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यूपी चुनाव: अखिलेश आभासी दुनिया में जी रहे हैं और यही उन्हें ले डूबेगा

अखिलेश को उनके इमेज-मैनजरों ने विश्वास दिला दिया है कि उनकी छवि एक पाक-साफ और विकासवादी नेता की है.

Ajay Singh

लगता है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव किसी आभासी दुनिया में जी रहे हैं. अगर टीवी पर छाती पीटते उनके समर्थकों और पिता की परछाई से निकलने के उनके प्रयास को मीडिया के एक वर्ग से मिल रही प्रशंसा को देखें तो उनकी जीत पक्की लगती है.

साफ है कि देश के सबसे बड़े राज्य की राजनीति को अति सरल नजरिए से देखा जा रहा है. इससे अखिलेश की छवि और 'सुनहरी' होने के बजाय धूमिल ही होगी.


अखिलेश कितने मजबूत हैं?

अखिलेश के आसपास देखिए. आपको नरेश अग्रवाल, किरणमय नंदा और उनके चाचा रामगोपाल यादव जैसे नेता दिखेंगे. इन नेताओं की न केवल जमीनी राजनीति पर पकड़ नहीं है बल्कि ये लटकाऊ राजनीति के खिलाड़ी माने जाते हैं.

ये बात मुलायम सिंह यादव से बेहतर कोई नहीं जानता कि पिछले 5 वर्षों में अखिलेश का गवर्नेंस का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत खराब है.

लखनऊ के सुंदरीकरण, मेट्रो और लखनऊ-आगरा हाईवे प्रोजेक्ट के अलावा ऐसा कुछ नहीं जिसे अखिलेश चुनाव में उपलब्धियों के तौर पर पेश कर सकें.

दूसरी ओर, उनकी कमियां कई हैं. आइए एक-एक कर उन पर नजर डालें.

कानून व्यवस्था और नियुक्तियों में फेल रहे अखिलेश

कानून और व्यवस्था के मामले में अखिलेश प्रदेश के बड़े शहरों से लेकर पश्चिमी यूपी के छोटे शहरों तक अप्रभावी ही साबित हुए.

उन्होंने गैंगस्टरों के प्रभुत्व को बढ़ने दिया जबकि सरकारी तंत्र पीछे हटता रहा और शिथिल हो गया. उत्तर प्रदेश में गैंगस्टरों, खासकर यादव समुदाय के, का उदय हुआ और उनका प्रभुत्व पूरे प्रदेश में दिखा.

अखिलेश ने कमजोर आईपीएस अधिकारियों की नियुक्ति कर इस ट्रेंड को बढ़ावा दिया. अहम पुलिस थानों में चुन-चुन कर यादव पुलिस अफसरों और सिपाहियों की नियुक्ति की गई. जाहिर हैं इसमें कहीं न कहीं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सहमति थी.

पीसीएस अधिकारियों की नियुक्ति पर भी विवाद हुआ क्योंकि चुने गए अधिकतर लोग यादव थे. पुलिस कॉन्सटेबल नियुक्ति में भी अधिक लोग एटा, इटावा और मैनपुरी से थे और यादव जाति के थे.

इसकी तुलना मायावती के शासनकाल के दौरान हुई पारदर्शी और निष्पक्ष नियुक्तियों से करें, तो अंतर साफ दिखता है.

मायावती के दौरान हुई नियुक्ति की प्रक्रिया की देशभर में नजीर दी जाती है.

सांप्रदायिकता का बुरा दौर 

राज्य में सांप्रदायिक हिंसा का सबसे बुरा दौर भी देखा गया. अयोध्या आंदोलन के दौर के बाद से पहली बार सांप्रदायिक कटुता और अविश्वास की ऐसी तस्वीर नजर आ रही है. लेकिन जो बात लोग नहीं जानते हैं वो ये है कि दंगों में भूमिका के जिम्मेदार माने जाने वाले कुछ लोगों से मुख्यमंत्री की अच्छी बनती है.

दंगों से निपट रहे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया था कि मुख्यमंत्री की ओर से दंगे भड़काने के आरोपी कुछ बीजेपी नेताओं को गिरफ्तार न करने के खास निर्देश थे.

अखिलेश का गवर्नेंस का दावा खोखला लगता है, जब आप इस बात पर नजर डालें कि उनके शासनकाल में यूपी में पहली आजादी के बाद से भूख से मौत का मामला दर्ज किया गया.

बुंदेलखंड क्षेत्र में अकाल की मार झेल रहे वयस्कों और बच्चों की तस्वीरें सामने आईं. इन मामलों से यूपी के सबसे बुरे सीएम के रूप में अखिलेश का रिकॉर्ड सामने आता है लेकिन क्या अखिलेश ने कभी भी खेद या अपने तरीकों में बदलाव का संकेत भी दिया?

जवाबदेही से बचते हैं अखिलेश

इन 5 वर्षों में अखिलेश ने दूसरों पर दोष मढ़ने को कला बना लिया है. वह मानते हैं कि उन्होंने ऐसा राजनीतिक बख्तर ओढ़ रखा है जिससे वह हर दाग से बच जाएंगे. उनके साथ काम करने वालों अधिकारियों का कहना है कि मुख्यमंत्री किसी बात पर इतना कम समय ध्यान देते हैं कि गंभीर मुद्दों पर उनसे चर्चा मुश्किल हो जाती है.

अखिलेश ने अपने शासनकाल के दौरान हुई हर गलती के लिए या तो अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया या फिर परिवार को, जिसमें उनके पिता और उनकी मंडली शामिल हैं.

आभासी दुनिया में हैं अखिलेश

सभी संकेत हैं कि अखिलेश को उनके इमेज-मैनजरों ने विश्वास दिला दिया है कि उनकी छवि एक पाक-साफ और विकासवादी नेता की है.

वह सच में मानते हैं कि उनकी छवि ओबीसी वोटबैंक की सीमा को लांघकर सवर्णों को भी आकर्षित करेगी. अगर लखनऊ के नजारों को गंभीरता से लें तो अखिलेश को मीडिया के नजरिए में पहले ही विजेता बना दिया गया है.

दिखाया जा रहा है कि वह एक अच्छे इंसान हैं जो घटिया और अपराधी संबंधियों से घिरा है, जिनमें उनके पिता मुलायम भी शामिल हैं.

लेकिन नजरिया वास्तविकता नहीं होता.

मुलायम पहले भी अपनी राजनीतिक मौत के शोकगीत सुन चुके हैं. वह पहले की तरह मजबूत भले न हों लेकिन अभी भी अपने समर्थकों के बीच उनका दबदबा कायम है. लोगों के नजरिए में वह एक ऐसे नेता के रूप में दिखते हैं जिसने अपराधियों और गैंगस्टरों को प्रक्षय दिया. लेकिन उनके वोटरों इसे खास फर्क नहीं पड़ता.

साल 2012 में जब अखिलेश ने चुनाव जीता था तो वह जिस सामाजिक आधार की लहर पर सवार थे, उनमें अधिकतर उनके पिता 'नेताजी' का किसी भी स्थिति में समर्थन करने वाले लोग थे. लेकिन यह असली दुनिया की कहानी थी.

2017 के विधानसभा चुनाव के लिए अखिलेश असली के बदले आभासी दुनिया को ही पसंद कर रहे हैं.