायडू की कवायद को थोड़ा झटका जरूर दिया है, बावजूद इसके कि अरविंद केजरीवाल करीब आने लगे हैं.