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राजा का बरी और लालू का दोषी पाया जाना पीएम मोदी के बारे में क्या बताता है?

राजा का बच निकलना और लालू का दोषी साबित होना मोदी के कामकाज के तरीके को काफी हद तक बयान करता है

Ajay Singh

ए राजा का दोषमुक्त साबित होना और राजा की उपाधि रखने वाले (लालू खुद को बिहार का राजा बताते थे) लालू का दोषी सिद्ध होना यह दिखाता है कि भारत में गवर्नेंस का जाल कितना जटिल है. 2जी घोटाले के मामले में राजा की रिहाई का फैसला आने के चंद दिनों बाद ही लालू को चारा घोटाले में सजा सुनाई गई है. दोनों मामलों में संबंधित सीबीआई अदालतों ने अपने फैसले दिए. दोनों ही फैसलों की व्याख्या आरोपियों ने अपने मनमुताबिक और सुविधा के हिसाब से की है.

राजा, कनिमोड़ी और इनके सहयोगियों ने फैसले का जश्न मनाया और कोर्ट के फैसले को ‘सत्य की जीत’ करार दिया. फैसले का जिक्र करते हुए इन लोगों ने 2जी स्कैम को कुछ षड्यंत्रकर्ताओं के मन की साजिश करार दिया ताकि यूपीए सरकार की बेहतरीन छवि को चोट पहुंचाई जा सके. इन्होंने इस साजिश के लिए किसी और को नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुख्य षड्यंत्रकर्ता करार दिया.


अब रांची आते हैं, जहां लालू दोषी पाए गए. फैसले के बाद लालू को पता चला कि वह नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग और बी आर आंबेडकर जैसे नेताओं की कतार में हैं. उन्होंने दावा किया कि वह सत्य के साथ हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि उनको सजा मिलने के पीछे बीजेपी और प्रधानमंत्री का फैलाया गया झूठ है. उन्होंने इसे अगड़ी जातियों की साजिश भी करार दिया. साथ ही इसके लिए भी उन्होंने मुख्य षड्यंत्रकर्ता प्रधानमंत्री मोदी को बताया.

स्पेशल सीबीआई कोर्ट के जज ओ पी सैनी का फैसला सावधानी से पढ़ने पर पता चलता है कि उन्होंने साफतौर पर सीबीआई और एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) को गड़बड़ी वाले जांच के लिए जिम्मेदार ठहराया है. साथ ही उन्होंने घोटाले को साबित नहीं कर पाने और सबूत न जुटा पाने के लिए भी इन जांच संस्थाओं को उत्तरदायी ठहराया है. निश्चित तौर पर सीबीआई की जांच और केस की पैरवी ने अदालत को इस हद तक नाराज किया कि अदालत ने 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में किसी तरह की गड़बड़ी के होने से ही इनकार कर दिया.

इसके उलट लालू का मामला देखते हैं. इस केस में सीबीआई ने बेहतरीन तरीके से चारा घोटाले की जांच की और इसी के चलते लालू को सजा हो पाई. दो बिलकुल अलग नतीजे, दो बिलकुल अलग वजहें- सीबीआई का एक मामले में काम करने का गड़बड़ तरीका और दूसरे में काम का बेहतरीन नमूना, इन दोनों मामलों में दिखता है. लेकिन इसका नतीजा एक ही निकाला गया कि बीजेपी ने सामान्य तौर पर और खास तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने राजनीतिक विरोधियों की प्रतिष्ठा को खत्म करने के लिए साजिश रची है.

सीबीआई कोर्ट के बाहर लालू यादव और तेजस्वी यादव

यह आरोप लगाया गया कि सरकार सीबीआई और ईडी का इस्तेमाल विपक्ष को निशाना बनाने के लिए कर रही है. अगर लालू, राजा और कुछ कांग्रेस नेताओं के बयानों को देखा जाए तो पता चलता है कि न्यायपालिका समेत सभी संस्थाएं सरकार के हाथ की कठपुतली मात्र हैं.

इन आरोपों में क्या कोई सत्यता है? आइए इन दोनों मामलों के इर्दगिर्द मौजूद नकारे न जाने योग्य कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं. शुरुआत से ही दोनों मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी नजर रही है. 2जी मामले में बीजेपी के सत्ता में आने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने साफतौर पर सरकार को कटघरे में लिया था और कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए नीतियों के साथ छेड़छाड़ करने के लिए राजा के अविवेकपूर्ण काम की आलोचना की थी. इस स्कैम की जांच सीबीआई के दो प्रमुखों - ए पी सिंह और रंजीत सिन्हा द्वारा की गई. दोनों ही सीबीआई प्रमुखों को कांग्रेस का बेहद नजदीकी माना जाता था.

यूपीए के शासनकाल के दौरान ए पी सिंह की अहमद पटेल के साथ नजदीकी जगजाहिर थी. दूसरी ओर, रंजीत सिन्हा शुरुआत में यूपीए सरकार के काफी नजदीक थे, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले उन्होंने सत्ता में बदलाव को भांपते हुए पाला बदल लिया. ऐसे में यह कहना कि सीबीआई ने अपने राजनीतिक आकाओं, यूपीए या एनडीए, के प्रभाव में केस को कमजोर कर दिया, वास्तव में सुप्रीम कोर्ट पर ही सवाल उठाने जैसा है.

मैं यह तर्क हल्के में नहीं दे रहा हूं. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी अधिकतम सीमा तक जाते हुए सीबीआई को राजनीतिक दखल से बचाने की पूरी कोशिश की. सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई और ईडी को जांचकर्ताओं की एक पूरी टीम को बनाए रखने (जिनमें से कुछ की साख संदेहास्पद थी) का आदेश दिया और स्वयं प्रोसीक्यूटर चुना जिसने 2जी केस लड़ा. न सीबीआई और न ही ईडी को ही जांचकर्ताओं का चुनाव करने और प्रोसीक्यूशन की दशा-दिशा तय करने की छूट दी गई क्योंकि सब कुछ सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रहा था, जिसने सरकार की भूमिका तकरीबन नगण्य कर दी थी.

बरी होने के बाद फूल-मालाओं से ए राजा का स्वागत

हकीकत यह है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक एजेंसियों को काम करने दिया. प्रभावी रूप से सीबीआई कोर्ट का फैसला सुप्रीम कोर्ट पर कलंक की तरह है जिसने अपनी संवैधानिक भूमिका का विस्तार कर कार्यपालिका के दायरे का अतिक्रमण करने का काम किया.

चारा घोटाले में सीबीआई की जबरदस्त परफॉर्मेंस के चलते लालू का गुनाह साबित हो सका. यह बात छिपी नहीं है कि यूपीए के शासनकाल में लालू ने सभी मुमकिन साधनों का इस्तेमाल कर चारा घोटाले के जाल से निकलने भरपूर कोशिश की. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मांग की कि चारा घोटाले से जुड़े हुए सभी मामलों को एकसाथ मिला दिया जाए. इसके पीछे उनकी कोशिश परिस्थितियों को अपने पक्ष में मोड़ने की थी.

हालांकि अदालत में उनके विरोधी काफी सजग थे और उन्होंने उनकी इन कोशिशों को नाकाम कर दिया. चारा मामले के इतिहास को देखते हुए यह साफ जाहिर होता है कि इसकी जांच और प्रोसीक्यूशन पर मोदी सरकार द्वारा शायद ही कोई असर डालने की कोशिश हुई हो. ऐसे में किस तरह से कोई कैसे पीएमओ या मोदी में सत्ता के अति-केंद्रीकरण का आरोप लगा सकता है?

राजा का बच निकलना और लालू का दोषी साबित होना मोदी के कामकाज के तरीके को काफी हद तक बयान करता है. राजा का सजा के फंदे से बच निकलना बताता है कि ईडी और सीबीआई प्रोफेशनल तौर पर अयोग्य हैं. इसी तरह से लालू का दोषसिद्ध होना उसी सीबीआई के अन्य अफसरों की टीम की प्रोफेशनल काबिलियत को दर्शाता है. पीएमओ का प्रभाव पूरी तरह से दोनों मामलों में गैरमौजूद रहा.

यह मोदी की चीजों को कंट्रोल करने की इच्छाओं की इमेज को तोड़ता है. इस सबसे दूर, ये दोनों हाई प्रोफाइल मामले यह दिखाते हैं कि मोदी राजनीतिक अपराधियों को कानूनी प्रक्रियाओं के भरोसे छोड़ने पर ज्यादा यकीन रखते हैं.