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यूपी चुनाव: अभी मायावती को खारिज करना भूल होगी

उत्तर प्रदेश में जैसे हालात दिखाई दे रहे हैं उनमें बीएसपी सबको चौंका सकती है.

Akshaya Mishra

क्या मायावती की बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में छुपा रुस्तम साबित होगी? ओपिनियन पोल्स में बीएसपी के लिए कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही हो और इसे बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बाद नंबर तीन की पोजिशन दी जा रही हो. लेकिन जैसे हालात दिखाई दे रहे हैं उनमें बीएसपी सबको चौंका सकती है.

सर्वे में बीएसपी तीसरे नंबर पर


एबीपी-सीएसडीएस पोल में बीएसपी को 93 से 103 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है. पार्टी को 22 फीसदी वोट शेयर मिलने का अंदाजा है. समाजवादी पार्टी को इस पोल में 141-151 सीटें और 30 फीसदी वोट मिलने की बात कही गई है. बीजेपी के लिए 129-139 सीटों और 27 फीसदी वोट शेयर का अनुमान लगाया गया है.

इंडिया टुडे-एक्सिस सर्वे में बीजेपी को 206-216 सीटों और 33 फीसदी वोट शेयर के साथ साफ बहुमत पाते दिखाया गया है. एसपी को 92-97 सीटें व 26 फीसदी वोट शेयर और बीएसपी को 75 से 85 सीटें व 26 फीसदी वोट मिलने की बात कही गई है.

निश्चित तौर पर ये मायावती की पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं.

वोट शेयर में लगातार एकसा प्रदर्शन 

2012 के असेंबली इलेक्शंस में बीएसपी का वोट शेयर 25 फीसदी से थोड़ा ऊपर रहा था. यह पार्टी को 2007 के चुनावों में मिले 30 फीसदी से वोटों से 5 फीसदी ज्यादा था.

हालांकि, 5 फीसदी का फर्क यह साबित नहीं कर पाया कि किस तरह से एसपी को इतनी जबरदस्त जीत के साथ 224 सीटें मिलीं.

बीसएपी को मिलने वाली सीटों की संख्या 126 घटकर 80 पर आ गई. 2009 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को 27 फीसदी वोट और 20 सीटें मिली थीं.

देखने वाली बात यह है कि वोट शेयर के संदर्भ में बीएसपी लगातार एक जैसा प्रदर्शन कर रही है.

सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ बनने वाले माहौल (एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर) के साथ बिखराव के हालात और चालाकी भरी सोशल इंजीनियरिंग को देखते हुए बीएसपी के पक्ष में ऐसी ही लहर आ सकती है.

हालांकि, 2014 के आम चुनावों में सभी मौजूदा समीकरण धराशायी हो गए. नरेंद्र मोदी की लहर में बीजेपी ने 71 सीटों का जबरदस्त आंकड़ा हासिल किया. बीजेपी को इन चुनावों में 42 फीसदी से ज्यादा वोट शेयर मिला.

मोदी लहर खत्म

2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा का वोट शेयर 19 फीसदी के निचले स्तर पर पहुंच गया. इससे साबित हुआ कि दलित वोटों का एक हिस्सा (संभवतः जाटवों को छोड़कर, जो कि मायावती का कोर वोटर माना जाता है) बीजेपी की ओर शिफ्ट हो गया.

क्या मायावती ने 2014 से 2017 के बीच अपने घटते हुए आधार को वापस पाने की पर्याप्त कोशिश की है? पार्टी काडर या टारगेट ग्रुप के साथ सीधा संवाद बनाने का उनका स्टाइल नहीं है.

इस सवाल का जवाब इस बात में छिपा हुआ है कि इन तीन सालों के दौरान वोटर्स की बीजेपी को लेकर राय में क्या बदलाव हुआ है.

निश्चित तौर पर मोदी लहर अब गायब हो चुकी है, लेकिन मोदी पर लोगों का भरोसा अब भी बना हुआ है. सवाल है कि क्या यह राज्य के चुनावों में वोटों में तब्दील होगी, जहां आमतौर पर स्थानीय मुद्दे पहली प्राथमिकता बनते हैं.

दलितों पर अत्याचार और वोटरों की बीजेपी से निराशा

गुजरात और देश के अन्य हिस्सों में दलितों के साथ हुए अत्याचार के मामलों से बीजेपी की छवि को नुकसान पहुंचा है. दूसरी ओर, पार्टी ने जिन चीजों का वादा किया था वे भी अभी तक धरातल पर नजर नहीं आ रहे हैं.

पार्टी को लेकर बना हुआ उत्साह और जोश घटा है. यह चीज सर्वे में भी नजर आ रही है. इंडिया टुडे-एक्सिस सर्वे में बीजेपी को 33 फीसदी वोट शेयर मिलने का अंदाजा लगाया गया है. एक अन्य सर्वे में पार्टी को 27 फीसदी वोट मिलने की बात कही गई है. ऐसे में अगर बीजेपी को वोटों का नुकसान हो रहा है, तो इसका फायदा किसे होगा?

सपा के झगड़े से बीएसपी को फायदा

समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह और उनके बेटे अखिलेश यादव के बीच कड़ी जंग जारी है. ऐसे में इस बात के आसार कम ही हैं कि पार्टी सत्ता के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धी बनकर उभरेगी.

अगर पिता-पुत्र अलग होने का रास्ता चुनते हैं तो पार्टी का वोट बेस भी दोनों के बीच बंट जाएगा. अखिलेश अभी मजबूत नजर आ रहे हैं, लेकिन वह निश्चित तौर पर अपने पिता जैसे सामाजिक गठबंधन बनाने में सफल नहीं रहेंगे.

जातियों की बेड़ियों में जकड़े समाज में विकास को चुनावी मुद्दा बनाने का एक सीमित असर रहा है. उम्रदराज हो चुके मुलायम के लिए अखिलेश के बिना चुनाव लड़ना बेमतलब रहेगा. वह अपने बूते पर कड़े चुनावी कैंपेन को भी कर पाने के लिए फिट नहीं हैं. उनका सपोर्ट बेस भी लंबे वक्त के लिए अखिलेश को बेहतर विकल्प मानता है.

ऐसे हालात में सपा के लिए बीजेपी से छिटके वोटों को अपने साथ जोड़ना बेहद मुश्किल है.

कांग्रेस अभी भी सत्ता के लिए कड़ी उम्मीदवारी पेश कर पाने में नाकाम है. ऐसे में एकमात्र विकल्प बीएसपी बचती है.

अगर समाजवादी पार्टी का झगड़ा खत्म नहीं होता है तो मुस्लिम वोट मायावती के साथ जुड़ सकते हैं. दलितों का एक हिस्सा जो 2014 में मायावती से हट गया था, उसके वापस पार्टी के साथ आने और ब्राह्मणों के एक वर्ग के पार्टी के साथ जुड़े होने से मायावती टर्नअराउंड की उम्मीद कर सकती हैं.

इस वक्त उन्हें खारिज करना भूल होगी.