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बिहार-यूपी के मुख्यमंत्री जिन्होंने कभी नहीं मांगा अपने लिए वोट

काम किया है तो वोट मिलेगा ही, काम नहीं किया है तो वोट मांगकर क्या फायदा?

Surendra Kishore

उत्तर प्रदेश के डॉ संपूर्णानंद और बिहार के डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा अपने चुनाव क्षेत्र में अपने लिए वोट मांगने कभी नहीं जाते थे. फिर भी वे जीतते रहे. संभव है कि देश में ऐसे कुछ अन्य नेता भी रहे होंगे.

संपूर्णानंद और सिंह अपने राज्यों के मुख्यमंत्री रहे. आजादी के बाद सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकाॅर्ड यदि बिहार में श्रीकृष्ण सिंह का है तो उत्तर प्रदेश में संपूर्णानंद का. श्रीकृष्ण सिंह को श्रीबाबू के नाम से पुकारा जाता था.


इन स्वतंत्रता सेनानियों का तर्क था कि जब हम साल भर अपने क्षेत्र के लोगों से निरंतर संपर्क में रहते ही हैं तो चुनाव के अवसर पर उनके पास जाने की क्या जरूरत है. यदि मतदाता हमारे काम से संतुष्ट होंगे तो वे जरूर वोट देंगे. यदि संतुष्ट नहीं होंगे तो हम उनके पास जाकर भी भला क्या कर लेंगे?

आज बिहार और उत्तर प्रदेश में कुछ उम्मीदवार चुनाव से ठीक पहले मतदाताओं के पास जाकर क्या-क्या कहते हैं और क्या -क्या करते हैं, उसे जानकर लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप पर कई लोगों को शर्म आती है.

वाराणसी में 1891 में जन्मे संपूर्णानंद वाराणसी सिटी साउथ विधान सभा चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ते थे. उनके खिलाफ कम्युनिस्ट नेता रूस्तम सैटिन मुख्य उम्मीदवार होते थे. सैटिन संपूर्णानंद से कभी जीत नहीं सके.

संपूर्णानंद 1962 में राज्यपाल बनकर राजस्थान चले गए. सैटिन 1967 में उसी क्षेत्र से जीते और चरण सिंह के नेतृत्व में गठित पहली गैर कांग्रेसी सरकार में मंत्री भी बने.

डॉ संपूर्णानंद का 1969 में वाराणसी में निधन हुआ तो उनकी शवयात्रा में

इतने अधिक लोग उमड़ पड़े थे कि सड़कों पर तिल रखने की जगह नहीं थी. उनकी अर्थी को जनसमुद्र के ऊपर-ऊपर से किसी तरह खिसकाते हुए घाट तक पहुंचाया जा सका था. उनकी अर्थी लोगों के सिरों के ऊपर से ऐसे गुजारी जा रही थी मानो नदी में नाव चल रही हो. यह उनकी भारी लोकप्रियता का प्रमाण था. संपूर्णानंद दैनिक ‘आज’ के संपादक और विश्वविद्यालय अध्यापक भी रह चुके थे.

डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा ने 1952 में मुंगेर जिले के खड़गपुर विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था. यह राजपूत बहुल क्षेत्र है.

खुद श्रीबाबू भूमिहार परिवार से आते थे लेकिन आजादी की लड़ाई के दिनों से ही श्रीबाबू उस क्षेत्र में राजपूत परिवारों से भी इतना अधिक घुले मिले थे कि उन लोगों के बीच कोई जातीय दुराव नहीं था.

श्रीबाबू के बारे में बिहार सरकार के पूर्व मंत्री दिवंगत राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लिखा है कि ‘श्रीबाबू ने कभी भी अपने चुनाव क्षेत्र में जाकर चुनाव की लड़ाई अपने से नहीं लड़ी. उनको अपने कार्यकर्ताओं और मुंगेर जिले के निवासियों पर इतना विश्वास था कि वे इस बात को सोच भी नहीं सकते थे कि उनके खिलाफ कोई होगा. वे कहते थे कि यदि कोई खिलाफ है तो उसे मौका मिलना चाहिए.’

राजेंद्र प्रसाद सिंह कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में 1985 में उसी खड़गपुर में चुनाव लड़े और जीते. खुद श्रीकृष्ण सिंह 1957 के चुनाव में शेखपुरा से चुनाव लड़े और जीते. सन 1961 में उनका निधन हो गया.

राजेंद्र प्रसाद सिंह के पिता बनारसी प्रसाद सिंह मुंगेर से लोकसभा के कांग्रेसी सदस्य थे. उनके निधन के बाद 1964 में हुए उप चुनाव में मधु लिमये पहली बार मुंगेर से सांसद बने थे.

राजेंद्र बाबू के अनुसार श्रीबाबू गांव-गांव पैदल भ्रमण करते थे. वह जमीन के नेता थे और स्वाभाविकता का जीवन जीते थे.

कहीं ईख के खेत के पास ईख तुड़वा कर खाते थे तो कहीं पेड़ से अमरूद मंगवा कर. अपनी ऊंचाई को कायम रखते हुए भी वे प्रत्येक मित्र के साथ एक मित्र का जीवन जीते थे. कई गांवों के लोगों की तीन-तीन पीढ़ियों के लोगों के नाम उन्हें याद रहते थे. ऐसे नेता को चुनाव में वोट मांगने जाने की जरूरत ही क्या थी?