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राष्ट्रपति की जिम्मेदारी से मुक्त प्रणब मुखर्जी क्या करेंगे 'घर वापसी'?

कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने 'वेलकम होम, प्रणब दा' के नाम से लेख लिखा है

Vijai Trivedi

देश के 13वें राष्ट्रपति रहे प्रणब मुखर्जी ने औपचारिक तौर पर राष्ट्रपति भवन छोड़ दिया है और अब फिर से वे अपने जानने वालों के लिए प्रणब दा हो जाएंगे और उनसे बुजुर्ग रहे लोग उन्हें फिर से प्रणब बाबू पुकार सकेंगे. लेकिन अहम सवाल है कि क्या पूर्व राष्ट्रपति फिर से प्रणब दा हो पाएंगे. राजाजी मार्ग पर उनके नए आवास के पिछवाड़े में, करीब एक किलोमीटर दूर कांग्रेस का वो दफ्तर है जहां प्रणब बाबू ने अपने राजनीतिक सफर का ज्यादा वक्त बिताया है.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और कांग्रेस सरकारों में मंत्री रहे मणिशंकर अय्यर ने एक लेख में कहा है कि –वेलकम होम, प्रणब दा. अय्यर ने प्रणब दा की राजनीतिक प्रतिभा को याद करते हुए कहा है कि आज कांग्रेस को फिर से उनकी जरूरत है. उनकी समझाइश, उनके अनुभव और उनके मशविरों की.


अय्यर ने बहुत खूबसूरती से लिखा है कि एक बेहतर प्रधानमंत्री कद के प्रणब दा की राष्ट्रपति भवन से विदाई... वो एक अच्छे प्रधानमंत्री हो सकते थे जो भारत को नहीं मिल पाया.

पीएम पद की इच्छा नहीं हुई पूरी

2004 के चुनावों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी के बजाय डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री क्यों बनाया, इसका जवाब मणिशंकर अय्यर जरूर जानते होंगे. लेकिन उन्होंने इसे किस्मत का नाम दिया है. कांग्रेस जानती थी कि प्रणब मुखर्जी जितने राजनीतिक अनुभव वाला दूसरा नेता कोई नहीं है, लेकिन उन्हें दूसरे नंबर पर रखा गया. और प्रणब दा के लिए यह दूसरा मौका था.

1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद खुद प्रणब दा प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, इसके लिए उन्होंने अपनी कोशिश भी की, लेकिन इसे अनौपचारिक तौर पर साजिश करार दिया गया. जाहिर है प्रणब दा को इस साजिश की सजा भुगतनी पड़ी और राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें कांग्रेस छोड़कर जाना पड़ा. हो सकता है ये एक बड़ी वजह रही हो कि प्रणब दा ने अपने विदाई भाषण में कांग्रेसी नेताओं का जिक्र करते हुए भी राजीव गांधी का नाम नहीं लिया.

प्रणब दा कांग्रेस के लिए हमेशा संकटमोचक की तरह रहे और इसलिए जब 1989 में राजीव गांधी विपक्ष में बैठे तो उनकी कांग्रेस में वापसी हो गई. 1991 के चुनावों के बीच राजीव गांधी की हत्या के बाद जब रिटायरमेंट पर जाते पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो प्रणब मुखर्जी को फिर से मौका मिला लेकिन इस बार भी नंबर दो पर ही संतोष करना पड़ा.

2004 में जब कांग्रेस पार्टी ने सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, तब प्रणब मुखर्जी ने पार्टी की एक बैठक में गठबंधन सरकार बनाने का विरोध किया था. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने गठबंधन सरकार बनाने के विचार का विरोध किया था और ऐसा करने वाले वे अकेले थे.

बहुमत वाली सरकार के पक्षधर

जाहिर है ये सुझाव भी कांग्रेस अध्यक्ष को तब हजम नहीं हुआ होगा. गणतंत्र दिवस के मौके पर देश के नाम अपने संबोधन में राष्ट्रपति के तौर पर प्रणब मुखर्जी ने देश के लोगों से वोट डालकर बहुमत वाली सरकार चुनने की अपील की थी. उनका भरोसा गठबंधन वाली सरकारों पर नहीं रहा, उनके मुताबिक एक पार्टी की बहुमत वाली सरकार ही देश के लिए अच्छी होती है. बताया जाता है कि चुनाव जीतने और बहुमत हासिल करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति को इस अपील के लिए शुक्रिया भी अदा किया .

ऐसा नहीं है कि प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बनने के बाद ही संविधान की किताब पर चलने लगे... एक बार वाजपेयी सरकार को राज्यसभा में पेटेंट एक्ट में संशोधन वाला बिल पास कराना था, ये डब्ल्यूटीओ में भारत के बने रहने के लिए जरूरी था. उस वक्त कांग्रेस विपक्ष में थी, कांग्रेस में आम राय बिल पर सरकार का विरोध करने की थी ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वाजपेयी सरकार को पेटेंट एक्ट पास कराने का सेहरा नहीं बांधा जा सके. लेकिन तब प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस वर्किंग कमेटी और कांग्रेस संसदीय दल के अंदर सरकार का साथ देने पर जोर दिया था.

प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल के दौरान दो अलग-अलग विचारधाराओं वाली सरकार रही. लेकिन जब जब उनकी मंजूरी का वक्त आया, तब-तब उनका रवैया एक जैसा रहा और वे संविधान की किताब के मुताबिक ही चलते रहे.

मणिशंकर अय्यर ने प्रणब दा को जिस तरह से याद किया है, वो कांग्रेस के मौजूदा हालात की कहानी ज्यादा बयां करते हैं. अय्यर जैसे बहुत से नेताओं को यह महसूस हो रहा है कि कांग्रेस की मौजूदा लीडरशिप उसे आगे बढ़ाने और मजबूत करने में कामयाब नहीं रही है और भविष्य में भी बहुत उजाला नहीं दिखाई देता. बात सिर्फ राहुल गांधी या सोनिया गांधी की नहीं है. कांग्रेस के दूसरे नेताओं में भी कोई इस कद का नहीं है, जो साफ-साफ बात रख सके और पार्टी को मजबूत कराने का रास्ता दिखा सके. हमेशा ही गांधी परिवार के गुणगान में लगे रहने वाले लोगों को भी प्रणब दा जैसे नेतृत्व की जरूरत महसूस हो यानी कांग्रेस में संकट गहराया हुआ है .

अय्यर ने आजादी के वक्त गवर्नर जनरल रहे सी राजगोपालचारी का उदाहरण देते हुए प्रणब दा के फिर से सक्रिय राजनीति में आने की उम्मीद जताई है, जिसकी संभावनाएं न के बराबर है. इस बात की संभावना भी कम लगती हैं कि वे सक्रिय सलाहकार की भूमिका में भी रहें, लेकिन कांग्रेस प्रणब को अगर द्रोणाचार्य मानती है तो एकलव्य की तरह रह कर भी उनके रास्ते पर चल कर कुछ सीख सकती है.

प्रणबदा के भविष्य में क्या है

बहुत सी किताबें लिखने वाले प्रणब हिंदुस्तान की राजनीति और खासतौर से कांग्रेस के बहुत से राज अपने दिल में रखे हुए हैं. ऐसी बहुत सी कहानियां होंगी जिनके बारे में शायद उन्होंने अपनी गोपनीय लाल डायरी में लिखा होगा, जिस डायरी में वे दिन का काम खत्म होने के बाद रोजाना लिखते रहे हैं. लेकिन इसे वे छपवाना नहीं चाहते. प्रणब दा के मुताबिक उनकी यह डायरी उनके अंतिम संस्कार के साथ ही जाएगी.

सवाल सिर्फ कांग्रेस का ही नहीं है, देश के सभी राजनीतिक दलों और नौजवान नेताओं का है, जो सिर्फ परिक्रमा के भरोसे आगे बढ़ना चाहते हैं. यह भी सच है कि ज्यादातर नेताओं का कभी जमीनी हकीकत से वास्ता ही नहीं पड़ा है.

हरेक के लिए प्रणब मुखर्जी बनना आसान काम नहीं है. पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के मिराठी गांव में स्कूल जाने के लिए उन्हें बचपन में नदी को पार करना पड़ता था. बारिश के दिनों में वे अपने साथ एक गमछा रखते थे ताकि बारिश से भरे खेत को पार कर सात किलोमीटर दूर स्कूल पहुंचने के बाद वे अपने कपड़े बदल सकें. इसका मतलब ये नहीं है कि आप को भी पैदल स्कूल जाना है. लेकिन ये जरूरी है कि जो बच्चे आज भी ऐसे हालात में जी रहे हैं उनकी तकलीफ को समझ सकें. हकीकत ये है कि आजकल के ज्यादातर नेताओं को सिर्फ एक पता मालूम है वो है पार्टी मुख्यालय, चाहे वो 24 अकबर रोड हो या फिर 11 अशोक रोड. अय्यर साहब भी शायद ये बात समझते होंगे.