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राष्ट्रपति चुनाव: सियासत में बढ़ी यूपी की भागीदारी, पीएम के बाद अब राष्ट्रपति की बारी

जिस प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें आती हों वहां जीते बगैर दिल्ली की राह इतनी आसान नहीं रह जाती है.

Amitesh

देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश. प्रदेश के भीतर 543 में से 80 लोकसभा की सीटें. अपने-आप में ये बताने के लिए काफी हैं कि देश की सियासत में यूपी का रोल कितना अहम है.

कहते हैं दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है. इसमें काफी हद तक सच्चाई भी है. जिस प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें आती हों वहां जीते बगैर दिल्ली की राह इतनी आसान नहीं रह जाती है. ऐसा पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त भी दिखा था, जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने भी अपना सबकुछ यूपी में दांव पर लगा दिया था.


यहां तक कि खुद गुजरात की वडोदरा सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने के बावजूद यूपी के बनारस से मैदान में उतर गए. गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके नरेंद्र मोदी ने दोनों जगहों से चुनाव जीतने की सूरत में बनारस सीट अपने पास रखी और एक बार फिर से देश को यूपी का ही सांसद प्रधानमंत्री मिल गया.

मोदी यूपी से आने वाले आठवें प्रधानमंत्री बने. लेकिन, बारी जब राष्ट्रपति पद की दावेदारी की हुई तो यहां भी मोदी की पसंद यूपी से आने वाले रामनाथ कोविंद के नाम को ही आगे किया गया.

कोविंद की दावेदारी के पक्ष और विपक्ष में अलग-अलग तर्क दिए जाते रहेंगे, लेकिन, कोविंद के यूपी कनेक्शन से इनकार नहीं किया जा सकता. यहां तक की सरकार में नंबर दो की हैसियत वाले गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी यूपी से ही हैं. यूपी के मुख्यमंत्री रह चुके राजनाथ सिंह इस वक्त लखनऊ से लोकसभा सांसद हैं. ऐसे में अब रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बन जाने के बाद देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के बाद राष्ट्रपति भी यूपी से ही होंगे.

कोविंद के बहाने दलितों को लुभाने की कोशिश

खासतौर से केंद्र की मोदी सरकार और यूपी की योगी सरकार के कार्यकाल में यूपी में दलितों के मुद्दे को लेकर हिंसक झड़पें हुईं, जोकि बीजेपी के लिए परेशान का सबब बन गई. पहले लोकसभा और इस साल विधानसभा चुनाव में सफाए के बाद मायावती एक बार फिर से यूपी में दलित राजनीति की तरफ लौटने की कोशिश कर रही हैं.

सहारनपुर की घटना और उसमें दलितों के खिलाफ हुई हिंसक वारदातों ने बीजेपी के खिलाफ एक ऐसा माहौल बना दिया जिससे पार्टी आलाकमान के लिए मुश्किलें कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थीं. अब बीजेपी ने यूपी से ही आने वाले दलित समुदाय के रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति के पद पर बैठाने का फैसला कर लिया. इसे यूपी के दलित समुदाय के साथ-साथ दूसरे राज्यों में भी दलित समुदाय के बीच एक संदेश देने की बीजेपी की कोशिश माना जा सकता है.

अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी !

अब लोकसभा चुनाव के लिए भी महज दो साल का वक्त है, उसके पहले राष्ट्रपति चुनाव के बहाने ही सही बीजेपी विरोधियों को चित कर आगे की राह आसान करना चाहती है. तमाम अटकलबाजियों पर विराम लगाकर बीजेपी ने दलित राजनीति के केंद्र में अपने-आप को सबसे बड़े सौदागर के तौर पर सामने लाने की कवायद शुरू कर दी है.

यूपी में बीजेपी ने लोकसभा चुनाव 2014 और विधानसभा चुनाव 2017 में गैर-जाटव दलित समुदाय को अपने साथ जोड़कर ही एक बड़ा सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला तैयार किया था जिसके दम पर दोनों चुनाव में इतनी बड़ी जीत मिली थी.

अब एक बार फिर से यूपी में लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल करनी है तो बीजेपी को इस कंबिनेशन को और मजबूत करना होगा. गैर-जाटव कोली समाज से आने वाले रामनाथ कोविंद को देश के सर्वोच्च पद पर बैठाकर बीजेपी सोशल इंजीनियरिंग के अपने सफल फॉर्मूले को दोहराने की तैयारी में है.

संघ का दलित प्लान

आरएसएस की तरफ से पहले से ही दलित तबके को अपने साथ जोड़ कर हिंदुत्व के वृहत्त आयाम का सपना साकार करने का रहा है. संघ की तरफ से दलित समुदाय को साथ जोडने की मुहिम पहले से ही रही है. अब बीजेपी संघ के एजेंडे को ही अमली जामा पहना रही है.

मंदिर आंदोलन के दौरान भी अस्सी और नब्बे के दशक में अगड़ी जातियों के साथ बीजेपी और संघ की तरफ से पिछड़ों को साधने की कोशिश की गई थी. काफी हद तक इसमें सफलता भी मिली भी. लेकिन, अब दलित समुदाय को साथ लाने की संघ की कोशिश उसके भविष्य के बड़े मिशन को दिखाता है.

बीजेपी भी उसी मिशन को लेकर आगे बढ़ रही है. इसका एक उदाहरण फिर देखने को मिला है जब बीजेपी ने तमाम नामों पर विचार के बाद रामनाथ कोविंद को सबसे आगे कर दिया है.