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यूपी चुनाव: अखिलेश हीरो से विलेन तो नहीं बनते जा रहे

उत्तराधिकार की इस लड़ाई में सिर्फ अखिलेश ही नहीं, मुलायम भी बराबर के हिस्सेदार हैं.

Nazim Naqvi

उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री को समझना चाहिए कि झगड़े की वजह चाहे कुछ हो, आखिरकार लोग उसी पर बात करते हैं और उसी पर अपना मत बनाते हैं, जो कुछ आंखों के सामने घट रहा है.

अखिलेश यादव के सामने इतिहास भी है. सीख लेने वाले उदाहरण भी मौजूद हैं. पार्टी के वरिष्ठों के चेहरे का दर्द भी उन्हें दिख रहा है. आचार-संहिता अब लागू हो गई है, ऐसे में चले हुए तीर को वापिस कमान में लाना शायद ही मुमकिन हो सके.


आकांक्षाओं की शिद्दत ने नासमझी का एक ऐसा कोहरा बना दिया है कि कुछ भी साफ नजर नहीं आ रहा है. मुड़ के देखिए, कुछ तस्वीरें अपनी स्मृति में उकेरिए, ताकि जो तस्वीर आज बन रही है वह साफ-साफ नजर आ सके.

2012 में समाजवादी पार्टी को जनता बहुमत से चुनती है. सरकार बनाने का समय आता है तो मुलायम बेटे का राज्याभिषेक करते हैं. एक ऐसे समय में जब प्रदेश की जनता मुलायम को अपना मुख्यमंत्री देखना चाहती है, मुलायम का ये फैसला पार्टी के वरिष्ठों को हैरान करता है. इसका विरोध यह कहकर होता है कि अखिलेश को थोड़ा और अनुभव ले लेने दीजिए, लेकिन आखिरकार मुलायम की हठ पर ही पार्टी मुहर लगाती है.

बाप और चाचा के बीच बलि का बकरा

अखिलेश गुट के राष्ट्रीय अधिवेशन में

अखिलेश मुख्यमंत्री बन जाते हैं लेकिन जिस तरह सरकार का काम-काज आगे बढ़ता है, कई ऐसे घटनाक्रम होते हैं, उनके माध्यम से संदेश जाता है कि प्रदेश में कई मुख्यमंत्री हैं. मुलायम सिंह जहां-तहां अखिलेश को मंच से डांट देते हैं. अखिलेश के पास पिता की डांट सुनने के अलावा कोई चारा नहीं है. लेकिन अखिलेश यादव एक लायक बेटे की तरह संयम दिखाते हैं. एक मुख्यमंत्री के अपमान को वह पिता के द्वारा बेटे को दी गई नसीहत कहकर बात खत्म करने की कोशिश करते हैं. उनकी इस कोशिश से उनके प्रति सहानुभूति की लहर पनपती है.

‘बाप-चचा और अंकलों के बीच बलि का बकरा’ वाली छवि अखिलेश के लिए कष्टकारी है. हालांकि वह प्रदेश में बिगड़ती कानून-व्यवस्था, गुंडागर्दी और खराब प्रशासन का सारा ठीकरा इसी छवि पर फोड़ कर, चतुराई से इस छवि का इस्तेमाल करते हैं.

लेकिन 2014 में मोदी की अप्रत्याशित और अपूर्व जीत के बाद राज्यों की राजनीति में कंपन होता है. सपा को अपने राज्य में सिर्फ 4 लोकसभा सीटों से संतोष करना पड़ता है.

2014 के बाद बदलने लगे अखिलेश

यहीं से शुरू होती है अखिलेश के लिए करो या मरो वाली स्थिति. अखिलेश के सहारे अपनी सियासत करने वाले उन्हें यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि इन स्थितियों के साथ 2017 के चुनाव में जीत के सपने देखना मूर्खता है.

अखिलेश परिवार के बाकी लोगों की तुलना में अच्छे से पढ़ाई की है. उन्होंने विदेश से पर्यावरण इंजीनियरिंग की डिग्री ली है. सोशल मीडिया के चुनावी प्रभाव को लोकसभा के चुनावों में महसूस कर चुके हैं.

2014 के बाद से अखिलेश ने अपनी छवि को बदलना शुरू किया.

मोदी ने लोकसभा-चुनाव में जिस चतुराई से अपनी छवि 70 एमएम वाली बनाई, वह अखिलेश जैसे नौजवान सियासतदान के लिए आकर्षित करने वाली थी. अगर आप गौर करें तो 2014 के बाद से अखिलेश ने अपनी छवि को बदलना शुरू किया.

ठेले से अमरुद खरीदते या सड़क किनारे चाय पीते अखिलेश का फोटो, किसी बच्चे को लैंप-पोस्ट के नीचे पढ़ते देखकर उसकी शिक्षा का जिम्मा उठाते अखिलेश, पुलिस की ज्यादती के शिकार कृष्ण कुमार का टाइपराइटर वापस करते हुए पुलिस वाले को सस्पेंड करते अखिलेश. ऐसी कई घटनाएं हैं जो प्रादेशिक और राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बनीं.

छवि बनाने के लिए अखिलेश ने ‘कम खर्च-बालानशीं’ वाली सूझ-बूझ भी दिखाई. नौजवानों में साइकिल-वितरण और गांव-गांव तक एंबुलेंस सेवा. फोन कीजिए और एंबुलेंस आपके दरवाजे पर, विपत्ति में घिरे व्यक्ति को ऐसी सरकारी राहत. इसके दो फायदे हुए.

ऊंचाहार के करीब कंदरावां गांव के अरुण सिंह कहते हैं कि इसके दो फायदे हुए, 'जिसके घर मरीज था उसे राहत और पूरे गांव में शोहरत.'

इसके अलावा पेंशन-योजना, हाईवे और मेट्रो रेल का निर्माण, जिसे अखिलेश सरकार ने बड़ी तत्परता और निपुणता के साथ किया. लखनऊ-आगरा हाईवे निर्धारित समय से पहले पूरा करना. लखनऊ में मेट्रो का उद्घाटन. (हालांकि अभी ये सेवा मात्र कुछ दूरी तक ही सीमित है). लेकिन मेट्रो का चक्का घूम गया तो जनता ने खुश होकर कहा, विकास का चक्का घूम गया.

अखिलेश की छवि गढ़ने की कसरत

लेख में ये सारी तस्वीरें दोबारा उकेरने के पीछे दलील यही है कि अखिलेश को बड़ी अच्छी तरह पता है कि ‘जो दिखता है वही बिकता है’ इसके बावजूद अखिलेश धोखा खा रहे हैं, या खा चुके हैं.

वर्तमान में जो तस्वीरें दिख रही हैं, वो ये बयान करने के लिए काफी हैं कि अखिलेश जिन हालात का विरोध करके जनता-जनार्दन के दिलों में बसे, वैसे ही बन गए.

आइए अब उस घटनाक्रम पर नजर डालें जो वर्तमान में चल रहा है.

पिछले साल सितंबर में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के लखनऊ संस्करण में एक रिपोर्ट छपती है, जिसमें मुलायम सिंह के बारे में लिखा गया कि उन्हें एक तरह से घर में कैदी बना दिया गया है और अखिलेश औरंगजेब की तरह व्यवहार कर रहे हैं.

कुछ ही दिन बाद अखिलेश यादव पत्रकारों के साथ एक मुलाकात में उस रिपोर्ट का जिक्र करते हुए अपनी नाराजगी जताते हैं और यह कहकर कि उन्हें मालूम है कि किसके कहने पर वह रिपोर्ट लिखी गयी है, यह जताने की कोशिश करते हैं कि उनके मौन को उनकी कमजोरी बिलकुल न समझा जाए.

इस घटना के कुछ समय बाद अक्टूबर माह के पार्टी सम्मलेन में, जो कुछ अंदर चल रहा था, कार्यकर्ताओं के सामने खुलकर आ गया. अखिलेश ने मंच से कहा कि अमर सिंह ने नेता जी को शाहजहां और मुझे औरंगजेब कहा. इस बात पर शिवपाल यादव ने अखिलेश का माइक छीन लिया और कहा ‘सीएम झूठ बोल रहा है’. इसके बाद खेल शुरू हुआ, बाप-बेटे के बीच जोर-आजमाइश का. उत्तर प्रदेश के इस ‘यादव-वंश’ का सारा किस्सा अगर चार शब्दों में बयान करना हो तो ये कि ‘मुलायम के बाद कौन?’.

पारिवारिक झगड़े में हीरो से विलेन बन गए अखिलेश

मुलायम की गिरती सेहत और उत्तराधिकार की इस लड़ाई में सिर्फ अखिलेश ही नहीं, मुलायम भी बराबर के हिस्सेदार हैं. सपा के अन्दर लोकप्रियता के ग्राफ पर जिस तेजी से अखिलेश ने चढ़ना शुरू किया, वह परिवार में बेचैनी पैदा करने वाला था. मुलायम ने अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी बनाया तो ये भी चाहा कि अखिलेश अपने परिवार को मुलायम के चश्मे से देखें, जो अखिलेश को किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था. 2014 में प्रतीक यादव की उम्मेदवारी का विरोध इसकी एक बानगी थी.

उत्तराधिकार की इस लड़ाई में सिर्फ अखिलेश ही नहीं, मुलायम भी बराबर के हिस्सेदार हैं.

पारिवारिक कलह में फंसकर मुलायम अपना संयम और संतुलन दोनों खोते नजर आए. दूसरी तरफ अखिलेश और उनके सलाहकारों ने निश्चित मत बनाया हुआ है कि इस स्थिति में अगर झुक गए तो फिर कभी सर उठाने का अवसर शायद ही हाथ लगे. लेकिन इस बीच पहली जनवरी से अब तक जो दृश्य उभरे हैं उन्होंने अखिलेश को विलेन बनाना शुरू कर दिया है. नर्म स्वभाव और मृदुभाषी अखिलेश जब क्रूर हुए तो पिता पर ही हमला कर बैठे.

आज मुलायम की स्थिति यह है कि न वो सरकार में दिखते हैं, न पार्टी में. जिस पार्टी को उन्होंने अपने पसीने से सींच कर बड़ा किया, अब उसी पार्टी के चुनाव-चिह्न पर अपना हक जताने के लिए चुनाव आयोग के चक्कर लगा रहे हैं.

अखिलेश ने धीरे-धीरे ही सही लेकिन जिस संयमित बल्लेबाज की छवि बनाई थी, जब उग्र हुए तो खुद को हिट विकेट कर बैठे. चुनाव के माहौल में तो हर बात होती है तो क्या यह बात नहीं होगी कि अखिलेश ने कुर्सी की लालसा में बाप की कुर्सी ही छीन ली.

जिस ‘औरंगजेब’ कहने पर अखिलेश अपना आपा खो बैठे थे, क्या वह वही नहीं बन गए हैं? इतिहास में कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहां राजा के रहते राजकुमार गद्दी पर बैठा हो. शाहजहां ने गिरती सेहत के चलते दाराशिकोह को कार्यवाहक बादशाह जरूर बनाया था. राजकुमारों के बीच झगड़े और युद्ध की कई मिसालें हमारे पास हैं लेकिन मुलायम ने अपनी जिंदगी में पुत्र को गद्दी सौंप दी और आज दर-दर भटकने पर मजबूर हैं.

अखिलेश को शोहरत और पार्टी के भीतर उपजे अपने समर्थन के मद में यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी जनता ने अपना मत नहीं दिया है. या फिर इससे भी कड़वा सच कि ‘मांझी जो नाव डुबोए, उसे कौन बचाए.'