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बनारसी परेशान, 'गुरू! रेनकोट में आखिर कैसे करें स्‍नान'

काश मोदीजी पहले रेनकोट स्‍नान का खुलासा कर दिए होते तो ठंड में बेवजह कठुआना नहीं पड़ता.

Shivaji Rai

गंगा स्‍नान से दिनचर्या की शुरुआत करने वाला बनारसी आज खासा परेशान है. अस्‍सी पर पप्‍पू की चाय की दुकान हो या मल्‍लू पहलवान का अखाड़ा हर जगह एक ही मुद्दे पर मगजमारी हो रही है. चुनावी मौसम में भी यहां सियासत से अधिक 'स्‍नान' पर चर्चा हो रही है... सभी एकदूसरे से पूछ रहे हैं, 'रेनकोट स्‍नान का होत हौ?'

गंगा पुत्र नरेंद्र मोदीजी ने जब से लोकतंत्र के मंदिर में स्‍नान की इस अनूठी विधा का खुलासा किया है. अष्‍टकूप और नौ बावलियों वाले शहर के लोगों ने इसे 'नाक' का सवाल बना लिया है. कोई इतिहास कुरेद रहा है तो कोई दंतकथा और मान्‍यताओं को खंगाल रहा है, पर कोई प्रसंग रेनकोट स्‍नान से जुड़ता नहीं दिख रहा है.


अनादि काल से अब तक इस शहर में सैकड़ों महापुरुष जन्‍मे और पले-बढ़े लेकिन इस अनूठे शाही स्‍नान से सभी अंजान ही प्रतीत हो रहे हैं. लोगों ने कबीर को झिनी-झिनी चदरिया लपेटे और तुलसी को रामनामी दुपट्टे में ही गंगा स्‍नान को जाते देखा... रैदास को कठौत में गंगा बुलाकर मन चंगा करते देखा... गुदई महाराज, किशन महाराज, बिस्मिल्‍लाह खान, छन्‍नूलाल मिश्र से लेकर राजन-साजन मिश्र तक सभी लोटा और लंगोट में ही दिखे.

कोई नाक दबाए डुबकी लगाते दिखा तो कोई गंगा जल में छपाक-छपाकर नहाते, कोई सुबह अखाड़े की मिट्टी लगाकर नहाते दिखा... तो कोई शरीर पर कड़ुवा तेल लगाकर पानी में उतरते. कोई बुध और रविवार को हजामत के बाद नहाते दिखा... लेकिन नहाने के दौरान सभी के शरीर पर कपड़े के नाम पर लंगोट ही रहा. ईश्‍वरीलाल और बसंती सेठ जैसे रईस भी एक गमछा कमर में लपेट, दूसरा कांधे पर लटकाए ही दिखे.

पप्‍पू की चाय की दुकान पर 'स्‍नान' के मुद्दे पर मंथन जारी है. लंबे आत्‍ममंथन के बाद अशोक पांडेय काशीनाथ सिंह से पूछते हैं, 'का गुरू रेनकोट स्‍नान के बारे में कुछ जानत हौ कि नाहीं?' काशीनाथ सिंह की मुद्रा गंभीर हो जाती है. चेहरे पर कई भाव आते और जाते हैं. लंबी सास लेने के बाद काशीनाथ सिंह कहते हैं,'महाराज कार्तिक पूर्णिमा से लेकर कुंभ तक, माघ से लेकर मकर संक्रांति तक डुबकी लगाई, लेकिन रेनकोट स्‍नान से आज तक वंचित ही रह गयौ.'

गेस्‍ट हाउस चलाने वाले अवधू गुरू की माथे की लकीरें भी फैल-सिकुड़ रही हैं. काशीनाथ सिंह की बात को बीच में काटते हुए बोलते हैं, 'गुरू दिव्‍य निपटान देखा, दिव्‍य स्‍नान देखा. यहां तक की गेस्‍ट हाउस में ठहरी फिरंगी गोरियों को चोरी-छिपके नहाते भी देखा. पर वह भी ससुरी रेनकोट में कभी नहीं दिखीं'

पास ही बैठे गोविंद साहू भी चिंताग्रस्‍त हैं. मन ही मन सोच रहे हैं कि मोक्ष की अभिलाषा में 84 घाटों और 108 कुड़ों में डुबकी लगाई. दुर्गाकुंड, क्रीकुंड से लेकर लोलारक कुंड तक नहाया. परदादा के साथ बचपन में उन तालाब, सरोवर और कुंडों में भी नहाया जो नेताओं के धतकरम से आज नहीं हैं.

जिनके बारे में मान्‍यता थी कि यहां डुबकी लगाने से यमराज भाग खड़े होते हैं, पिशाच पास नहीं फटकते, बलाएं दूर खड़ी झक मारती रहती हैं... लेकिन वहां भी नहाने की कला में कोई मौलिक अंतर नहीं दिखा. न पंडा-पुरोहितों ने भी कभी स्‍नान की दूसरी विधि सिखाई. वहां भी शरीर पर कपड़े के नाम पर लंगोट और लाल गमछा ही रहा.

बनारस का अस्सी घाट (फोटो: आसिफ खान)

मुंह में पान घुलाए कवि लट्ठ बनारसी के ठहाके भी आज ठप हैं. आज तक महाकवि इसी वहम में थे कि चिता और चिंताओं के बीच निश्चिंत रहना कला है. अक्‍खड़पन और फक्‍कड़पन के बीच ठहाके लगाना कला है. भांग और ठंडई को सलीके से घोंटना और छानना कला है. पहली बार उन्‍हें लग रहा है कि जिसे वह कला मानते थे दसअसल वह कला नहीं, असली कला तो रेनकोट पहनकर नहाना और घपले-घोटालों पर पूर्व पीएम मनमोहन सिंह की तरह मौन साधे रखना है.

आम बनारसी सोच रहा है. काश मोदीजी कुछ रोज पहले रेनकोट स्‍नान का खुलासा कर दिए होते तो कड़कड़ाती ठंड में बेवजह कठुआना नहीं पड़ता. नहाने के लिए श्रीमती का ताना नहीं सुनना पड़ता. न दफ्तर देर से पहुंचते, न बहाना बनाना पड़ता. देर के बावजूद सभी ने प्रधानसेवक को चिट्ठी भेजकर अपील की है कि राष्‍ट्रहित में रेनकोट स्‍नान पर 'मन की बात' कह दीजिए. स्‍नान से मन का मैल साफ हो या ना हो, घपले-घोटाले पर सभी को मौन साधे रखना तो आ जाएगा.