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माया ने लगाए सनसनीखेज इल्जाम, भविष्य अब दांव पर

राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही मायावती बीएसपी को जिंदा रखने के लिए अब किसी बड़े एलायंस का हिस्सा बनेंगी?

Rakesh Kayasth

मायावती बिना किसी लिखित बयान के मीडिया के सामने आईं. चेहरे पर गुस्सा था और अंदाज में वही तीखापन जो बरसों पहले हुआ करता था. उन्होंने सीधे-सीधे आरोप लगाया कि ईवीएम मशीनों के साथ छेड़छाड़ की गई है.

जिन मुस्लिम बहुल इलाकों में बीजेपी को एक भी वोट नहीं पड़ा है, वहां भी बीजेपी जीत गई है. बीएसपी ने चुनाव आयोग से यूपी और उत्तराखंड के नतीजों को रोकने और किसी विदेशी एजेंसी से इन मशीनों की जांच कराने की मांग की है.


वाकई चौंकाने वाले हैं नतीजे

यूपी के नतीजे सही मायने में अप्रत्याशित रहे हैं. बीजेपी नेताओं के दावों से बहुत ज्यादा सीटें पार्टी को मिली हैं. तमाम एजेंसियों के एक्जिट पोल का औसत निकालने के बाद बीजेपी को जितनी सीटें मिलती नजर आ रही थीं, उससे करीब 100 सीटें ज्यादा हासिल हुई हैं.

चुनाव में हैरत-अंगेज नतीजे आना कोई नई बात नहीं है. लेकिन इस चुनाव ने सारे अनुमानों को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया है.

मायावती के राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा झटका

इस चुनाव नतीजे के बाद मायावती अपने पिछले 25 साल के अपने राजनीतिक कैरियर के सबसे निचले पायदान पर हैं.

बीएसपी को इस चुनाव में दो दर्जन सीटें भी नहीं मिली हैं. बीएसपी 1993 से लगातार उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव लड़ रही है और पहली बार ऐसा हुआ है कि पार्टी को 50 से कम सीटें मिली हैं.

ये एक ऐसा नतीजा है, जिसपर मायावती तो दूर किसी भी राजनीतिक विश्लेषक को यकीन नहीं हो रहा है. जाहिर तौर पर उनकी बौखलाहट स्वभाविक है.

मायावती का इल्जाम बहुत गंभीर है, जिसपर कोई टिप्पणी करना उचित नहीं होगा. फिलहाल ये समझने की कोशिश करते हैं कि इन अप्रत्याशित नतीजों की राजनीतिक वजहें क्या हो सकती हैं.

क्या बीएसपी का हाथी आंधी मोदी की आंधी में उड़ गया, या बहनजी के राजनीतिक फैसले उनपर भारी पड़ गये?

मायावती को कामयाबी की उम्मीद क्यों थी?

बीएसपी ने यूपी चुनाव की तैयारी बहुत पहले शुरू कर दी थी. ज्यादातर उम्मीदवारों के नाम तय कर लिए गए थे और कार्यकर्ता वोटरों के बीच सक्रिय थे.

ऐसे में हर कोई यही मानकर चल रही था कि बीएसपी सत्ता की दौड़ में उसी तरह शामिल है, जिस तरह समाजवादी पार्टी या बीजेपी. मायावती के लिए खुद पर भरोसे की सबसे बड़ी वजह था, उनका अपना परंपरागत दलित वोट बैंक.

दूसरी कारण था, मुख्यमंत्री के रूप में 2007 से लेकर 2012 का उनका कार्यकाल, जिसमें उन्होने एक सख्त प्रशासक के रूप में अपनी छवि बनाई थी.

मायावती के कार्यकाल में सांप्रदायिक दंगे नहीं के बराबर हुए थे. विकास परियोजनाएं लागू करवाने के मामले में भी उनका रिकॉर्ड अच्छा रहा था.

ऐसे में ये माना जा रहा था कि अखिलेश सरकार से वोटरों की नाराजगी का सबसे ज्यादा फायदा किसी को मिलेगा तो वो मायावती ही हैं, क्योंकि वोटर भावी सीएम के नाम पर वोट डालेंगे. नरेंद्र मोदी कितने भी करिश्माई हों,यूपी के सीएम नहीं हो सकते.

दलित-मुस्लिम गठजोड़ का दांव

ऐसे माहौल में मायावती ने अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा दांव खेला और वो था दलित-मुस्लिम गठजोड़ का.

यूपी में दलित आबादी 21 फीसदी है, जो मायावती का कोर वोटर है। राज्य के 18 फीसदी मुसलमानों को जोड़ लें तो ये आंकड़ा 39 फीसदी तक पहुंच जाता है.

तिकोने मुकाबले में 30 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने वाली कोई भी पार्टी सत्ता की प्रबल दावेदार होती है. मायावाती ने यह महसूस किया कि 2013 में मुजफ्फरनगर समेत राज्य के कई इलाकों में हुए दंगों और दादरी जैसी वारदात की वजह से राज्य के मुसलमान अखिलेश से नाराज हैं.

अगर सत्ता में पर्याप्त भागीदारी मिली तो मुसलमान बीएसपी के साथ आ सकते हैं. अपने इसी आकलन के आधार पर मायावती ने रिकॉर्ड संख्या में यानी 95 मुसलमानों को टिकट दिए.

बीएसपी को मुस्लिम वोटरों ने किया निराश

अब नतीजों के बाद ये लगता है कि मायावती का ये दांव बुरी तरह पिट गया. इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि कांग्रेस का समाजवादी पार्टी के साथ आना. बीजेपी के साथ हाथ मिलाने के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए भी मुस्लिम वोटरों ने मायावती पर भरोसा नहीं किया.

मुसलमान हमेशा से टेक्टिकल वोटर रहे हैं. वो उसी पार्टी को वोट देते हैं, जो बीजेपी को हरा सके. तीन तरफा मुकाबले में कई सीटों पर इस बात का अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल था कि एसपी या बीएसपी में कौन सी पार्टी बीजेपी को ज्यादा कड़ी टक्कर दे सकती है.

नाकामी की एक और बड़ी वजह रही इतनी बड़ी तादाद में मुसलमानों को टिकट देने और बार-बार मुस्लिम-दलित गठजोड़ की दुहाई की वजह से बीजेपी के पक्ष में हुआ हिंदू वोटरो का ध्रुवीकरण.

भारी पड़ी अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग

बीजेपी ने ये भांप लिया था कि दलित वोटरों का एक तबका मायावती को लेकर उहापोह में है. जाटव वोटर तो हमेशा से बहनजी के साथ रहे हैं लेकिन दूसरी दलित जातियों में बीएसपी की नीतियों के लेकर थोड़ा अंसतोष है. इसे भुनाने के लिए बीजेपी ने दलित माइनस जाटव की रणनीति अपनाई.

यूपी की दूसरी सबसे बड़ी दलित जाति पासी समाज के लोगो को जोड़ने की कोशिश बीजेपी ने बहुत पहले से शुरू कर दी थी और इसका नतीजा चुनाव में दिखा.

अभी तक के नतीजों के मुताबिक बीएसपी को लगभग 22 से 23 परसेंट वोट मिले हैं. जाहिर है, मुसलमानों के ज्यादा वोट बहनजी को हासिल नहीं हुए हैं. साथ ही गैर-जाटव दलितों के वोट भी खिसके हैं.

क्या नोटबंदी ने बीएसपी को नुकसान पहुंचाया?

नोटबंदी का एलान होते ही इस पर सबसे तीखा एतराज मायावती ने जताया था. ऐसा नहीं है कि बाकी पार्टियां कैश में लेन-देन नहीं करती या उनके चुनाव ब्लैक मनी से नहीं लड़े जाते. लेकिन जानकारों का मानना है कि सरकार के इस फैसले का बीएसपी को बहुत ज्यादा नुकसान हुआ क्योंकि बीएसपी के साथ कांग्रेस, बीजेपी या समाजवादी पार्टी की तरह कोई कॉरपोरेट लॉबी नहीं है.

जाहिर है, नोटबंदी ने पार्टी की कमर तोड़ दी. बीएसपी ने ये बात छिपाई भी नहीं. चुनाव नतीजों के बाद पार्टी कई नेता अलग-अलग चैनलों पर ये कहते पाए गए कि बीजेपी ने अपना बंदोबस्त पहले ही कर लिया था लेकिन हमें चुनावी फंड के लिए पाई-पाई का मोहताज होना पड़ा.

क्या मायावती का कैरियर ढलान पर है?

मायावती अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ी हैं, जब ना उनके पास सत्ता है, ना विधानसभा में बड़ी ताकत, ना फंड और ना ही नेताओं की दूसरी पंक्ति. उनकी उम्र ढल रही है.

बहुत पहले उन्होंने कहा था- मैंने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुन लिया है. वे उम्र में मुझसे छोटे हैं. समय आने पर मैं उनका नाम बताउंगी. क्या वो समय आ गया है?

बीएसपी और दलित राजनीति के आगे का रास्ता

बीएसपी के संस्थापक कांशीराम कहा करते थे- ना मैं साम्यवादी हूं ना धर्मनिरेपक्षतावादी, मैं सिर्फ अवसरवादी हूं. उनकी रणनीति बहुत साफ थी. वे मानते थे कि बिना सत्ता की चाबी हासिल किए दलितों का सशक्तिकरण संभव नहीं है और सत्ता की चाबी हासिल करने के लिए किसी भी हाथ मिलाने में परहेज नहीं किया जाना चाहिए.

राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही मायावती बीएसपी को जिंदा रखने के लिए अब किसी बड़े एलायंस का हिस्सा बनेंगी? रोहित वेमुला कांड और गुजरात में दलितों की प्रताड़ना जैसे मुद्धे उठाकर मायावती ने बीच में ये संकेत दिया था कि राजनीतिक ताकत भले ही जितनी भी हो, देश में दलितों का सबसे बड़ा चेहरा अब भी वहीं है.

लेकिन अगर जनाधर सीटों में ना बदले तो फिर अकेला इमेज किस काम का? मायवती को इन तमाम सवालों पर सोचना पड़ेगा. सवाल कई हैं और अब बहनजी के पास ज्यादा वक्त नहीं है. मायावती शुरू से मीडिया पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने का इल्जाम लगाती रही हैं. नतीजों के बाद उनकी प्रतिक्रिया सामने है. अब नजर इस बात पर है कि उनका अगला कदम क्या होता है.