view all

लखनऊ में 'पहलवान' की जगह 'फुटबॉलर' नेताजी का उदय

अखिलेश यादव यूपी के चुनाव में जीते या हारें, लेकिन प्रदेश की राजनीति में उन्होंने अपनी एक जगह बना ली है.

सुरेश बाफना

रविवार की सुबह लखनऊ में समाजवादी पार्टी के भीतर जो कुछ हुआ, वह इस बात का संकेत है कि भारतीय राजनीति एक नए युग में पहुंच चुकी है. यहां राजनीति के पुराने मानदंड अप्रासंगिक हो रहे हैं.

आजादी के बाद देश की राजनीति में ऐसा उदाहरण पहली बार दिखाई दिया है, जहां राजनीतिक कुनबे में बगावत की आग इस स्तर पर पहुंच गई कि पिता को हटाकर पुत्र पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना है.


अखिलेश ने लिया सख्त लेकिन जरूरी फैसला 

मुलायम सिंह यादव के प्रिय पुत्र अखिलेश यादव ने एसपी के बगावती सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि उनको पार्टी और परिवार को बचाने के लिए मुश्किल फैसला लेना पड़ा.

जिस पिता ने उनको 2012 में मुख्‍यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया था, आज उसी पुत्र ने पिता की कुर्सी को छिनने का निर्णय लिया.

यदि अखिलेश के इस फैसले की नैतिक आधार पर व्याख्या की जाएगी तो निश्चित ही निष्कर्ष उनके खिलाफ ही होगा. यह कहा जा सकता है कि अखिलेश ने पिता मुलायम के साथ उचित व्यवहार नहीं किया.

लेकिन यदि राजनीतिक आधार पर इस फैसले की समीक्षा की जाएगी तो निष्कर्ष विपरीत होगा.

अखिलेश द्वारा पिता मुलायम को राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटाने का फैसला शुद्ध तौर पर राजनीति से ही प्रेरित रहा है.

कोई नेता अपने पिता के खिलाफ इतना सख्त फैसला ले सकता है, यह उसकी नेतृत्व क्षमता का प्रमाण भी है. कह सकते हैं कि अखिलेश ने एसपी का विमुद्रीकरण कर दिया.

हाशिए पर मुलायम 

पिछले कई महीनों से राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा गरम रही है कि मुलायम सिंह यादव अब शारीरिक और मानसिक तौर पर उतने सक्षम नहीं रहे हैं.

अखिलेश की इस बात में दम है कि कुछ लोग (शिवपाल यादव -अमर सिंह) नेताजी से मनचाहे फैसले करवाकर पार्टी के चुनावी भविष्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं.

एसपी के घोर विरोधी भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में एक बड़ा फैक्टर बन चुके हैं.

ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि अखिलेश को विधानसभा चुनाव के दौरान भावी मुख्‍यमंत्री के रूप में पेश किया जाए.

जब मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव ने पत्रकार-वार्ताअों में यह कहना शुरु कर दिया कि चुनाव नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री का चयन किया जाएगा, तभी अखिलेश और उनके समर्थकों के कान खड़े हो गए.

लखनऊ में एसपी उम्मीदवारों की सूची जारी करते हुए मुलायम सिंह यादव, पीटीआई

जब विधानसभा के चुनाव सिर पर हों तब इस तरह की बात करने का अर्थ यही था कि जाने-अनजाने एसपी की चुनावी संभावनाअों को खत्म करने की कोशिश की जा रही है.

यह कहना गलत नहीं होगा कि सपा के विधायकों, नेताअों और कार्यकर्ताअों का बड़ा बहुमत अखिलेश के साथ दिखाई दे रहा है.

मुलायम सिंह यादव के बेहद नजदीकी माने-जानेवाले कई नेता भी अखिलेश को समर्थन दे रहे हैं. ये लोग अब अखिलेश के नेतृत्व में ही सपा का भविष्य देख रहे हैं.

लोकतंत्र में कुनबा-आधारित राजनीतिक दलों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. लेकिन भारतीय लोकतंत्र अभी इस बीमारी से मुक्त नहीं हुआ है और अगले कई सालों तक भारतीय लोकतंत्र को इस बीमारी के साथ जीना है.

राहुल गांधी और अखिलेश सहित कई नेता कुनबा आधारित राजनीति के ही प्रोडक्ट है.

पीटीआई

अखिलेश ने बनाई अपनी पहचान 

अपने पिता के खिलाफ एक सकारात्मक बगावत करके अखिलेश इस राजनीति को चुनौती देते हुए भी दिखाई देते है. देश के विकास की एक विशेष स्थिति में मुलायम सिंह यादव ने जातिगत समीकरणों के आधार पर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाया.

अब अखिलेश बदले हुए परिवेश में अपनी राजनीति की नई इबारत लिखने की कोशिश कर रहे हैं. इस नई इबारत को मुलायम सिंह यादव समझ पाने में बुरी तरह विफल रहे हैं.

अखिलेश यादव यूपी के विधानसभा चुनाव में जीते या हारें, लेकिन इतना तय है कि प्रदेश की राजनीति में उन्होंने अपनी एक जगह बना ली है.

अपने पिता की राजनीतिक छाया से पूरी तरह मुक्त होकर वे अपनी स्वतंत्र पहचान बना रहे हैं.

एक बार जब उनसे पूछा गया था कि उनमें और पिता मुलायम सिंह यादव में क्या फर्क है? उनका जवाब था कि फर्क इतना ही है कि वे पहलवानी करते थे और मैं फुटबाल खेलता हूं.