बनारस की लहरतारा क्रॉसिंग पर शाम के वक्त माहौल धुआं-धुआं सा होता है. एक हंगामा सा बरपा होता है. ट्रैफिक किधर से आ रहा है, किधर जा रहा है, कुछ समझ नहीं आता.
सब लोग आगे बढ़ने की कोशिश में होते हैं. बड़ी-बड़ी बसें, एसयूवी, कारें, साइकिलें, बाइक, रिक्शा और ठेले एक दूसरे से आगे बढ़ने का मुकाबला करते नजर आते हैं. सब एक साथ हॉर्न बजाते हैं, दाहिने-बाएं से होते हुए, कैसे भी करके आगे बढ़ना चाहते हैं.
कभी कार वाला किसी से टकराते हुए आगे बढ़ता है, तो कभी साइकिल सवार घंटी बजाते हुए, हैंडल दाहिने बाएं घुमाते हुए किसी तरफ जाने की कोशिश करता है. आगे बढ़ रही एसयूवी को पीछे हटना पड़ता है. वहीं दाहिने जा रही कार को अचानक बाएं मुड़ने को मजबूर होना पड़ता है.
यूं लगता है कि कोई बाधा दौड़ चल रही है, जिसमें सब जीत के लिए जी-जान से जुटे हैं. ट्रैफिक के नियमों की धज्जियां उड़ती रहती हैं. किसी को दूसरे की फिक्र नहीं होती. नतीजा ये होता है कि ट्रैफिक ठप हो जाता है. भयंकर जाम में सब फंस जाते हैं.
उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीतिक तस्वीर ठीक वैसी ही मालूम होती है, जैसी कि बनारस की इस क्रॉसिंग का हाल होता है. सभी राजनीतिक दल एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में हैं. एक दूसरे की जगह पर कब्जा जमाने की फिराक में हैं. मगर दूसरे को धकियाकर आगे बढ़ने के चक्कर में सब अपना रास्ता भूलकर राजनीतिक दलदल में धंसते जाते हैं, फंसते जाते हैं.
जैसे ट्रैफिक जाम में हमें समझ नहीं आता कि कौन सी गाड़ी किस तरफ जाएगी, इसी तरह यूपी के मौजूदा राजनीतिक हालात में ये समझ में नहीं आ रहा है कि कौन सी पार्टी चुनाव की दौड़ में जीत हासिल करने जा रही है.
चलिए इस खेल के प्रमुख खिलाड़ियों के बारे में समझने की कोशिश करते हैं कि वो किस सिम्त बढ़ना चाहते हैं और कहां रास्ता भटक गए हैं.
बीजेपी की ख्वाहिश आसानी से पूरी नहीं होगी
भारतीय जनता पार्टी चाहती है कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठजोड़ का नारा-यूपी को ये साथ पसंद है, कुछ ऐसा रुख ले कि ये बदलकर-यूपी को कुछ और पसंद है, हो जाए.
मगर यूपी में बीजेपी की ये ख्वाहिश आसानी से पूरी होती नहीं लगती. पार्टी के तमाम दिग्गज यूपी में डेरा डाले हुए हैं. वो चुनावी रण में भी उतर रहे हैं और फोन पर भी पार्टी की रणनीति को आगे बढ़ा रहे हैं. उन्हें पता है कि यूपी के चुनाव में जीत से पार्टी का परचम और ऊंचा होगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूपी के कोने-कोने में जाकर रैलियां कर रहे हैं. लोगों को बता रहे हैं कि अगर उनकी पार्टी चुनाव में जीती तो क्या करेगी. बनारस समेत कई जगहों पर बीजेपी रेस में आगे दिखती है. मगर ये कहना मुश्किल है कि पूरे पूर्वांचल में पार्टी को जबरदस्त कामयाबी मिलेगी.
2014 वाली मोदी लहर इस वक्त नहीं दिख रही. प्रधानमंत्री मोदी की निजी लोकप्रियता बरकरार है. सब खुलकर मोदी के हक में बोलते हैं. मगर जब बात विधानसभा चुनाव की आती है तो लोग संभल जाते हैं.
वो जानते हैं कि यूपी में अखिलेश भी काफी लोकप्रिय हैं. और बीजेपी की उम्मीद के उलट इस बार वोटों का ध्रुवीकरण उसके हक में नहीं हो रहा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, अजित सिंह के समर्थन में हैं और शायद इस समर्थन के बूते अजित सिंह राजनीतिक बियाबान से बाहर निकल भी आएं.
पूर्वांचल में भी गैर-यादव पिछड़े वोटर, बीजेपी के पक्ष में उस तरह लामबंद नहीं हो रहे, जैसी पार्टी को उम्मीद थी. बीजेपी को उम्मीद है कि मुस्लिम वोट बीएसपी और समाजवादी पार्टी में बंटेंगे. क्योंकि दोनों ही दलों ने कद्दावर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं.
सवर्णों यानी ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और बनिया वोटरों के बीच भी बीजेपी को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखता. सवर्णों ने 1991 और 2014 के चुनावों में बीजेपी का जमकर समर्थन किया था. मगर 2017 में वो इतना खुलकर बीजेपी के साथ खड़े नहीं दिखते.
नोटबंदी की वजह से बीजेपी का कोर वोटर यानी बनिया, पार्टी से नाराज है. कई इलाकों में कारोबारी, बीजेपी के विरोध में प्रचार कर रहे हैं. बीजेपी को लगता था कि वो इसकी भरपाई गैर-यादव पिछड़े वोटरों को जोड़कर कर लेगी. मगर ऐसा होता नही दिख रहा.
शहरी इलाकों में तो बीजेपी को बढ़त दिख रही है. मगर ग्रामीण इलाकों में पार्टी उतनी ताकतवर नहीं दिख रही. अगर पहले दो दौर के मतदान में बीजेपी के हक में वोट नहीं पड़े हैं, तो, ये उम्मीद करना बेमानी है कि बीजेपी बहुमत के साथ सत्ता में आएगी.
अखिलेश की साफ-सुथरी, विकासवादी छवि भी बीजेपी के लिए सिरदर्द बन गई है. अखिलेश अचानक ही यूपी में विकास पुरुष के तौर पर उभरे हैं. अब तक प्रधानमंत्री मोदी ही ऐसी छवि की नुमाइंदगी करते थे. फिर पार्टी ने किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी नहीं बनाया.
वहीं समाजवादी पार्टी के पास अखिलेश हैं, तो बीएसपी के पास मायावती के तौर पर बड़ा चेहरा हैं. कुल मिलाकर बीजेपी के लिए यूपी की लड़ाई बेहद मुश्किल साबित हो रही है. अभी तो गफलत का आलम दिख रहा है. कौन जीतेगा इसका पता तो 11 मार्च को ही चलेगा.
समाजवादी पार्टी में अखिलेश की राह आसान नहीं
अखिलेश यादव की अगुवाई वाली पार्टी में कुछ भी समाजवादी नहीं बचा है. पार्टी ने इस चुनाव में काफी हमलावर रुख दिखाया है और हर तरीके से वोटर को लुभाने में जुटी है.
अखिलेश यादव दिन रात प्रचार कर रहे हैं. उन्होंने हर तबके के लिए कुछ न कुछ करने का वादा किया. पार्टी के हर पोस्टर पर अखिलेश छाये हैं. कई जगह उनके पिता मुलायम की तस्वीर भी नजर आती है.
लोग कहते हैं कि कन्नौज में, जहां से अखिलेश की पत्नी डिंपल सांसद हैं, वहां मुलायम से किनारा करने का कोई असर नहीं होगा. लेकिन कई लोगों का ये दावा है कि मुलायम की नाराजगी का अखिलेश को खामियाजा उठाना पड़ेगा.
ऐसे लोग सवाल करते हैं कि मुलायम और शिवपाल को किनारे लगाकर अखिलेश और किस बात की उम्मीद कर सकते है? अब तक मुलायम और शिवपाल ही समाजवादी पार्टी के सबसे बड़े चेहरे थे. उन्होंने खून-पसीने से पार्टी खड़ी की. इसकी रग-रग से मुलायम-शिवपाल वाकिफ हैं. दोनों को किनारे लगाकर अखिलेश ने अच्छा नहीं किया.
वहीं अखिलेश के बारे में ये कहा जा सकता है कि उन्होने अपने पक्ष में एक माहौल बनाया है. हमदर्दी जुटाई है. सूबे के बहुत से लोग अखिलेश के साथ खड़े दिखते हैं.
राज्य में शायद ही कोई ऐसा होगा जो ये कहे कि अखिलेश ने कोई काम नहीं किया. सब कहते हैं कि अखिलेश ने राज्य की बेहतरी के लिए काम किया. यूपी की छवि सुधारने की कोशिश की. दिन रात काम करके यूपी के माथे से बीमारू राज्य का दाग हटाने की कोशिश की.
आजमगढ़ में एक जानकार कहते हैं कि अखिलेश ने काम किया है, ये सब मानते हैं. मगर, कोई ये कहने की हालत में नहीं कि इस काम की वजह से अखिलेश चुनाव जीतेंगे, या नहीं. समाजवादी पार्टी का पुराना मुस्लिम-यादव फॉर्मूला इस बार चलेगा, ये कहना मुश्किल है, क्योंकि मायावती ने भी कई अच्छे मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं.
मुस्लिम बनाम बाकी की लड़ाई से बीजेपी को ही फायदा होगा. मुसलमान खुश हैं कि अखिलेश यादव उन्हें वोट बैंक की तरह नहीं देखते और न ही उनको लेकर बड़े-बड़े बयान दे रहे हैं.
कई लोगों को लगता है कि अखिलेश अगर अपनी छवि की वजह से ये चुनाव जीते तो 2019 में वो मोदी को पीएम पद के लिए चुनौती देने का चेहरा भी हो सकते हैं.
कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी के गठजोड़ की तारीफ भी हुई है और इसका विरोध भी हुआ है. अखिलेश की राजनीति सिर्फ यूपी के लिए है या फिर वो भी पीएम पद की महत्वाकांक्षा पाल रहे हैं? इस सवाल का जवाब फिलहाल दे पाना मुश्किल है. शायद वक्त आगे चलकर इसका जवाब दें.
मगर, फिलहाल तो ये भी नहीं कहा जा सकता कि समाजवादी पार्टी सत्ता में वापसी करेगी या नहीं.
बीएसपी एक राजनीतिक ताकत लेकिन सबसे बड़ी नहीं
हाथी आम तौर पर शांत जानवर है. मगर जब इसे गुस्सा आता है तो ये रास्ते की हर चीज को रौंद डालता है. इस बार के चुनाव में मायावती का हाथी यूपी के चुनावी रण में सबको रौंदने की चेतावनी दे रहा है.
हालांकि मायावती के प्रचार में वो धार नहीं दिख रही है. वो एक बड़ी राजनीतिक ताकत हैं, इसमें कोई दो राय नहीं. मगर जमीनी स्तर पर उनके हक में हवा नहीं दिखती.
आप राज्य के किसी भी कोने में जाएं, बीएसपी एक राजनीतिक ताकत तो है, मगर सबसे बड़ी नहीं. आपको गिने-चुने वफादार कार्यकर्ता, नीली टोपी पहने गांवों में प्रचार करते दिखते हैं.
क्या मायावती का ये हाल नोटबंदी की वजह से हुआ है? मायावती को देखकर ये पता लगाना मुश्किल है कि मोदी सरकार के इस क्रांतिकारी आर्थिक कदम का उन पर क्या असर हुआ.
इस बार मायावती ज्यादा प्रेस कांफ्रेंस कर रही हैं. वो ज्यादा हाजिरजवाब नजर आ रही हैं. कई बार मजाकिया लहजे में भी बात करती हैं. विरोधियों पर तंज भी करती हैं. मगर उनकी पार्टी कैसे काम करती है, इसकी झलक पाना आज भी बेहद मुश्किल है.
बीएसपी एक तानाशाही सरकार की तरह काम करती है. जिसमें सिर्फ नेता को ही हर बात पता होती है. इसके बारे में आम कार्यकर्ता छुपकर भी बात नहीं करते. या शायद उन्हें कुछ पता ही नहीं होता. तो क्या मायावती तानाशाही करने वाली नेता हैं? उनकी पार्टी की चाल-ढाल देखकर तो यही लगता है. जिस तरह उनकी पार्टी पर्देदारी मे काम करती है.
इस बार मायावती सोशल मीडिया का भी काफी इस्तेमाल कर रही हैं. लेकिन उनकी पार्टी कैसे काम करती है, ये बात वो आज भी मीडिया से छुपाकर रखती हैं. मायावती ने इस बार करीब सौ मुसलमानों को टिकट दिया है. इनमें से कई के जीतने की काफी उम्मीद है.
इस बार मायावती मुस्लिम कार्ड खेलकर, मुस्लिम समुदाय के वोट पर समाजवादी पार्टी के हक को चुनौती दे रही हैं. उनके कट्टर समर्थक भी ये कहने से गुरेज करते हैं कि बीएसपी के पक्ष में लहर है. शायद मायावती इस चुनाव में किसी को भी चौंकाने में नाकाम रहें. मगर को बीजेपी और समाजवादी पार्टी की उम्मीदों पर पानी फेरने का माद्दा रखती हैं.
यूपी में कई लोगों को लगता है कि अगर बीजेपी बहुमत नहीं हासिल कर सकी तो वो बहनजी से हाथ मिला सकती है. लेकिन इससे बीजेपी का 2019 का मिशन खटाई में पड़ने का डर है.
जो लोग बीजेपी और बहनजी के गठजोड़ की बात करते हैं, वो इस बात पर भी हामी भरते हैं. इसीलिए सिर्फ बहनजी को ही मालूम है कि वो क्या कर रही हैं, या क्या करेंगी.
और आखिर में...
सुबह के वक्त बनारस की सड़कों पर उतनी भीड़ नहीं होती. न शाम के वक्त जैसा शोर होता है और न ही उतना धुआं. सुबह के वक्त बनारस के पुराने घाटों पर उगता सूरज अनोखी छटा दिखाते हैं.
जैसे-जैसे घाटों पर भीड़ बढ़ती है. सीढ़ियों पर लोगों की आमदो-रफ्त तेज होती है. लोग गंगा में डुबकियां लगाना शुरू करते हैं. पंडित आकर घाटों पर विराजते हैं. धीरे-धीरे भीड़ बढ़ती जाती है. उस वक्त के बनारस को देखकर ये नहीं लगता कि वो रास्ता भटक गया है.
सच तो ये है कि बनारस कभी भी अपने रास्ते से भटका ही नहीं. सदियां गुजर गईं. युग बीत गए. लाखों लोग आए और चले गए. मगर बनारस का सफर यूं ही जारी है. जुकरबर्ग आएंगे, एलन मस्क जाएंगे, बनारस यूं ही लोगों के जहन में बसा रहेगा, उनकी यादों को समेटता हुआ आगे बढ़ता रहेगा. और राजनीति यूं ही पेचीदा और अस्त-व्यस्त रहेगी.