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उत्तराखंडः नए प्रयोग लाएंगे अलग नतीजे

उत्तराखंड विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधी टक्कर है

Himanshu Dabral

उत्तराखंड में 69 सीटों पर 15 फरवरी को मतदान के बाद चुनाव नतीजे चौंकाने वाले साबित हो सकते हैं. अबकी बार समर्थक वर्ग और वोट डलने के पुराने सारे समीकरण शीर्षासन करते दिखाई दे सकते हैं.

इसकी वजह सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदार दलों बीजेपी और कांग्रेस द्वारा इस चुनाव में अपनाई गई नई रीति-नीति है. बीजेपी ने गढ़वाल अंचल में कांग्रेस के कद्दावर नेताओं को थोक में कमल थमाकर टिकट दिए हैं.


वहीं कांग्रेस ने इस बार ब्राह्मणों का मोह छोड़कर दलितों, मुसलमानों और पिछड़ों पर दांव लगाया है. हालांकि इंदिरा हृदयेश और प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय कांग्रेस के लिए ब्राह्मण वोट खींचेंगे ही.

इनके अलावा ठाकुरों में तो उत्तराखंड में सबसे आला दर्जा खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत का ही है. वैसे बीजेपी ने भी सतपाल महाराज और हरक सिंह रावत को कांग्रेस से लपक कर ठाकुरों में हरीश रावत के वर्चस्व को तगड़ी टक्कर दी है.

चुनाव में हरीश रावत ने कांग्रेस की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा रखी है (फोटो: फेसबुक से साभार)

बीजेपी ने केदारनाथ आपदा राहत में तमाम कलंक लगाने के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को गले लगाकर कांग्रेस को गरियाने में लगी ही हुई है. उसके पास ब्राह्मण नेताओं की यूं भी कमी नहीं है. बीजेपी के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों रमेश पोखरियाल निशंक और भुवनचंद खंडूड़ी का राज्य के ब्राह्मणों पर खासा असर है.

कमजोरी का अहसास

ऊपर से बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने राज्य के मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी का आशीर्वाद लेकर कुमाऊ और तराई के ब्राह्मणों को प्रभावित करने की भी कोशिश की है. इसके बावजूद बीजेपी को अपनी कमजोरी का अहसास बखूबी रहा सो उसने कुमाऊ और मैदानी क्षेत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को झोंका. तो गढ़वाल में मोर्चा खुद अमित शाह ने संभाला.

उधर, कुमाऊ में अपनी पुरानी जड़ें होने के कारण हरीश रावत को वहां सहानुभूति वोट का फायदा दिख रहा है. इसीलिए उन्होंने खुद तराई में किच्छा और मैदान में हरिद्वार ग्रामीण सीट पर पंजा थाम कर खम ठोंका हुआ है, ताकि आसपास की सीटें कांग्रेसी निकाल सकें. हरिद्वार से रावत लोकसभा सदस्य भी रहे हैं. इसीलिए उन्होंने 2014 में अपनी पत्नी रेणुका रावत के लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद हरिद्वार का दामन नहीं झटका.

रावत बतौर मुख्यमंत्री हर तीसरे दिन हरिद्वार जिले की 11 विधानसभा सीटों में से किसी न किसी में लगातार आते-जाते रहे हैं. मकसद जाहिर है कि वहां के अल्पसंख्यकों और दलितों एवं पिछड़ों को बीएसपी से खींचकर अपने पाले में करना.

बीएसपी इस क्षेत्र में और तराई को मिलाकर 2002 के पहले ही चुनाव से औसतन 25 फीसदी वोट और छह विधानसभा सीट पाती रही है. हालांकि राज्य में उसका औसत वोट महज 12 फीसद रहा है.

निशंक और खंडूरी दोनों ही पूर्व में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं (फोटो: फेसबुक से साभार)

दलित वोटबैंक में सेंध

इसीलिए रावत ने भगवानपुर से ममता राकेश को कांग्रेस टिकट पर उपचुनाव जिताया और अब फिर उन्हें पंजा छाप पर लड़ाकर बीएसपी के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि बीजेपी ने उनके देवर सुबोध को ही उनके मुकाबले में उतारा है.

इसी तरह कांग्रेस ने हरिद्वार की अन्य सीटों पर भी मजबूत उम्मीदवार खड़े किए हैं. रानीपुर, हरिद्वार और हरिद्वार ग्रामीण तीनों सीटों पर बीजेपी विधायक थे सो रावत खुद उनमें से एक सीट पर डटे हुए हैं. रानीपुर से कद्दावर नेता अंबरीश और हरिद्वार से ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मचारी को टिकट देकर कांग्रेस ने बीजेपी को कड़ी चुनौती दी है.

इसीलिए खुद मोदी को हरिद्वार में सभा करनी पड़ी. इसके अलावा रावत ने अपने मंत्रिमंडल में शामिल निर्दलीयों को भी पूरी इज्जत बख्शी है. उनमें से जो पंजा छाप पर चुनाव लड़ने को तैयार हुए उन्हें कांग्रेस उम्मीदवार बनाया और जिन्होंने निर्दलीय लड़ने की ठानी उन्हें भी समायोजित किया हुआ है.

इस प्रकार बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने ही राज्य में अपनी राजनीति और रणनीति में आमूल-चूल परिवर्तन किया है. इसलिए पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर ताजा चुनावी समीकरणों का विश्लेषण शायद उतना कारगर नहीं होगा.

राहुल गांधी भी उत्तराखंड में लगातार जनसभाएं कर चुनाव प्रचार कर रहे हैं (फोटो: पीटीआई)

कांग्रेस-बीजेपी में बगावत का उबाल

इसके बावजूद अगली सरकार बनने में निर्दलियों, बीएसपी और उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) के विधायकों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता. इसकी वजह कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही प्रमुख दलों में आया बगावत का उबाल है.

दोनों दलों में एक दर्जन से अधिक सीटों पर दावेदार रहे नाराज लोगों ने निर्दलीय ही ताल ठोंक रखी है. बीजेपी में सीएम की रेस में दिख रहे कुछ दावेदार इस बगावत से खासे संकट में हैं. उधर, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय भी अपने ही पुराने साथी आर्येंद्र शर्मा की निर्दलीय उम्मीदवारी का दंश झेल रहे हैं.

सतपाल महाराज की चैबट्टाखाल सीट के दावेदार पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और निवर्तमान विधायक तीरथ सिंह रावत थे. उनकी जगह सतपाल महाराज को टिकट दिया गया तो रावत मैनेज भी हो गए लेकिन कविन्द्र इष्टवाल बीजेपी के अपने पुराने साथियों के बूते अभी निर्दलीय ही मैदान में डटे हुए हैं.

रानीखेत सीट पर बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट को भी बागी प्रमोद नैनवाल ने बांध रखा है. अमित शाह के करीबी और झारखंड प्रभारी त्रिवेन्द्र रावत अपनी डोईवाला सीट पर बागियों को मनाने में काफी हद तक सफल हैं. फिर भी भितरघात की आशंका से वे चौकन्ने हैं.

निर्दलियों ने नाक में दम किया

पिथौरागढ़ सीट में बीजेपी नेता और पूर्व मंत्री प्रकाश पंत भी भितरघात से आशंकित हैं. यहां से दावेदार रहे पार्टी के पूर्व प्रदेश महामंत्री सुरेश जोशी के समर्थकों से उन्हें वांछित सहयोग नहीं मिल रहा. केदारनाथ में शैलारानी रावत के खिलाफ पूर्व विधायक आशा नौटियाल, नरेन्द्र नगर में सुबोध उनियाल के खिलाफ पूर्व विधायक ओमगोपाल रावत, कालाढूंगी में बंशीधर के खिलाफ हरेन्द्र सिंह, काशीपुर में हरभजन सिंह चीमा के खिलाफ राजीव अग्रवाल, गंगोत्री में गोपाल रावत के खिलाफ सूरतराम नौटियाल जैसे पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे निर्दलियों ने उनकी नाक में दम कर रखा है.

इसी तरह देहरादून की रायपुर सीट पर कांग्रेस नेता रही निर्दलीय उम्मीदवार किन्नर रजनी रावत ने कांग्रेस प्रत्याशी प्रभुलाल बहुगुणा के लिए मुकाबला कड़ा कर दिया है. देवप्रयाग में मंत्री प्रसाद नैथानी के खिलाफ पूर्व मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण, यमकेश्वर में शैलेन्द्र सिंह रावत के खिलाफ रेनू बिष्ट, ज्वालापुर में शीशपाल सिंह के खिलाफ बृजरानी, बागेश्वर में बालकृष्ण के खिलाफ रंजीत दास और रूद्रप्रयाग में लक्ष्मी राणा के खिलाफ प्रदीप थपलियाल ने कांग्रेस उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़कर मुश्किलें बढ़ा दी हैं.

बहुजन समाज पार्टी उधमसिंह नगर और हरिद्वार की कुछ सीटों पर मजबूत नजर आ रही है. जिनमें झबरेडा, गदरपुर, सितारगंज सहित कोई आधा दर्जन सीटें हैं.

उत्तराखंड चुनाव में मायावती की पार्टी बीएसपी को बेहतर परिणाम की उम्मीद है (फोटो: पीटीआई)

बीएसपी को अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद

उत्तराखंड बनने से पहले 1987 में मायावती हरिद्वार सीट से लोकसभा चुनाव हारी थीं. फिर भी उन्होंने 1,40,000 वोट खींचे थे. पिछले विधानसभा चुनाव में भी बीएसपी को हरिद्वार और उधमसिंह नगर में 29 और 21 फीसद वोट मिले थे. हरिद्वार से ही बीएसपी के तीन विधायक पिछली बार जीते थे.

गदरपुर से बीएसपी उम्मीदवार और पूर्व कांग्रेस नेता जरनैल सिंह काली को अच्छा जन समर्थन मिल रहा है. काली सिख समाज से हैं और गदरपुर सिख और जाट बहुल इलाका है. यहां बीजेपी के अरविंद पांडे मैदान में हैं. गरदरपुर में मुकाबला बीजेपी और बीएसपी के बीच माना जा रहा है. सितारगंज में भी बीएसपी उम्मीदवार नवतेज पाल सिंह बीजेपी और कांग्रेस को कड़ी टक्कर दे रही हैं.

मायावती ने भी हरिद्वार और उधमसिंग नगर जिले में रैली की जिसमें अच्छी खासी भीड़ आई, लेकिन राहुल गांधी ने अपने रोड शो और नरेंद्र मोदी ने अपनी सभा में भी खासी तादाद में लोगों को आकर्षित किया है.