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एक्जिट पोल 2017: पहले ही जान लीजिए यूपी के नतीजों पर कौन-क्या बोलेगा

भविष्यवाणियां कर चुके विशेषज्ञों के पास दांव उल्टा पड़ने के बाद के बहाने भी तैयार हैं

Rakesh Kayasth

विंस्टन चर्चिल ने कहा था- अच्छा पत्रकार वही होता है, जो किसी घटना के होने से महीना भर पहले उसके होने की भविष्यवाणी कर दे और फिर अगले दो महीने तक ये बताता रहे कि जो घटना होनी थी, वो क्यों नहीं हुई.

तमाम चुनाव विश्लेषकों के लिए चर्चिल को याद कर लेने का सही वक्त है क्योंकि यूपी के नतीजों में चंद घंटे बाकी रह गए हैं. वैसे तो इस देश का हर आदमी क्रिकेट और राजनीति का पंडित है. लेकिन आखिरी राउंड की वोटिंग खत्म होने के बाद बड़े-बड़े विश्लेषक भी बगले झांकते नजर आ रहे हैं.


जो ज्यादा समझदार हैं वे सबकी भविष्यवाणियां सुनने के बाद औसत निकालकर अपना अनुमान पेश कर रहे हैं. आइए देखते हैं 11 मार्च के नतीजों के बाद क्या होंगे विशेषज्ञों के संभावित जवाब.

बीजेपी के नंबर वन होने पर

ये एक अकेले नरेंद्र मोदी के करिश्मे की जीत है. मोदी की शख्सियत अखिलेश-राहुल की जोड़ी पर भारी पड़ी. बीजेपी ने भावी मुख्यमंत्री का एलान तक नहीं किया था. मोदी ने पूरे चुनाव में वनमैन आर्मी की तरह काम किया.

मोदी ने पूरे राज्य में 21 रैलियां की. वाराणसी में 3 दिन रुक कर रोड शो किए. आखिरकार मेहनत रंग लाई. इस कामयाबी ने बिहार में लगे झटके से मोदी को उबार लिया है. संघ का दबाव भी कम हो गया है. अब राज्यसभा में बीजेपी की स्थिति बेहतर होगी, रूके बिल पास होंगे. कुल मिलाकर 2019 के लिए मोदी की राह आसान हो गई है.

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महाराष्ट्र और उड़ीसा के लोकल बॉडी इलेक्शन के बाद यूपी के वोटरों ने भी बता दिया है कि नोटबंदी सचमुच मास्टर स्ट्रोक थी. जनता पूरी तरह नोटबंदी के फैसले के साथ है.

अमित शाह एक बार फिर चाणक्य साबित हुए. उनकी सोशल इंजीनियरिंग ने रंग दिखाया. यादव माइनस ओवीसी और दलित माइनस जाटव का उनका फॉर्मूला सही साबित हुआ. टिकटों के बंटवारे में जो जोखिम उन्होंने उठाया था, उसके अच्छे नतीजे सामने आए.

वक्त के साथ रणनीति का बदलने का फायदा भी नरेंद्र मोदी को मिला. कैंपेन विकास के एजेंडे के साथ शुरू हुआ था लेकिन मौका देखकर खेला गया ध्रुवीकरण का दांव निशाने पर लगा. श्मशान-कब्रिस्तान, हिंदू बिजली-मुस्लिम बिजली जैसे हथकंडो ने बीजेपी को फायदा पहुंचाया. अखिलेश के हमलों को मोदी ने चालाकी से अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लिया. गधा प्रकरण इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.

अखिलेश सरकार की एंटी-एनकंबेंसी का फायदा सीधे-सीधे बीजेपी को हुआ. समाजवादी परिवार की आपसी रंजिश अखिलेश यादव को बहुत भारी पड़ी.

एसपी-कांग्रेस के नंबर वन होने पर

अखिलेश ने यादव इतिहास रच दिया. मोदी के करिश्मे के खिलाफ मिली जीत अखिलेश को एक ताकतवर राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित कर सकती है.

यूपी की जनता ने अखिलेश की विकास की राजनीति पर मुहर लगाई. अखिलेश ने जो किया उसी के नाम पर वोट मांगे. पूरा कैंपेन साइकिल, स्मार्टफोन, लैपटॉप, हाईवे और समाजवादी पेंशन योजना के इर्द-गिर्द घूमता रहा. अखिलेश सिर्फ विकास का एजेंडा चलाते रहे जबकि बीजेपी विकास से श्मशान और गधे से गाय पर कूदती रही.

अखिलेश ने जबरदस्त दूरदंदेशी दिखाते हुए मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ जाकर कांग्रेस से समझौता किया. इसके लिए उन्होने कांग्रेस को जरूरत से ज्यादा सीटे दीं. लेकिन कांग्रेस से हाथ मिलाने का फायदा ये हुआ कि यूपी का दुविधाग्रस्त मुस्लिम वोटर पूरी तरह गठबंधन के पक्ष में झुक गया.

मुस्लिम-यादव समीकरण का फायदा गठबंधन को मिला ही राहुल अखिलेश की जोड़ी भी युवा वोटरों को अपनी ओर खींचने में कामयाब रही. राहुल गांधी के लिए ये सौदा फायदेमंद साबित हुआ. जूनियर पार्टनर बनकर ही सही लेकिन कांग्रेस धीरे-धीरे पुनर्जीवित हो रही है. इस नतीजे के बाद राष्ट्रीय राजनीति में मोदी के खिलाफ लामबंदी तेज होगी.

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बीजेपी को लेकर जाटों की नाराजगी ने गठबंधन को फायदा पहुंचाया. टिकट बंटवारे में हुई गड़बड़ी ने भी कई सीटों पर बीजेपी को भारी नुकसान पहुंचाया जिसका सीधा फायदा अखिलेश को हुआ. बीजेपी के आक्रामक कैंपेन के बदले जनता ने अखिलेश की सीधी बातों पर भरोसा किया.

बीएसपी के नंबर वन होने पर

मायावती ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सोशल इंजीनियरिंग में उनका कोई जवाब नहीं है. 2007 में उन्होने दलित-ब्राहण गठजोड़ की बदौलत कुर्सी हासिल की थी.

बीएसपी के लिए इस बार यही काम दलित-मुस्लिम पार्टनरशिप ने किया. आलोचनाओं के बावजूद मायावती ने करीब 100 मुसलमानों को टिकट देने का फैसला किया था और अंत में ये फैसला सही साबित हुआ.

एक प्रशासक के तौर पर मायावती की सख्त छवि पर यूपी की जनता ने मुहर लगाई. ग्रास रूट पर बीएसपी के कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत ने असर दिखाया.

इस रिजल्ट ने मायावती के इस तर्क को मजबूती दी कि बीएसपी के वोटर शोर मचाये बिना वोट डालते हैं और मेनस्ट्रीम मीडिया जानबूझकर बीएसपी की अनदेखी करता है. यूपी के बेहतर नतीजों के बाद राष्ट्रीय राजनीति में मायावती की भूमिका बढ़ सकती है.

बीएसपी की नाकामी पर

मायावती अपने राजनीतिक अस्तित्व की सबसे बड़ी लड़ाई हार गई हैं. कांग्रेस से हाथ ना मिलाने और मुसलमान वोटरों पर जरूरत से ज्यादा भरोसे की रणनीति उन्हे बहुत महंगी पड़ी. बीजेपी के साथ उनके पिछले ट्रैक रिकॉर्ड की वजह से मुसलमान वोटर उनपर भरोसा नहीं कर पाए.

शख्सियतों की लड़ाई में मोदी के करिश्मे और अखिलेश-राहुल की यूथ अपील के आगे मायावती कमज़ोर पड़ीं. लिखे हुए भाषण पढ़ने का उनका अंदाज़ लोगो को रास नहीं आया. मायावती के अलावा बीएसपी के पास एक भी दूसरा ऐसा चेहरा नहीं था जो रैलियों में भीड़ जुटा सके.

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लोकसभा चुनाव 2014 के बाद मायावती के लिए ये दूसरा बड़ा झटका है. लेकिन ज्यादा चिंता की बात ये है कि यूपी से बाहर भी दलित वोटो पर उनकी दावेदारी कम होती जाती रही है.

पंजाब का रिजल्ट इसका सबसे बड़ा  उदाहरण है. करीब 35 फीसदी दलित वोटरो वाले पंजाब में एक समय बीएसपी की ताक़तवर मौजूदगी थी.  लेकिन अब पूरे के पूरे दलित वोट आम आदमी पार्टी की झोली में हैं. ताजा चुनाव नतीजों ने राष्ट्रीय राजनीति में बीएसपी की भावी भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिया है.