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यूपी चुनाव 2017: जाति-धर्म में बंटे चुनाव के नतीजों की तस्वीर धुंधली

यूपी चुनावों में अभी कोई तस्वीर साफ बन कर नहीं उभर रही है

Akshaya Mishra

इन दिनों आप जब भी यूपी का दौरा करके लौटते हैं तो आपसे एक सवाल जरूर पूछा जाता है, आखिर कौन जीत रहा है यूपी में? आपसे उम्मीद की जाती है कि आप इस सवाल का सीधा सपाट जवाब दें. जैसे ही आप कहते हैं कि तस्वीर धुंधली है और त्रिशंकु विधानसभा के आसार हैं, तो लोगों के चेहरे लटक जाते हैं.

ऐसे में इस सवाल के जवाब में आप ये कह सकते हैं कि, यार कुछ समझ में नहीं आ रहा. मौजूदा हालात में यही सबसे सटीक जवाब होगा.


आप कह सकते हैं कि, 'भाई मैं ये तो बता सकता हूं कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा, मगर मुझसे यूपी के नतीजे के बारे में मत पूछो'. यूपी की राजनीतिक तस्वीर वाकई बेहद पेचीदा है. मतदान के हर दौर के बाद सभी दल जीत के दावे कर रहे हैं. चुनाव पर नजर रख रहे लोग हर दौर के बाद जीत-हार का नया समीकरण बताते हैं. इसीलिए मुश्किल है ये बता पाना कि आखिर यूपी में कौन जीतने जा रहा है.

यूपी जाति, धर्म और समुदायों में बुरी तरह बंटा हुआ सूबा है. यहां राजनीतिक दलों की पहचान उनके काम से नहीं उनके नेताओं की जाति से बनती है. ऐसे में किसी जातिवादी पार्टी को दूसरी जाति के वोट मिलने का आंकड़ा पता चल जाए तो आसानी से जीत के समीकरण की गोटियां फिट की जा सकती हैं.

दलित वोटों पर बीएसपी का एकक्षत्र कब्जा

मिसाल के तौर पर दलित वोटों पर बीएसपी का एकक्षत्र कब्जा है. ऐसे में उसे अगर सवर्णों, खास तौर से ब्राह्मणों के और मुसलमानों के वोट मिल जाएं, तो बीएसपी जीत के लिए जरूरी तीस फीसद वोटों का आंकड़ा आराम से पार कर लेगी.

यही बात अखिलेश यादव पर भी लागू होती है. उनके कोर वोटर यादव और मुसलमान हैं. ऐसे में अगर अखिलेश को गैर यादव ओबीसी जातियों के वोट मिल जाएं और सवर्णों के वोट भी उनके खाते में जुड़ जाएं तो उनका वोट बैंक भी तीस फीसद के पार पहुंच जाता है.

इतने वोटों के साथ किसी भी दल या गठबंधन की सरकार यूपी मे बन जाती है. हालांकि इतने वोट हासिल करने के बाद भी सीटों के आंकड़े में काफी हेर-फेर नजर आ सकता है.

लेकिन हमने जो बात कही ये 2014 के चुनाव से पहले की है. 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 15 फीसद वोट और 47 सीटें मिली थीं. लेकिन 2014 में मोदी लहर में बीजेपी को यूपी में 43 फीसद वोट मिले. पार्टी 403 में से 328 विधानसभा क्षेत्रों में पहले नंबर पर रही.

साफ था कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने समर्थन के मामले में जातियों की कई सियासी दीवारें गिरा दी थीं. परंपरागत जातीय समीकरण ध्वस्त हो गए थे.

क्या 2014 में मिले समर्थन को दोहरा पाएगी बीजेपी?

आज तीन साल बाद सवाल ये है कि क्या बीजेपी, 2014 में मिले समर्थन को फिर से हासिल कर पाएगी? और अगर उसमें गिरावट आएगी भी तो कितनी? अगर बीजेपी को 2014 में मिले वोटों में दस फीसद की गिरावट भी आती है तो भी पार्टी को 33 प्रतिशत वोट मिलेंगे.

यूपी में वोटों का इतना प्रतिशत हासिल होने का मतलब जीत कमोबेश तय है. लेकिन ऐसा लगता है कि बीजेपी के वोटों में इससे भी भारी गिरावट आएगी. आज हालात एकदम बदल चुके हैं.

पहली बात तो ये कि ये राज्य का चुनाव है, केंद्र की सरकार के लिए नहीं. मोदी लहर का असर भी खत्म हो गया दिखता है. तीसरी बात ये हिंदुत्ववादी ताकतों की हरकतों और बयानों से भी एक तबका बीजेपी से छिटका है.

चौथी बात ये कि नोटबंदी जैसे केंद्र सरकार के कुछ फैसलों से जनता में नाराजगी है. और पांचवीं बात ये कि समाज के कुछ खास तबके जो हमेशा से बीजेपी का समर्थन करते आए थे, वो अब पार्टी से दूर हो रहे हैं.

इन सब बातों से बीजेपी, समाजवादी पार्टी और बीएसपी के दर्जे में आकर खड़ी हो जाती है. यानी उसे दूसरी पार्टियों पर बढ़त नहीं हासिल है. अब अगर हम ये मान लेते हैं कि बीजेपी के वोट शेयर में काफी गिरावट आएगी, तो सवाल ये कि इसका फायदा किसको होगा? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें फिर से उन्हीं जातीय और धार्मिक समीकरणों पर नजर दौड़ानी होगी.

जाट सिर्फ आरएलडी के साथ नहीं

एक जाट नेता अशोक बालियान कहते हैं कि ये मान लेना कि जाट बीजेपी को नहीं, राष्ट्रीय लोकदल को ही वोट किया होगा, गलत है. कुछ वोट राष्ट्रीय लोकदल को भी पड़े होंगे और कुछ लोगों ने बीजेपी को भी वोट दिया होगा. ऐसे मे ये सोचना गलत है कि आरएलडी बीस सीटें जीत लेगी.

बालियान पूछते हैं कि, 'आपको क्या लगता है, कि, सिर्फ जाट वोटों की मदद से राष्ट्रीय लोकदल को इतनी सीटें मिल जाएंगी? दूसरी जातियों के वोट कहां हैं?' अशोक बालियान के कहने का मतलब है कि बीस सीटें जीतने के लिए राष्ट्रीय लोकदल को मुसलमानों और दूसरी जातियों के वोट भी चाहिए होंगे. उनकी बात वाजिब है.

एक दलित कार्यकर्ता सतीश प्रकाश कहते हैं कि, 'अगर मुस्लिम वोट बीएसपी और समाजवादी पार्टी मे बंटते हैं तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बढ़त मिल सकती है'.

दूसरे दौर में जिन 67 सीटों पर वोटिंग हुई, उसमें मुस्लिम वोटरों की अच्छी खासी तादाद है. बीएसपी ने मुस्लिम वोटों को लुभाने की कोशिश सबसे पहले शुरू की थी. पार्टी ने अपने उम्मीदवार पहले घोषित कर दिए थे. प्रचार भी पहले शुरू कर दिया था. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के कोर मुस्लिम वोट एक दूसरे को मिल सकते हैं. मगर मुस्लिम वोटों के बंटवारे से कोई इनकार नहीं कर सकता.

ज्यादातर जानकार मानते हैं कि मुसलमान, बीजेपी को हरा सकने वाले उम्मीदवार को वोट देते हैं. अब अगर किसी सीट पर दो मुस्लिम उम्मीदवार हैं तो कौन बीजेपी के खिलाफ ज्यादा जिताऊ है, इसका पता लगाना मुश्किल काम है. इसीलिए नतीजों की भविष्यवाणी करना भी मुश्किल हो जाता है.

तीसरे दौर में जिन 69 सीटों पर मतदान हुआ, वहां यादव वोट बड़ा रोल अदा करते हैं. 2012 में समाजवादी पार्टी ने इन इलाकों में 80 फीसद सीटें जीती थीं. लेकिन 2014 में बड़ी तादाद में यादव और गैर यादव पिछड़े वोटरों ने बीजेपी का साथ दिया. यही बात गैर जाटव दलितों के बारे में भी कही जा सकती है.

ऐसे कितने वोटर अब बीजेपी से दूरी बनाएंगे, कहा नहीं जा सकता. साथ ही ये डर भी है कि अखिलेश की पार्टी को भितरघात का नुकसान भी उठाना पड़ा है. क्योंकि शिवपाल के समर्थकों के कई टिकट काटे गए थे. पिछले चुनाव में बीएसपी 44 सीटों पर नंबर दो रही थी. इसीलिए बीएसपी ने इस बार पूरी ताकत बूथ मैनेजमेंट पर लगाई थी.

चुनाव में इस बार कई तरह के गुणा-गणित काम कर रहे हैं. इनमें से कौन सही बैठता है और कौन गलत, जीत-हार इसी पर निर्भर होगी. चुनाव में कोई पार्टी बहुमत हासिल करेगी या नहीं, ये कहना मुश्किल है. यानी नतीजे आने तक अंदाजा लगाने का खेल जारी रहेगा.