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यूपी विधानसभा चुनाव 2017: यूं ही नहीं है मायावती की बौखलाहट

बीएसपी के लिए यह आत्मचिंतन करने का मौका है न कि अपनी खीझ उतारने का

Amitesh

लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में सूपड़ा साफ होने के बाद बीएसपी सुप्रीमो मायावती के लिए विधानसभा चुनाव करो या मरो वाला था. लेकिन, इस पूरी लड़ाई में मायावती अपनी बाजी हार गई हैं.

लोकसभा चुनाव के वक्त बीएसपी का खाता तक नहीं खुला था. अब विधानसभा चुनाव में सफाए के बाद बहन जी कुछ इस कदर खिसिया गई हैं कि सबका मुंह नोचने पर उतारू हैं.


नतीजों से बौखलाईं मायावती  

चुनाव से ठीक पहले नोटबंदी के फैसले के बाद मायावती की बौखलाहट देखने को मिल रही थी. अब नतीजे आने के बाद ये बौखलाहट कुछ और बढ़ गई है.

रिजल्ट आने के पहले बड़े-बड़े दावों की पोल खुलने के बाद अब मायावती को अपने भविष्य की चिंता है . लोकसभा में हाथी का खाता तक नहीं खुला. वहीं अब विधानसभा में तो चेहरा ढकने लायक भी सीटें नहीं दिख रहीं. फिलहाल यूपी में हाथी बैठ गया है.

हालांकि, चेहरा छुपाने के बजाए मायावती सबसे पहले सामने आईं तो जरूर लेकिन, एक मंझे हुए राजनेता की तरह जनादेश को स्वीकार करने के बजाए कुछ इधर-उधर की बातें करती नजर आईं. ये मायावती की बौखलाहट है या फिर हार हताशा में दिया गया बयान संकेत तो अच्छे नहीं लग रहे.

माया की सीधी बात

मीडिया से रू-ब-रू मायावती ने हार को मानने के बजाए सीधे बात शुरु कर दी ईवीएम मशीन की गड़बड़ी को लेकर.

मायावती ने आरोप लगाया कि ‘इस बार चुनाव में ईवीएम में केवल बीजेपी के ही वोट दर्ज हुए हैं. ईवीएम पर सवाल खड़ा करते हुए मायावती ने यहां तक कहा कि 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त भी ईवीएम मशीन को लेकर सवाल खड़े हुए थे और इस पर शक जताया गया था.’

मायावती को लगा सदमा

लेकिन, बमुश्किल दहाई का आंकड़ा पार करने वाली मायावती के लिए विधानसभा चुनाव की हार किसी सदमे से कम नहीं है.

दलित वोटबैंक की सियासी जमीन पर बीएसपी ने शून्य से शिखर तक का सफर तय किया.

बाद में बहुजन के बजाए सर्वजन का नारा देकर मायावती ने वो करिश्मा कर दिखाया जो कि यूपी ही नहीं देश की राजनीति में भी किसी चमत्कार से कम नहीं था.

बहुजन के बजाय सर्वजन पर फोकस

बीजेपी की मदद से मुख्यमंत्री बन चुकीं मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनाव के वक्त बहुजन के बजाए सर्वजन का नारा दिया.

ब्राह्मण विरोध के नाम पर अपनी सियासी जमीन मजबूत करने वाली बीएसपी ने दलित-ब्राह्मण गठजोड़ बनाकर यूपी में ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी. लेकिन, उसके बाद बीएसपी के लिए अच्छे दिन नहीं देखने को मिल रहे हैं.

2012 की हार और फिर 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद के हालात ने पूरी बीएसपी को इस कदर झकझोर दिया जहां से वापस उठ पाना काफी मुश्किल था.

मायावती की आखिरी कोशिश

अपनी आखिरी कोशिश में लगी मायावती ने इस बार दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे अपनी पार्टी की खोई चमक हासिल करने की कोशिश की.

वह इस बात को समझती थीं कि इस बार का विधानसभा चुनाव उनके और उनकी पार्टी के भविष्य के लिहाज से कितना महत्वपूर्ण है.

मायावती ने समाजवादी कुनबे के घमासान का फायदा उठाने की हरसंभव कोशिश की.

मायावती को मालूम था कि 2014 की तुलना में हालात उनके मनमाफिक बहुत बदला नहीं है. लिहाजा इस बार अपने कोर वोट बैंक को अपने साथ लाने की पूरी कोशिश में लग गईं.

हाथ से निकला गैर-जाटव वोट

गैर-जाटव दलित वोट बैंक लोकसभा चुनाव के वक्त ही मायावती से खिसक गया था. विधानसभा चुनाव के वक्त उनकी कोशिश रही कि इस बार दलित वोटबैंक वापस आ जाए. लेकिन, दलित-मुस्लिम गठजोड़ का उनका फॉर्मूला फेल हो गया.

403 में 99 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देकर मायावती ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ का फॉर्मूला सामने लाने की कोशिश की थी.

इस उम्मीद में शायद 21 फीसदी दलित और 19 फीसदी मुस्लिम मतदाता एक साथ वोट करें तो ये आंकड़ा 40 फीसदी तक हो जाएगा.

जिस प्रदेश में 29 फीसदी वोटों के साथ सरकार बन सकती है वहां 40 के आंकड़े पर तो शायद सुनामी आ जाए.

केसरिया सुनामी आया 

सुनामी आया भी लेकिन, सुनामी नीला नहीं वो केसरिया है. जिसके रंग में देश का सबसे बड़ा प्रदेश रंग गया है.

मायावती की सोशल इंजीनियरिंग फेल हो गई. शाह-मोदी का सोशल इंजीनियरिंग इस वक्त कारगर हो गया. लेकिन, इस पूरी कवायद में बहन जी की जमीन का पूरी तरह खिसक जाना आने वाले कल का संकेत दे रहा है.

लेकिन, मायावती को इस वक्त सबसे बड़ी चिंता सता रही है अपने भविष्य की. सत्ता में रहते यूपी की कमान संभालना और सत्ता जाते ही राज्यसभा के जरिए केंद्र की सियासत में अपनी भूमिका बनाने की कोशिश करना उनकी राजनीति का हिस्सा रहा है.

मायावती की राजनीति का क्या होगा?

2012 मे यूपी की सत्ता से बेदखल होने के बाद मायावती ने राज्यसभा का रुख कर लिया.

लेकिन, अब एक बार फिर से यूपी में सफाया हो गया है तो बस सवाल यही खड़ा हो रहा है कि अब मायावती की राजनीति क्या होगी.

अगले साल अप्रैल में मायावती का राज्यसभा का टर्म पूरा हो रहा है. लेकिन, अब तो उनके राज्यसभा के भीतर पहुंचने को लेकर भी लाले पड़ने वाले हैं.

उनकी पार्टी के पास विधायकों की शायद इतनी संख्या भी नहीं है कि वो अपनी नेता को राज्यसभा के भीतर भी दोबारा पहुंचा सके.

कांशीराम की विरासत को संभालने वाली मायावती और उनकी पार्टी बीएसपी के लिए शायद ये आत्मचिंतन करने का मौका है न कि अपनी खीझ इस कदर उतारने का.