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आर्मी चीफ की नियुक्ति पर राजनीति से बाज आएं विपक्षी

कांग्रेस अपने इतिहास को भूलकर इस मुद्दे पर राजनीति कर रही है.

सुरेश बाफना

ममता बनर्जी के बाद अब कांग्रेस और वामपंथी दलों ने सेना को राजनीति में घसीटने का अभियान शुरू कर दिया है. दो वरिष्ठ अधिकारियों की वरीयता को नजरअंदाज करके मोदी सरकार ने ले. जनरल बिपिन रावत को आर्मी चीफ के पद पर नियुक्त किया है.

कांग्रेस और वामपंथी दलों के नेताअों ने सरकार के इस निर्णय पर आपत्ति जताते हुए मांग की है कि सरकार यह स्पष्ट करें कि वरिष्ठता की अनदेखी क्यों की गई है?


कांग्रेस मुख्यालय में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रवक्ता मनीष तिवारी ने मोदी सरकार द्वारा की गई इस नियुक्ति को सनकी निर्णय बताते हुए आरोप लगाया कि सरकार ने अपने मनपसंद व्यक्ति को आर्मी चीफ के पद पर नियुक्त किया है. सेना के संदर्भ में कांग्रेस पार्टी का यह गंभीर आरोप है, जिसको अनदेखा नहीं किया जा सकता है.

केंद्र के पास है नियुक्ति का अधिकार

देश के संविधान में आर्मी चीफ चुनने का अधिकार केन्द्र सरकार के पास है और इसकी निर्णय प्रक्रिया भी निर्धारित है. परंपरा यह रही है कि वरिष्ठता के क्रम में जो सैन्य अधिकारी सबसे ऊपर हैं, उसे आर्मी चीफ बनाया जाता रहा है.

नए सेना प्रमुख विपिन रावत (तस्वीर: साभार न्यूज18)

लेकिन केन्द्र सरकार के पास यह अधिकार भी है कि वह वरिष्ठता के क्रम को नजरअंदाज करके निचले क्रम के अधिकारी को आर्मी चीफ के पद पर नियुक्त कर सकती है. कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी उत्साह व गुस्से में आकर यह भूल गए कि 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वयं जनरल एस.एन. सिन्हा की वरिष्ठता को नजरअंदाज करके जनरल ए.एस. वैद्य को आर्मी चीफ के पद पर नियुक्त किया था.

जब पत्रकार-वार्ता में मनीष तिवारी को उक्त घटना की याद दिलाई गई तो वे बगलें झांकते हुए नजर आए. मनमोहन सरकार ने 2014 में एडमिरल शेखर सिन्हा की वरिष्ठता को नजरअंदाज करके एडमिरल आर.के. धोवन को नौसेना प्रमुख बनाया था. आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस पार्टी को अपने ही इतिहास की जानकारी नहीं है.

मनीष तिवारी को यह बताना जरूरी है कि तब श्रीमती इंदिरा गांधी और डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने फैसलों के बारे में जनता को कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया था. कांग्रेस सरकारों के इस ‍इतिहास के संदर्भ में कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी की मांग को निम्न स्तरीय राजनीति के तौर पर ही देखा जाएगा.

सेना के स्तर पर होनेवाली नियुक्तियों को राजनीतिक विवाद का विषय बनाना देश के लोकतांत्रिक भविष्य के साथ खिलवाड़ करने जैसा है. भारतीय सेना ने कभी भी इस बात का एहसास नहीं कराया है कि वह किसी भी स्तर पर देश की राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहती है.

राजनीतिक दलों में सहमति होनी चाहिए

कांग्रेस पार्टी परंपरा को आधार बनाकर आर्मी चीफ की नियुक्ति प्रक्रिया पर आपत्ति जता रही है. परंपरा को ‍गतिशीलता के संदर्भ में देखने की जरूरत है. समय के साथ परंपरा में भी बदलाव होता है. देश की सुरक्षा के संदर्भ में सेना के स्तर पर उच्च स्तरीय पदों पर नियुक्ति में वरिष्ठता की तुलना में मेरिट को प्रमुखता देने पर सभी राजनीतिक दलों के बीच सहमति होनी चाहिए.

उच्च स्तरीय सैनिक पदों पर नियुक्ति के सवाल पर सरकार से यह मांग करना उचित नहीं है कि वह स्पष्टीकरण दे कि किन आधारों पर नियुक्ति की गई है? देश की सुरक्षा से जुड़े सवाल पर जितनी जानकारी सरकार के पास होती है, उतनी जानकारी किसी अन्य व्यक्ति या विपक्षी पार्टी के पास नहीं हो सकती है.

इसलिए किसको सेना का प्रमुख नियु‍क्त करना है? इसका निर्णय सरकार के विवेक पर ही छोड़ देना चाहिए. यदि सेना में होनेवाली नियुक्तियों पर राजनीतिक दलों के बीच सार्वजनिक विवाद होगा तो यह तय है कि सेना के भीतर भी इसका नकारात्मक असर पड़ेगा. क्या हम भारत को पाकिस्तान के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं, जहां सेना प्रमुख की नियुक्ति पर महीनों तक राजनीतिक बहस होती है.