बीजेपी का संदेश साफ हैः पार्टी को अपनी मूल मान्यताओं के लिए क्षमायाचक होने की जरूरत नहीं है. पार्टी को जिस तरह का जनादेश मिला है वह उसकी विचारधारा की वैधता पर मुहर लगाता है.
सेकुलर लिबरल्स और विचारधारा से मतभेद रखने वालों की पार्टी को कोई परवाह नहीं है.
क्या ये सबसे बोल्ड कदम है?
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर योगी आदित्यनाथ का चुनाव नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से अब तक का बीजेपी का सबसे बोल्ड कदम है.
पार्टी खुलकर संदेश दे रही है कि एक राजनीतिक शख्सियत के तौर पर उनके साथ जुड़े हुए विवादों को पार्टी गंभीरता से नहीं लेती.
हिंदुत्व हार्ड लाइन से उनके करीबी तौर पर जुड़े होने की बढ़ चढ़कर हांकने वालों से भी उसे डर नहीं लगता. इन सबके लिए पार्टी को किसी से माफी मांगने की जरूरत नहीं है.
पहली बार यह साफ तौर पर बताया जा रहा है कि बीजेपी अपने आइडियोलॉजिकल एजेंडे पर किसी की बात सुनने नहीं जा रही है. अगर उसकी एक कट्टर हिंदुत्व पार्टी के तौर पर पहचान बन रही है तो उसे इसकी कोई परवाह नहीं है.
बेबाक हैं योगी
हरियाणा जैसे अन्य राज्यों में भी मुख्यमंत्रियों का चुनाव कुछ हद तक डिफेंसिव था. ये मुख्यमंत्री निश्चित तौर पर संघ परिवार से शिक्षा हासिल किए हुए हैं.
लेकिन ये योगी की तरह सेक्युलरों के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले नहीं रहे हैं. मुस्लिमों और राष्ट्रवाद को लेकर उनके दिमाग में कोई भ्रम नहीं है और वह बिना लाग-लपेट के बोलने के आदी हैं.
बीजेपी ने उन्हें यूं ही देश के सबसे बड़े राज्य का जिम्मा नहीं सौंपा है. 2019 के चुनावों से पहले इसे एक स्ट्रैटेजिक कदम के तौर पर देखा जाना शायद सही नहीं हो.
इस तर्क के पीछे यह सोच है कि इससे हिंदू वोटों को कंसॉलिडेट करने की कोशिश होगी. लेकिन, यह काम राज्य में पहले ही हो चुका है और योगी आदित्यनाथ इस प्रक्रिया को और आगे बढ़ाएंगे.
लेकिन, इस तर्क का उलट यह हो सकता है कि इस तरह के भारी बहुमत के साथ किसी और का चुनाव इस काम को पूरा कर सकता था.
आखिर आदित्यनाथ क्यों?
राजनाथ सिंह, मनोज सिन्हा और केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी की विचारधारा के साथ पहचाना जाता है. इनमें से किसी को भी यूपी की जिम्मेदारी मिलना इस मकसद को पूरा कर सकता था.
अगर पार्टी के पक्ष में हिंदू एकजुट हुए हैं तो यह इन नेताओं के तहत तितर-बितर नहीं हो सकती थी. तो फिर योगी आदित्यनाथ क्यों? यह हो सकता है कि पार्टी अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहती है.
पार्टी को भरोसा है कि वह विकास के एजेंडे को हिंदुत्व के एजेंडे के साथ चला सकती है और इसमें कोई टकराव का उसे सामना नहीं करना पड़ेगा.
राज्य में जिस तरह का जनादेश पार्टी को मिला है उससे साबित हो रहा है कि विकास और हिंदुत्व के मिलेजुले मसलों को जनता ने वोट दिया है.
विकास और हिंदुत्व के साथ बीजेपी
नतीजों से पता चल रहा है कि पार्टी दोनों चीजों को साथ लेकर चल सकती है. यह देशभर में अन्य राज्यों में होने वाले चुनावों को लड़ने का पार्टी का तरीका साबित हो सकता है.
यह सेक्युलरिज्म के इर्दगिर्द घूमने वाली राजनीति को बड़ा झटका है. लेकिन इस पर किसी को आंसू नहीं बहाने चाहिए. जिस तर्ज पर राजनीतिक पार्टियां कुछ खास वर्गों को लुभाने के लिए तुष्टीकरण कर रही थीं, उसमें जनता ने उनको आइना दिखा दिया है.
इनकी राजनीति में बहुसंख्यक समाज के प्रति उपेक्षा का भाव साफ दिखाई देता था. यह हो सकता है कि एंटी-सेक्युलर न हो, लेकिन लोग हिपोक्रेसी और सेक्युलरिज्म के नाम पर अतिवाद से ऊब गए थे.
सेक्युलरिज्म पर क्या कदम उठाएगी बीजेपी?
योगी आदित्यनाथ की असफलता या सफलता इस बात पर टिकी होगी कि वह सेक्युलरिज्म को लेकर किस तरह का रास्ता अख्तियार करते हैं. अगर वह अपनी एप्रोच में काफी आक्रामक रहते हैं तो वह हिंदू वोटरों के एक बड़े वर्ग को खो देंगे.
इस तरह की संभावना है कि उनके ब्रांड के हिंदुत्व से ऐसे उदारवादी हिंदुओं पर कार्रवाई को प्रोत्साहन मिल सकता है जिन्होंने गुड गवर्नेंस और विकास के वादों पर बीजेपी को वोट दिया था.
यह पार्टी के लिए शॉर्ट और लॉन्ग-टर्म दोनों के लिहाज से नुकसानदायक साबित हो सकता है. अगर वह एक समझदार और मकसद पूरा करने वाले नेता के तौर पर व्यवहार करते हैं तो वह मुस्लिमों को भी साथ लाने में सफल हो सकते हैं.
कुल मिलाकर, चाहे जो भी हो बीजेपी ने अब तक का अपना सबसे बड़ा दांव योगी को मुख्यमंत्री बनाकर चला है. योगी छह बार से सांसद रहे हैं. जिस तरह से वह राज्य में सत्ता चलाएंगे उससे पता चलेगा कि पार्टी का यह सही कदम है या गलत.