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बंगाल के इतिहास से उलट है आज की राजनीति

कोलकाता के सांस्कृतिक विरासत और गौरवशाली अतीत के लिए ये घातक है

Shantanu Mukharji

पश्चिम बंगाल इन दिनों गलत वजहों से सुर्खियों में छाया हुआ है. लेकिन चिंता इस बात को लेकर ज्यादा है कि आए दिन यहां सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस, उसके सहयोगी दल और विरोधियों के बीच सियासी जंग लगातार खतरनाक होती जा रही है.

प्रजातंत्र में राजनैतिक और सैद्धांतिक विरोध सामान्य हैं. लेकिन ये मतभेद संसदीय मर्यादाओं के दायरे में रहे ये जरूरी है. हालांकि कड़वा लेकिन सच ये ही है कि कोलकाता ने ऐसे सियासी आचरण से दूरी बना रखी है .


सब जानते हैं कि तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी एक दूसरे के धुर राजनीतिक विरोधी हैं. दोनों पार्टियां एक दूसरे से तकरार करने का कोई मौका भी नहीं छोड़ती.

लेकिन जब से चिटफंड घोटाले के आरोप में सीबीआई ने तृणमूल नेता सुदीप बंधोपाध्याय और तापस पाल को गिरफ्तार किया है. तब से दोनों पार्टियों के बीच सियासी जंग और आक्रामक हो गई है.

रॉयटर्स

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी केंद्र सरकार के इस रवैए से तमतमाई हुईं हैं. पार्टी नेताओं और समर्थकों की गिरफ्तारी की कार्रवाई को वो अपनी सीमा में केंद्र का घुसपैठ मानती हैं.

लेकिन इन सबका गलत असर यहां के सियासी माहौल में दिखता है और तो और दोनों ही पार्टियों में से कोई झुकने को तैयार नहीं हैं.

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लेकिन जो बात चिंताजनक है वो ये कि इस सियासी मतभेद के चलते दोनों पार्टियां अब एक दूसरे के खिलाफ आक्रामक और हमलावर हो गई हैं. दोनों ही पार्टियों के बीच तीखी झड़प और गाली-गलौच होना रूटीन की बात बन गई है.

देखा जाए तो अपने 300 साल से ज्यादा के अस्तित्व के दौरान कोलकाता का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है.

बंगाल के लोगों की मजबूती उनकी भाषा है

बंगाल पुर्नजागरण का गवाह रहा है. यहां की धरती से नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बिपिन चंद्र पाल, सी आर दास जैसे क्रांतिकारियों का उदय हुआ. जगदीश चंद्र बोस, मेघनाद शाह, प्रफुल्ल चंद्र राय जैसे वैज्ञानिकों की विरासत भी यहीं मिलती है.

इसके अलावा, पश्चिम बंगाल ने ही गुरु रविंद्र नाथ टैगोर और सत्यजीत राय जैसी हस्तियों को निखरने का मौका दिया. मोटे तौर पर पश्चिम बंगाल और खास तौर पर कोलकाता की सांस्कृतिक विरासत के विस्तार में जिन लोगों ने योगदान दिया उसकी सूची काफी लंबी है.

बंगाल के लोगों की मजबूती उनकी भाषा है. जिसे कई लोग मधुर बताते हैं. इसी भाषा के इस्तेमाल ने सियासी बहस के बीच न्यूनतम मर्यादा को बहाल रखने में मदद भी की है.

लेकिन तब इस सियासी चर्चा और बहस में निजी हमले नहीं किए जाते थे. यही वजह थी कि बंगाल में भद्रलोक संस्कृति ने अपनी जगह बनानी शुरू की.

लेकिन दुर्भाग्य से बंगाल की ये विरासत अब तेजी से खत्म हो रही है. भद्रलोक संस्कृति के विरोधी अब इतने निचले स्तर पर गिर चुके हैं कि अपने राजनीतिक विरोधियों की आलोचना के लिए उन्हें भाषा की मर्यादा को लांघने में भी कोई गुरेज नहीं है.

हाल ही में कोलकाता के टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम नुरुर रहमान बरकत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ फतवा जारी किया था.

इसमें ऐलान किया गया कि जो भी प्रधानमंत्री के चेहरे पर कालिख पोत कर उनके सिर को मुंडवा देगा और उनकी दाढ़ी काट देगा. उसे 20 लाख की राशि बतौर ईनाम दी जाएगी.

ठीक इसी तरह पाकिस्तानी मूल के कनाडा के समाजिक कार्यकर्ता तारिक फतेह को इस्लाम विरोधी बयान देने के आरोप में गला रेतने की धमकी दी गई थी.

हैरानी तो इस बात को लेकर होती है कि 7 जनवरी को जब बरकत प्रधानमंत्री के खिलाफ फतवा जारी कर रहे थे.

तब मंच के पीछे एक बैनर पर साफ लिखा था कि वर्ष 2019 में ममता बनर्जी देश की प्रधानमंत्री होंगी.

इस घटना में धर्म और राजनीति के घालमेल का जहां साफ संकेत मिलता है. वहीं आलोचना के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया गया उसके निम्न स्तर के होने का भी पता चलता है.

बावजूद किसी ने ऐसी शक्तियों को तब अनुशासित करने की कोशिश तक नहीं की. नतीजतन दूसरे भी इससे ज्यादा आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करने लगे.

टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम को अपने उसूलों के साथ रहने की आजादी है. लेकिन इसे सियासी चोला पहनाना माहौल को खराब करने जैसा है.

बंगाल को बताया था 'मिनी पाकिस्तान'

इससे पहले भी 30 अप्रैल 2016 को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के सहायक और राज्य के कैबिनेट मंत्री फिरहाद हकीम ने कोलकाता पोर्ट इलाके को 'मिनी पाकिस्तान' जैसा बताया था.

उन्होंने डॉन अखबार के पत्रकार मलीहा सिद्दिकी को इस इलाके को दिखाने की बात भी कही थी. जाहिर है भारतीय जमीन पर खड़े होकर एक मंत्री के ऐसे बयान और गतिविधियों से देश का सिर शर्म से झुक जाता है.

हालांकि इस बयान को सामने आए नौ महीने बीत चुके हैं. लेकिन दोषी को किसी ने सबक सिखाने की जरूरत नहीं समझी.

यही वजह है कि ये मान लिया गया कि ऐसे बयानबाजों को शीर्ष राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है. नतीजतन इस ट्रेंड को वैध करार देकर दूसरे भी इसे परंपरा की तरह निभाने लगे. यही कारण है कि अब इसे सियासी शक्ति प्रर्दशन का जरिया बना लिया गया है.

लेकिन बयानों से सुर्खियां बटोरने वाले यहीं नहीं रुके. 11 जनवरी को तृणमूल सांसद कल्याण बनर्जी ने जिस गैर संसदीय भाषा का इस्तेमाल किया वो सबसे हैरान करने वाला था.

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उन्होंने कहा कि वर्ष 2019 के चुनावों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी चूहे की तरह गुजरात में छिपने की जगह तलाशेंगे.

सवाल उठता है कि क्या एक सांसद को ऐसी भाषा का प्रयोग करना शोभा देता है? क्या ऐसी भाषा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता? लेकिन हद तो तब हो गई जब टीवी पर ऐसे बयान के बारे में पूछा गया. तो आलोचना करने की बजाए इन बयानों को सही बताने के लिए तर्क दिए जाने लगे.

इसमें दो राय नहीं कि बयानों से छिड़ी जंग ने पश्चिम बंगाल की सियासी माहौल को बहुत नुकसान पहुंचाया है.

अगर समय रहते ऐसे बयानबाजों को अनुशासित नहीं किया गया तो आगे जाकर इसका स्तर और गिरेगा. लेकिन बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि पश्चिम बंगाल में जिस तरह का ध्रुवीकरण नजर आ रहा है.

इससे सांप्रदायिक ताना-बाना के टूटने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता. मौजूदा हालात में वक्त रहते पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को राज्य के बौद्धिक वर्ग का साथ लेकर ऐसी संकीर्ण और विभाजनकारी विचारधारा को रोकने की कोशिश करनी चाहिए.

जबकि बीजेपी कार्यकर्ताओं और प्रवक्ताओं के लिए ये समझना जरूरी है कि वो संयम बरतें. वो किसी भी तरह के भड़काऊ भाषा का इस्तेमाल न करें. क्योंकि भड़काऊ बयानों से सुर्खियां बटोरने के लालच में सियासी माहौल दिन-ब-दिन खराब होता जाएगा. ऐसे जहर उगलने वाले बयानों की बाढ़ सी आ जाएगी.

बीजेपी, तृणमूल कांग्रेस मतभेदों को सुलझा सकते हैं

पश्चिम बंगाल के लिए ये वक्त खुद को परिपक्व और प्रबुद्ध साबित करने का है. खेल के दौरान भी अक्सर खिलाड़ियों के बीच नोंक-झोंक हो जाती है. लेकिन तब मैदान पर रेफरी या अपांयर फैसले लेने के लिए होते हैं.

जो खिलाड़ियों से अपने विवाद को वहीं सुलझाने की नसीहत देते हैं. लेकिन लगता है कि सियासत एक खतरनाक खेल होता जा रहा है. जहां मैच बिना किसी रेफरी के खेला जाता है. और नियमों के प्रति जहां बेहद कम सम्मान रहता है .

बीजेपी, तृणमूल कांग्रेस के परिपक्व प्रवक्ताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ बैठकर मतभेदों को सुलझा सकती है. जिससे समय रहते किसी भी आग पर काबू पाया जा सकेगा. क्योंकि ये सिर्फ जरूरी नहीं बल्कि इसकी कोशिश भी की जानी चाहिए.

हालांकि केंद्र के साथ दूरी बनाए रखने के राज्य सरकार के रवैए से तो यही लगता है कि ये मामला इतनी आसानी से सुलझने वाला नहीं है.

गोपाल कृष्ण गोखले ने कभी कहा था 'बंगाल जिसे आज सोचता है, पूरा देश उसे कल सोचता है'. लेकिन आज इसे झुठलाया जा रहा है. कोलकाता के सांस्कृतिक विरासत और गौरवशाली अतीत के लिए ये घातक है. लगता है कि पतन की शुरुआत हो चुकी है.