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राहुल ने गंवाया अखिलेश से राजनीतिक दांव सीखने का अवसर

वह लखनऊ के इस लाइव राजनीतिक तमाशा को छोड़ छुट्टी मनाने लंदन चले गए

Surendra Kishore

राहुल गांधी के लिए अच्छा अवसर था. यदि कांग्रेस को चमकाने के लिए अपने पूर्वजों के इतिहास से कोई रणनीति नहीं सीख सके तो कम से कम अखिलेश से तो सीख ही सकते थे, लेकिन वह लखनऊ के इस लाइव राजनीतिक तमाशा को छोड़ छुट्टी मनाने लंदन चले गए .

राहुल और अखिलेश एक दूसरे के प्रशंसक भी रहे हैं. लखनऊ का सियासी तमाशा इसलिए भी राहुल के उपयोगी था क्योंकि अखिलेश अपने चतुर-सुजान पिता को हरा कर जीत रहे थे. दोनों के बीच के दांव पेंच ऐतिहासिक हैं.


राहुल गांधी दिल्ली या लखनऊ में बैठकर बारीकी से यह देख सकते थे कि किन गुणों के कारण सपा के इस आंतरिक संघर्ष में अखिलेश जीत रहे हैं और मुलायम सिंह किन कमियों के कारण हार रहे हैं. हालांकि पिता-पुत्र संघर्ष सिर्फ सपा का आंतरिक संघर्ष ही नहीं है.

सपा के असंख्य मतदाताओं के बीच भी यह युद्ध जारी है. उनमें से कुछ मुलायम-शिवपाल के साथ हैं तो अधिकतर लोग अखिलेश के साथ. इसीलिए अधिकतर विधायक भी अखिलेश के साथ हैं. जहां मतदाता, वहां विधायक!

राहुल भारत में रहकर गहराई से यह पता लगा सकते थे कि सपा के समर्थकों में अधिकतर समर्थक अखिलेश के साथ क्यों खड़े हैं?

(फोटो. पीटीआई).

ऊपर-ऊपर यह साफ समझ में आ रहा है कि अखिलेश सपा के भीतर के गलत लोगों के खिलाफ हैं. 2012 में अखिलेश ने गाजियाबाद के बाहुबली डीपी यादव के सपा में प्रवेश का सफल विरोध किया था. इस बार वह गाजीपुर के विवादास्पद अफजल अंसारी के सपा में प्रवेश के विरोध पर अड़े रहे.

एक बात और. खुद अखिलेश पर गलत तरीके से नाजायज संपत्ति एकत्र करने का आरोप अभी तक नहीं लगा है.ऐसी सकारात्मक बातें सपा के भीतर के अखिलेश विरोधी नेताओं के साथ नहीं देखी-सुनी जा रही हैं.

परिणामस्वरूप अधिकतर सपा समर्थक अखिलेश के साथ हैं.यानी उन समर्थकों को अब सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सद्भाव से अधिक भ्रष्टाचार और अपराध का विरोध जरूरी लग रहा है.

यह सब सीख कर राहुल कांग्रेस को ताकतवर बना सकते थे. वैसे तो किसी घटना का लाइव दृश्य अधिक प्रभावोत्पादक होता है, पर कुछ होशियार लोग इतिहास से भी सबक ले लेते हैं.

लेकिन राहुल गांधी अपने पूर्वजों के राजनीतिक इतिहास से भी सबक नहीं लेते. फिर कांग्रेस को कैसे उबारेंगे? काश! राहुल गांधी को इंदिरा गांधी की तरह जुमले उछालना भी आता!

लखनऊ में नरेंद्र मोदी ने तो बाजी मारते हुए सोमवार को इंदिरा गांधी वाला एक मशहूर जुमला उछाल दिया. साठ के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कांग्रेस के भीतर के ताकतवर सिंडिकेट लाॅबी से परेशान थीं.

उन्हें रास्ते से हटाने के लिए उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का लोक लुभावन नारा दे दिया.इंदिरा जी ने तब कहा था कि हम कहते हैं कि गरीबी हटाओ और मेरे विरोधी कहते हैं इंदिरा हटाओ. यह नारा जनता के एक हिस्से पर जादू कर गया.

इंदिरा ने सन 1969 में 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया.पूर्व राजाओं -महाराजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त किए.उनको मिले विशेषाधिकर उनसे छीन लिए. ऐसे कुछ अन्य काम भी किए.

परिणामस्वरूप 1971 के लोक सभा चुनाव में सिंडिकेट यानी संगठन कांग्रेस हार गई. वैसे बाद में यह साबित हुआ कि गरीबी हटाओ एक जुमला ही था. अन्यथा इंदिरा जी आम लोगों की गरीबी हटाने के बदले बाद में अपने पुत्र संजय गांधी के लिए मारुति कारखाना नहीं खुलवातीं.

नेहरू और इंदिरा गांधी की भारतीय जनमानस पर गहरी पकड़ थी

लेकिन लगता है कि राहुल गांधी को कोई राजनीतिक नारा भी उछालने तक नहीं आता. नहीं आता तो कोई बात नहीं. सीखने की इच्छा तक नजर नहीं आती.

खुद उनके पिता राजीव गांधी ने अस्सी के दशक में सत्ता के दलालों के खिलाफ आवाज उठाई थी.

साथ ही उन्होंने तीन राज्यों के विवादास्पद मुख्यमंत्रियों को पद से हटवा दिया था. फिर क्या था! पूरा देश राजीव पर मोहित हो गया. वह कुछ दिनों के लिए मिस्टर क्लीन कहलाए.हालांकि वह भी जुमला ही था.अन्यथा राजीव पर बोफर्स के दलाल क्वोत्रोची को बचाने का आरोप नहीं लगता.

अब जरा जवाहर लाल नेहरू की बात कर ली जाए.जालियांवाला बाग के नरसंहार से द्रवित होकर जवाहरलाल नेहरू आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे.उन्होंने तमाम सुख सुविधाओं को छोड़कर लंबा जेल जीवन मंजूर किया था.परिणामस्वरूप वे जनता के हृदय सम्राट कहलाए.

दूसरी ओर राहुल गांधी नोटबंदी आंदोलन और लखनऊ की राजनीतिक घटनाओं के बावजूद देश छोड़कर छुट्टी मनाने चले गए. जबकि राहुल का मुकाबला एक ऐसे प्रधानमंत्री से है जिसने अब तक के अपने कार्यकाल में कोई छुट्टी नहीं मनाई.

जनता क्या पसंद करती है,राहुल यदि उसे नजदीक से सीखने का काम नहीं करेंगे तो उनका और उनकी पार्टी का कोई भविष्य नहीं है.