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प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए ‘योगी’भ्यास है जरूरी

अब इन स्कूलों में सिर्फ दो जोड़ी कपड़े और मिड डे मिल के लिए ही बच्चे जाते हैं

Manoj Kumar Rai

शिक्षा किसी भी सभ्य समाज की कसौटी का प्रमुख अंग होता है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस बात को शिद्दत से महसूस किया है. उन्होंने प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए तत्काल कदम उठाने के लिए अपने मातहतों को उचित कदम उठाने के लिए कहा है.

यह सौ फीसदी सच है उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह से चरमरा गई है. उन स्कूलों की स्थिति तो और भी दर्दनाक है जो या तो शहर में स्थित हैं या शहर के काफी नजदीक हैं.


इसका सीधा कारण है इन स्कूलों से अच्छे अभिभावकों का मोहभंग. अब इन स्कूलों में सिर्फ दो जोड़ी कपड़े और मिड डे मिल के लिए ही बच्चे जाते हैं.

प्राथमिक विद्यालयों में ट्रेंड अध्यापकों की नियुक्ति होती है. जाहिर है कुकुरमुत्ते की तरह उगे पब्लिक स्कूलों की अपेक्षा इनका स्तर काफी ऊंचा होता है. परंतु ये शिक्षक अलग-अलग कारणों से अपने स्कूलों में ध्यान नहीं दे पाते हैं.

बदहाली की वजह क्या है?

इनमें सबसे बड़ा कारण है नेतृत्व का अभाव. चाहे वह विद्यालय के प्रधानाचार्य का हो या बेसिक शिक्षा अधिकारी का.

सरकारी महकमे का यह इकलौता विभाग है जहां अपनी छुट्टी के लिए भी अध्यापकों को सुविधा शुल्क देना पड़ता है चाहे वह मातृत्व अवकाश का हो चिकित्सा अवकाश. बचा-खुचा काम ग्राम प्रधान पूरा कर देता है.

जिले के उच्च अधिकारी से लेकर निचले क्रम तक सभी ने इसे सिर्फ दुधारू गाय की तरह दुहा है. किसी ने भी इसे अपना समझने की जहमत नहीं उठाई है.

पिछले दिनों हाईकोर्ट ने एक निर्णय दिया था कि राजकोष से वेतन प्राप्त करने वाले सभी कर्मचारियों को अनिवार्य रूप से इन सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजना होगा. सरकार को चाहिए कि इस फैसले को कड़ाई से लागू करे.

कौन बच्चे पढ़ रहे हैं इन स्कूलों में? 

प्रदेश में कार्य करने वाले विभिन्न केंद्रीय कर्मियों को भी तभी शिक्षा भत्ता आदि जैसी सुविधा दी जाए जब वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ा रहे हों.

प्राथमिक विद्यालयों में अधिकांश वैसे ही बच्चे पढ़ने आते हैं जिनके पास घर में पढ़ने की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है. अध्यापकों के लाख मेहनत करने बावजूद भी ये ठीक तरीके से पढ़-लिख नहीं सकते हैं.

मिठाई की दुकान से लेकर घरों में बर्तन धोने के काम में लगे ये बच्चे अपने भविष्य को लेकर कत्तई चिंतित नहीं दिखते हैं. अशिक्षित मां-बाप उन्हें बता ही नहीं पाते कि पढ़ाई-लिखाई का जीवन में महत्व क्या है. उधर अध्यापक भी अपनी जिम्मेदारी निर्वहन से मुक्त इसे पेंशन समझ अन्य दूसरे कामों में लगे रहते हैं.

कैसे बदलेगी तस्वीर?

प्राथमिक शिक्षा विभाग में ट्रांसफर-पोस्टिंग एक बड़ा उद्योग है. यहां जिले के हिसाब से बोली लगती है. शायद ही कोई बेसिक शिक्षा अधिकारी डायट या अन्य किसी शिक्षण संस्थान में अपनी नियुक्ति कराना चाहता है.

ऊपर से लेकर नीचे तक यह तंत्र इतना सक्रिय और मजबूत है कि कोई भी ‘माई का लाल’ इस गठजोड़ को तोड़ नहीं पाया. अधिकारी अपनी जिम्मेदारी सिर्फ अध्यापकों पर रौब दिखाकर पैसा ऐंठने के खेल में लिप्त रहते हैं.

अध्यापकों के लिए शिक्षा विभाग द्वारा चलायी जा रही प्रशिक्षण-कार्यशालाएं महज एक मजाक बन कर रह गई हैं. न अध्यापकों की उसमें रुचि होती है न ही विशेषज्ञों की. सभी इसे एक बोझ के रूप में लेते हैं और जैसे तैसे इसकी खानापूर्ति कर दी जाती है.

योगी सरकार को चाहिए कि प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए सुचिंतित और ठोस कार्यक्रम उठाए. इसके लिए सुयोग्य और ईमानदार लोगों की एक टीम बनाई जा सकती है जो समय सीमा के भीतर अपना सुझाव सरकार को दे और सरकार उनके द्वारा प्राप्त सुझावों को कड़ाई से लागू करने की कोशिश करे.