बीएसपी सुप्रीमो मायावती का राज्यसभा से इस्तीफा अप्रत्याशित था. राजनीतिक विश्लेषक भले ही कुछ भी कहें, शायद ही राज्यसभा के उप सभापति सहित किसी भी पक्ष या विपक्ष के सदस्य को मायावती के इस कदम का पूर्वाभास था. राज्यसभा के उक्त अवधि के प्रसारण को देखने से तो यही लगता है कि ऐसा तो संसद में आए दिन ही होता है.
अचानक ऐसा क्या हुआ कि मायावती ने इतना बड़ा कदम उठा लियाॽ घटनाक्रम को देखने से तो स्पष्ट है कि मायावती जैसी परिपक्व राजनीतिज्ञ ने यह सुविचारित कदम उठाया था. शुरू में ऐसा लगा कि शायद वो मानमनौवल से अपने इस्तीफे की धमकी को वापस ले लेंगी. गुलामनबी आजाद, शरद यादव और यहां तक कि रामगोपाल यादव का मुखर समर्थन भी मायावती को अपनी धमकी क्रियान्वित करने से नहीं रोक सका.
मायावती ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं
मायावती की मंशा जो भी रही हो, घटना दुर्भाग्यपूर्ण कही जाएगी. दलित उत्पीड़न की घटनाएं आजादी के 70 वर्ष बाद भी हमारे देश की सामाजिक राजनीतिक परिवेश की सच्चाई हैं, इससे शायद ही कोई असहमत होगा. मायावती का इस्तीफा स्वीकार हो चुका है. विपक्षी दलों ने मायावती को सदन मे बोलने न देने की घटना को सदन के इतिहास का काला अध्याय बताया है. आरजेडी के लालू प्रसाद ने तो एक कदम आगे बढ़कर मायावती को अपने विधायकों के मत से बिहार से राज्यसभा भेजने की पेशकश तक कर दी. मायावती ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं.
राजनीतिक विश्लेषक मायावती के इस्तीफे के अपने ही निहितार्थ निकाल रहे हैं. सबसे प्रचलित थ्योरी के मुताबिक मायावती इस्तीफे के माध्यम से दलित मतदाताओं में तेजी से धसकती अपनी जमीन को संभाल रही है. यह सच है कि 2007 में उत्तर प्रदेश जैसे बड़े एवं महत्वपूर्ण राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने और पांच वर्षों तक शासन करने के बावजूद भी मायावती और बहुजन समाज पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ चुनाव दर चुनाव ढलान पर है.
2012 के यूपी के विधानसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त के मूल में मायावती सरकार का भ्रष्टाचार प्रमुख था. 2014 के लोकसभा में मोदी की सुनामी के चलते बीएसपी प्रदेश में अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी. राजनीतिक विश्लेषक अचंभित अवश्य थे लेकिन प्रदेश में सत्तारूढ़ एसपी एवं राष्ट्रीय स्तर पर शासन कर रही कांग्रेस की दुर्गति को देखते हुए मायावती एवं बीएसपी समर्थकों ने परिणामों पर संतोष कर लिया था.
2017 के यूपी के विधानसभा चुनाव सर्वथा अलग थे. अखिलेश की एसपी सरकार की औसत दर्जे की उपलब्धियां, पिता-पुत्र के बीच वर्चस्व को लेकर त्रासद घमासान गृह युद्ध तथा केंद्र की मोदी सरकार की घोषणाओं एवं जमीनी हकीकत का दरम्यानी फासला, मायावती की बीएसपी को उत्तर प्रदेश की सत्ता का स्वभाविक दावेदार बनाती थी.
2016 के मध्य में एक प्रमुख हिंदी टीवी चैनल के चुनाव सर्वे ने तो मायावती की बीएसपी को जीत का प्रबल दावेदार तक बता दिया था. मायावती ने भी अपनी तरफ से चुनाव जीतने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी. 25 प्रतिशत सीटों पर मुसलमान प्रत्याशी खड़ा कर दलित–मुस्लिम गठबंधन की कोशिश की गई थी.
मायावती अपनी पार्टी का जनाधार गंवा चुकी हैं
दलित-मुस्लिम एकता की मायावती की सारी कोशिश बेकार गई. मुस्लिम तुष्टीकरण के चक्कर में मायावती अपना परंपरागत पिछड़ा एवं गैर-जाटव दलित जनाधार भी गंवा बैठी. त्रिकोणीय संघर्ष एवं 22 प्रतिशत से कुछ अधिक मत प्रतिशत के बावजूद भी मात्र 19 सीटें हासिल करके मायावती महज 10 साल के अंदर ही प्रदेश की राजनीति में शिखर से हाशिए पर पहुंच चुकी हैं.
यह सत्य है कि मायावती को दलित पिछड़ा वोट बैंक कांशीराम से विरासत में मिली थी. किंतु यह विरासत यूं ही अनायास नहीं थी. मायावती ने कांशीराम के साथ कड़ी मेहनत करके बड़े संघर्ष के उपरांत दलित–पिछड़े गठजोड़ का जनाधार तैयार किया था. प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा कस्बा या ब्लॉक होगा जहां मायावती ने साइकिल से जन-संपर्क न किया हो.
कांशीराम–मायावती ने बामसेफ के माध्यम से पहले दलितों एवं फिर दलित-पिछड़ों को संगठित किया. कांशी-माया ने एक योजना के तहत दलित वोटबैंक तैयार किया. एक ऐसा वोट बैंक जो बीएसपी सुप्रीमो के एक इशारे पर खरा था. कांशी-माया ने दलितों की शोषित-पीड़ित आंखों में सत्ता का सपना दिखाया था. दलितों वंचितों के जेहन में यह बात भर दी गई कि उनका उद्धार बिना सत्ता में आए नहीं हो सकता, भले ही मुख्य धारा के राजनीतिक दल कुछ भी कहें. दलित सशक्तीकरण के इसी एजेंडे के आधार पर मायावती उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की चार बार मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रही. अपने इस मकसद में कामयाब होने के लिए मायावती ने लगभग सभी पार्टियों से गठजोड़ किया.
ऐसे ही एक गठजोड़ के दौरान 1995 में लखनऊ के ‘गेस्ट हाउस कांड’ ने समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाजपार्टी को एक दूसरे का जानी दुश्मन बना दिया. सत्ता प्राप्ति के लिए बीएसपी ने दो बार बीजेपी के साथ गठबंधन किया. बीएसपी के गठबंधन भले ही नैतिकता से परे रहे हों परंतु उसका दलित-अति पिछड़ा वोट बैंक इस दौरान बरकरार रहा.
मोदी के नेतृत्व में बीजेपी का जो सर्वग्राही जनाधार बढ़ा है, उसने मायावती के दलित वोट बैंक का तिलिस्म तोड़ सा दिया है. संगठनात्मक दृष्टिकोण से मायावती ने कांशीराम वाली परिपक्वता नहीं दिखाई है. बहुजन समाज में कांशीराम ने पिछड़ों– अति पिछड़ों को भरपूर राजनीतिक जगह दी थी. दलितों के ठोस वोट-बैंक से पिछड़ों-अति पिछड़ों के वोट जुड़कर चुनावी गणित में सफलता का फॉर्मूला बन कर उभरा था.
इससे पहले यही फॉर्मूला सवर्ण जातियों ब्राह्मण, ठाकुर और मुसलमानों के साथ गठजोड़ में कामयाब रहा. सदियों से अपमान झेल रही दलित जातियां अब पालकी पर बैठी थी. परंपरागत रूप से सत्ता सुख भोगने वाली सवर्ण जातियां एवं मुसलमान अब नए पालकी ढोने वाले थे. उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाबी अब दलितों की मुट्ठी में थी.
मायावती ने अनायास ही जनाधार नहीं खोया है. 2007 से ही उन्होंने खुद को अपने आवास एवं पार्टी दफ्तर तक सीमित कर लिया. पार्टी के कद्दावर नेता भी सही सलाह देने के बजाय चापलूसी एवं चारण-गान तक सीमित रह गए. जुगुल किशोर, स्वामी प्रसाद मौर्य एवं नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे कद्दावर नेताओं का निष्कासन बीएसपी के लिए आत्मघाती साबित हुआ. मायावती का प्रचार प्रसार भी प्रेस कॉन्फ्रेंस और प्रेस नोट तक सिमट कर रह गया है.
फूलपुर दलित-पिछड़ी एवं मुस्लिम राजनीति का गढ़ रहा है
सहारनपुर की जातीय हिंसा मायावती एवं बीएसपी के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकती है. उभरते दलित नेता चंद्रशेखर शायद अभी मायावती के कद्दावर व्यक्तित्व के सामने बौने साबित होगें, परंतु एक अन्य घटनाक्रम ने मायावती के आत्मविश्वास को पुन:जागृत किया है. सहारनपुर प्रशासन ने मायावती को हेलीकॉप्टर से सहारनपुर दंगा पीडित गांव का दौरा करने की अनुमति नहीं दी. हारकर मायावती ने गाजियाबाद से सहारनपुर का दौरा सड़क मार्ग से किया. इस सड़क यात्रा ने मायावती को अपनी खोई ताकत का एहसास करा दिया है.
मायावती को अब भरपूर एहसास है कि उन्हें खोई सत्ता पाने के लिए फिर से संघर्ष करना पडे़गा. यह संघर्ष उन्हें सड़कों एवं गांवों में फिर से ले जाएगा. आश्चर्य नहीं होगा यदि वो फूलपुर संसदीय क्षेत्र से इस संघर्ष का शंखनाद करती हैं. फूलपुर दलित-पिछड़ी एवं मुस्लिम राजनीति का गढ़ रहा है. योगी सरकार के पहले चार महीने उपलब्धियों के दृष्टिकोण से कुछ खास नहीं रहे हैं.
बीजेपी के मतदाताओं का मोहभंग शुरू हो चुका है. यदि लोकसभा के इन उप-चुनावों में महागठबंधन कोई स्वरूप ले लेता है, तो मायावती का इस्तीफा बीजेपी को भारी भी पड़ सकता है. वैसे भी मायावती के इस्तीफे ने बीजेपी के दलित राष्ट्रपति चुने जाने के उल्लास को कुछ कम कर दिया है. लगता नहीं है कि मायावती के इस्तीफे का दांव खाली जाएगा.