सुप्रीम कोर्ट द्वारा नारदा घोटाले की जांच सीबीआई को नहीं दिए जाने की मांग को ठुकराए जाने के बाद अब तय है कि पश्चिम बंगाल में टीएमसी और बीजेपी की राजनीतिक लड़ाई और जोर पकड़ने वाली है.
दरअसल 17,000 करोड़ रुपए के रोज वैली घोटाले की जांच सीबीआई पहले से कर रही है और पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ पार्टी टीएमसी के दो सांसद तापस पाल और सुदीप बंद्योपाध्याय पहले से ही जेल में हैं.
दूसरी तरफ बीजेपी के करीब दर्जन भर राष्ट्रीय और राज्य स्तर के नेताओं पर पश्चिम बंगाल पुलिस ने आपराधिक मामले दर्ज किए हैं. कुछ को गिरफ्तार भी किया गया है, कुछ और गिरफ्तार हो सकते हैं. इनमें केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो भी शामिल हैं, जिन पर टीएमसी की एक महिला कार्यकर्ता ने किसी टीवी शो के दौरान अश्लील हरकतें करने का आरोप लगाया है.
रूपा गांगुली के ऊपर बच्चों की तस्करी का आरोप लगाया है और जांच चल रही है. इनके अलावा जिला और ब्लॉक स्तर पर भी करीब 150 ऐसे बीजेपी नेता हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं.
लेफ्ट के सामने अस्तित्व का संकट
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में इतिहास अपने आप को दुहरा रहा है. बस किरदार बदल गए हैं. लगभग एक दशक पहले तक राज्य की राजनीति में संघर्ष का प्रतीक मानी जाने वाली ममता बनर्जी अब सत्ता में हैं और लगभग ढाई दशकों तक सत्ता में रहने के बाद सीपीएम और दूसरी वामपंथी पार्टियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं.
दरअसल ममता ही राज्य में अब लेफ्ट की नई प्रतिनिधि हैं, इसलिए लेफ्ट को अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए भी खासी मशक्कत करनी पड़ रही है.
ममता के सत्ता में जाने और लेफ्ट का पूरा सपोर्ट बेस ममता की ओर खिसकने के कारण विपक्ष का जो राजनीतिक स्थान खाली हुआ है, उसे पिछले कुछ सालों में बीजेपी तेजी से भर रही है.
वाम राजनीति के चरम पर पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल भी चरम पर था. नंदीग्राम और सिंगूर में हुए पुलिसिया अत्याचार अब भी रोएं खड़े करते हैं. विरोध के किसी भी स्वर को राज्य शक्ति से कुचलना वाम सरकार की रीति-नीति का हिस्सा था.
इसी रीति-नीति ने ममता बनर्जी को एक ऐसी जुझारू नेता की छवि दी, जो गरीबों और मजबूरों की लड़ाई लड़ रही थी.
वाम के रास्ते पर ममता सरकार
विडंबना है कि सत्ता में आने के बाद ममता बनर्जी ने लगभग उन्हीं तरीकों को अपनाना शुरू किया है, जिन्हें उन्हें बंगाल की दीदी बनाया. नारदा चिट फंड घोटाले के संदर्भ में कोलकाता हाई कोर्ट की राज्य पुलिस पर की गई टिप्पणी इसका प्रमाण है.
पार्टी लक्ष्यों के लिए पुलिसिया तंत्र के इस्तेमाल के अलावा कथित मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति भी एक ऐसा तत्व है, जिसे ममता बनर्जी ने सीधे वाम मोर्चे की सरकार से विरासत में हासिल कर लिया.
इनमें एक प्रमुख नीति बंगलादेशी घुसपैठियों को बढ़ावा देना और उन्हें राजनीतिक तौर पर हर सहूलियत मुहैया कराना था ताकि मुस्लिम वोट बैंक पर एकमुश्त कब्जा किया जा सके. पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट बैंक 30 प्रतिशत से ज्यादा है. राज्य की 294 सीटों में से 100 से ज्यादा ऐसी हैं, जिन पर फैसला मुस्लिम वोट ही तय करता है.
लेकिन पहले 25 साल की वाम राजनीति और अब ममता की नीतियों का नतीजा अब सामाजिक तौर पर दिखने लगा है, जहां कई गांवों में दुर्गा पूजा के जुलूस निकलने बंद कर दिए गए हैं. कई गांवों और मुहल्लों में शंख ध्वनि नहीं की जा सकती.
और जनवरी 2016 में मालदा में हुई घटना, जिसमें 90 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या वाले कालियाचक में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने स्थानीय हिंदुओं पर हमला किया, के बाद जाहिर हुए तथ्यों से स्थिति का भयानकता अब जगजाहिर होने लगी है.
विपक्ष का स्थान तेजी से ले रही है बीजेपी
ममता के लेफ्ट की जगह लेने से खाली हुआ विपक्ष का स्थान, उनकी मुस्लिम नीतिओं के कारण हिंदुओं में बढ़ते असंतोष और मोदी के करिश्माई नेतृत्व के कारण हाल के वर्षों में बीजेपी तेजी से एक राजनीतिक ताकत बन कर उभरी है.
2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को पहली बार 17 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 42 में से 2 सीटों पर जीत हासिल हुई. विधानसभा के लिहाज से देखें तो 2011 में पार्टी को मिले 4 प्रतिशत वोट बढ़कर 2016 में 10 प्रतिशत हो गए.
2016 में ही पं. बंगाल की दो लोकसभा सीटों, कूचबिहार और तामलुक में मध्यावधि चुनाव हुए, जिसमें बीजेपी का वोट शेयर क्रमशः 16 से बढ़कर 29 प्रतिशत और 7 से बढ़कर 16 प्रतिशत कर पहुंच गया.
ममता को पता है कि उन्हें अगली चुनौती बीजेपी से ही मिलने जा रही है. इसलिए चाहे विमुद्रीकरण के खिलाफ मोदी के खिलाफ बिगुल फूंकना हो चाहे, 2019 में महागठबंधन बनाने में अगुवाई लेने का. ममता हर जगह आगे दिख रही हैं.
लेकिन सवाल तो यह है कि जब भारतीय राजनीति के मूल कथानक बदल रहे हैं, मतदान के पैमाने और मतदाता ध्रुवीकरण के मानक बदल रहे हैं, तब अपनी मूलभूत राजनीतिक रणनीति में बदलाव किए बिना क्या ममता मोदी का तूफान रोक सकेंगी. अगले साल राज्य में होने वाले पंचायत चुनावों में इस सवाल का जवाब बहुत हद तक मिल जाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)