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बिहार: आखिर वह बुनियादी फर्क क्या है जो नीतीश-लालू को एक नहीं होने देता?

यह समझने की जरूरत है कि क्या तीसरी पीढ़ी के पढ़े-लिखे समुदायों की अभिजात्य अभिलाषा दक्षिणपंथी राह के रोड़े हटा रही है

Mukesh Bhushan

बिहार की वर्तमान राजनीति के प्रतीक-पुरुष बन चुके दो राजनेताओं लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच चल रही जुबानी जंग में सच कौन बोल रहा है, इसकी तफ्तीश का कोई नतीजा नहीं निकलेगा. क्योंकि दोनों ही आधा सच और आधा झूठ बोलकर अपना-अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.

फर्क सिर्फ यह है कि ‘मसखरा लालू’ के हिस्से का सच उनके गंवई अंदाज के कारण अभिजात्य लोगों बीच मजाक बन जाता है. जबकि ‘धीर-गंभीर नीतीश’ के हिस्से का झूठ भी यकीन के काबिल होता है.


पिछले दो दिनों (सोमवार और मंगलवार) में दोनों नेताओं ने अपने-अपने हिस्से का ‘अर्धसत्य’ प्रेस कांफ्रेस में सार्वजनिक किया है. राज्य में महागठबंधन को ठिकाने लगाकर एनडीए की सरकार बनाने के पॉलिटिकल ड्रामे का यह जरूरी प्रहसन है.

पहले नीतीश ने दावा किया कि लालू यादव को नेता मैंने बनाया. ऐसा कहते हुए वह इस तथ्य को सोच-समझकर भूल गए कि पटना यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन के जिस चुनाव से लालू नेता के रूप में स्थापित हुए, उस समय उनसे तीन साल छोटे नीतीश यूनिवर्सिटी के महज एक इंजीनियरिंग कॉलेज में नेतागीरी कर रहे थे.

जाहिर है उनके जैसे कई स्टूडेंट लीडरों ने मिलकर यूनिवर्सिटी में अपने नए नेता के लिए लॉबिंग व प्रचार-प्रसार किया होगा. उनका यह दावा ठीक वैसा ही सच है कि कोई भाजपा सांसद यह कहे कि नरेंद्र मोदी को मैंने ही प्रधानमंत्री बनाया.

अगले दिन लालू यादव ने भी अपना जवाबी दावा करते समय यह बताने की सहूलियत अपने पास सुरक्षित रख ली कि यदि नीतीश जैसे ‘अध्यवसायी’ (जैसा जेपी कहते थे) समर्थकों का सहयोग नहीं मिला होता तो राजनीति में ऊंची छलांग लगाने से पहले ही हाशिये पर धकेल दिए गए होते.

लोकप्रियता बनाम गंभीरता की जंग

नीतीश को केंद्र में रखकर लिखी गई संकर्षण ठाकुर की पुस्तक ‘अकेला आदमी’ (प्रभात प्रकाशन) में तब के लालू का जिक्र कुछ इस तरह है- उसका अंदाज उलट था. उसके बोलने का अंदाज असभ्य, गंवारू, लज्जाहीन था. उसमें एक तरह का पशुवत सम्मोहन था. अंदाज करिश्माई होता था. तत्व की बात कुछ नहीं होती थी.

लालू ने एक बार यूनिवर्सिटी में लोहिया पर छात्रों द्वारा आयोजित एक सेमिनार का रिबन काटा, फिर छिपकर वहां से बाहर निकल गए और पूछने लगे ‘ई चीज क्या है लोहिया…?’

बीएन कॉलेज में लालू के सहपाठी रहे जानेमाने पत्रकार प्रभात कुमार शांडिल्य (अब दिवंगत) के अनुसार ‘तब भी लालू लोकप्रिय था पर कोई उसे सीरियसली नहीं लेता था. अक्सर हमलोग मजाक-मजाक में भाषण देने के लिए मंच पर उसे खड़ा कर देते और वह शुरू हो जाता- भाइयों और बहनो...!’

ठाकुर के अनुसार, जल्द ही सहयोगियों को नीतीश की उपयोगिता का पता चल गया था. एक संयमी अच्छा पढ़ा-लिखा लड़का, जिसका उपयोग प्रस्तावों और प्रेस-विज्ञप्तियों का प्रारूप तैयार करने के लिए भरोसे के साथ किया जा सकता था, जो लोहिया और गांधी की विचारधारा को समझ सकता था. जानबूझकर उन्होंने अपने इन्हीं गुणों को आगे बढ़ाया था कि वह स्वयं को ‘मास-लीडर’ नहीं मानते थे.

उस जमाने में यूएनआई के लिए रिपोर्टर के रूप में काम कर रहे फरजंद अहमद ने लेखक को बताया था कि जब नीतीश प्रेस विज्ञप्ति या वक्तव्य लेकर आते थे तो उसे तत्काल रद्दी की टोकरी के हवाले नहीं किया जाता था. उनका वार्तालाप सोद्देश्य होता था.

जब नीतीश ने अपना पहला कौशल दिखाया था

दरअसल, आंदोलन के दौरान प्रदर्शन से परे रहकर कुछ नेता अपनी भूमिका निभा रहे थे. नीतीश उन्हीं में थे. नीतीश की भूमिका को उस घटनाक्रम से समझा जा सकता है जो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) द्वारा इंदिरा गांधी का समर्थन कर देने के कारण सामने आया था. क्योंकि, सीपीआई का छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन (एआइएसएफ) संघर्ष समिति का हिस्सा था. छात्र आंदोलन में नीतीश और लालू के साथी रहे अनिल प्रकाश बताते हैं कि एआईएसएफ पर इंदिरा के लिए गुप्तचरी करने का शक था. ऐसे में नीतीश ने ही अपने कौशल से रास्ता निकाला.

संघर्ष समिति की महासभा में उन्होंने अमेरिका की विस्तारवादी नीति की निंदा करनी शुरू कर दी. इसका एआईएसएफ सदस्यों ने भी तालियां बजाकर स्वागत किया. उसके बाद उन्होंने सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति की भी भर्त्सना शुरू कर दी. इससे नाराज होकर एआईएसएफ के सदस्यों ने सभा का बहिष्कार कर दिया. समिति यही तो चाहती थी.

बेशक नीतीश से बड़े नेता थे लालू

इन सबके बावजूद, इसमें किसी को कोई शक नहीं है कि लालू बिहार आंदोलन में नीतीश से बड़े नेता थे. वह भीड़ जुटा सकते थे. हर तरह के हथकंडे अपना सकते थे. वैसे तौर तरीकों से उन्हें कोई परहेज नहीं था, जिसके बारे में नीतीश सोचकर शर्मसार हो जाते.

यूनिवर्सिटी कर्मचारियों के साथ खैनी और पान में हिस्सा बांटकर लालू दोस्ती गांठ लेते, जबकि खैनी की आदत होने के बावजूद नीतीश ऐसा नहीं कर पाते. ठाकुर लिखते हैं कि लालू की तुलना में नीतीश संकोची, कड़े और लगभग दब्बू किस्म के थे.

संभवतः इन्हीं वजहों से नीतीश उस समय संपूर्ण क्रांति के अगुवा जयप्रकाश नारायण व प्रमुख नेताओं की नजर में नहीं चढ़ सके. जबकि जेपी ने ही लालू को छात्र संघर्ष समिति का संयोजक बनाया. माना जाता है कि जेपी को पहली बार ‘लोकनायक’ कहकर लालू ने ही संबोधित किया था.

दोनों के अलग-अलग भाषा-व्याकरण

डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट पटना के निदेशक शैबाल गुप्ता के अनुसार, लालू एक कॉकनी (लंदन के पूर्वी हिस्से का निवासी) पिछड़ा है, समाज और बाजार के हाशिए से आनेवाला, अपरिष्कृत, एक अर्थ में अधिक मौलिक, प्रकृति से जुड़ा हुआ. जबकि नीतीश पिछड़ी जातियों में उस अभिजात्य वर्ग से आते हैं जिसकी बोलचाल की भाषा और व्याकरण उच्च जातियों की भाषा से अधिक मेल खाती है न कि लालू यादव और उनके किस्म के लोगों की भाषा से.

साठ के दशक में अपने-अपने गांव से पढ़ाई के लिए पटना आए लालू-नीतीश अपने मिजाज, व्यवहार और नजरिये में हमेशा विरोधी रहे. लालू गंगा के उत्तरी छोर से आए थे तो नीतीश दक्षिणी छोर से. अगर कुछ साझा हुआ तो वह ‘बिहार आंदोलन का गंगाजल’ था, जिसकी जरूरत खत्म होते ही दोनों ने अपने घाट भी बदल लिए.

नीतीश को अपने मुफस्सिल बख्तियार के रहन-सहन, तौर-तरीकों, बात व्यवहार और गंदगी से परहेज था. वहां के मूल्य उनकी नजर में तुक्ष थे और वे एक सुसंस्कृत आचार-विचार वाले शहरी जीवन अपनाने के ख्याल से पटना आए थे.

दूसरी तरफ लालू शहरी जीवन के प्रति एक विद्रोह लेकर आए थे. गाय-भैंस के साथ-साथ उनके गांव फुलवरिया की हुड़दंगी कमरठोंक चौपाल भी पटना चली आई. लालू ने यूनिवर्सिटी में खुद को अधिक लोकप्रिय प्रदर्शनकर्ता साबित किया और 1977 में इंदिरा गांधी की हार के बाद युवा पीढ़ी के नेता बन गए.

लोहिया को किसने कितना समझा

बिहार आंदोलन के इतने सालों बाद फिर एक बार पीठ फेरकर खड़े नीतीश और लालू के व्यक्तित्व और कृतित्व का आकलन करते हुए हमें यह जरूर पता लगाना चाहिए कि लोहिया को किसने कितना समझा? क्या उसने जो छात्र जीवन में ही लोहिया को जान गया था? या, उसने जो तब नहीं जानता था?

लालू और नीतीश की राजनीतिक कहानी दरअसल दो ऐसे युवकों की कहानी है जो एक ही रास्ते से शहर आकर खो जाते हैं. नीतीश की अभिलाषा शहरी बनने की थी तो लालू शहर को ही गांव बनाना चाहते थे.

हालांकि, यह जानना नई पीढ़ी के लिए रोचक हो सकता है कि कॉलेज के दिनों में भी नीतीश की नजदीकी लालू के मुकाबले सुशील मोदी, सरयु राय, शिवानंद तिवारी और रविशंकर प्रसाद से ज्यादा थी. इनमें मोदी, राय और प्रसाद आज बीजेपी के प्रमुख नेताओं में हैं. तिवारी उनसे सीनियर थे.

अनिल प्रकाश बताते हैं कि उस समय बशिष्ठ नारायण सिंह या शिवानंद तिवारी जब आते थे तो नीतीश खड़े हो जाते थे. सिंह आज जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष हैं और तिवारी जेडीयू और राजद के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी रहे हैं जो दोनों पक्षों के लिए ‘कभी खुशी कभी गम’ जैसे थे.

आंदोलन जब तेज हुआ तब छात्र संघर्ष संचालन समिति में तिवारी ने ही नीतीश को अपना नोमिनी बनाया था जबकि लालू ने जगदीश शर्मा को नोमिनेट किया था. गौरतलब है कि चारा घोटाले में लालू के साथ ही जगदीश शर्मा को भी सजा हुई है.

नीतीश के अभिजात्य मोह की स्वाभाविक परिणति उन्हें बीजेपी-संघ के करीब ले जाती है. गौरतलब है कि नीतीश अपने खानदान की तीसरी पीढ़ी के शिक्षित हैं जबकि लालू अपने खानदान की पहली पीढ़ी के. यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या तीसरी पीढ़ी के पढ़े-लिखे समुदायों की अभिजात्य अभिलाषा दक्षिणपंथी राह के रोड़े हटा रही है?