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विपक्ष के बिना सरकार चल सकती है, देश नहीं चल सकता

अब मामला विपक्षविहीन भारत की तरफ बढ़ रहा है लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ मोदी को दोष देना ठीक होगा

Rakesh Kayasth

समाजवादी पार्टी ने एलान किया है कि वो अभी जिंदा है. एलान की जगह के रूप में उत्तर प्रदेश विधानसभा को चुना गया और तरीका वही जो इस देश के तमाम राजनीतिक दल अपनाते आए हैं.

समाजवादी पार्टी के विधायक पोस्टर बैनर समेत विधानसभा में आए. जमकर नारेबाजी की और कागज के गोले बनाकर राज्यपाल राम नाइक की तरफ उछाले. लोगों को याद आया कि प्रदेश में एक विपक्ष भी है. प्रदेश हो या देश विपक्ष नाम की कोई चीज बची है, इसपर एतबार करना जनता छोड़ चुकी है.


इस देश में मजबूत सरकारों का अपना एक इतिहास रहा है. लेकिन क्या कभी विपक्षी पार्टियां इस कदर कमजोर रही हैं, जितनी आज हैं? यह सवाल कोई पहली बार नहीं पूछा जा रहा है. लेकिन हाल के महीनों के घटनाक्रम से विपक्ष की मजबूती पर नहीं बल्कि उसके अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगने लगे हैं.

कांग्रेस को थोड़ी देर के लिए भूल जायें. देश वैसे ही भूल ही चुका है. लेकिन विपक्षी एकता की उम्मीदें जिन बाकी बड़ी पार्टियों पर टिकी हैं, उनका क्या हाल है? यूपी के चुनाव नतीजों ने दो बड़ी पार्टियों एसपी और बीएसपी को लगभग खत्म कर दिया है. खात्मे का यह एलान सिर्फ वोट या विधानसभा में मिली सीटों के आधार पर नहीं है.

मुश्किल में तमाम विपक्षी पार्टियां

रिजल्ट के बाद इन दोनों पार्टियों में जो कुछ हो रहा है, पतन के संकेत उसमें छिपे हुए हैं.  पारिवारिक झगड़े में फंसी समाजवादी पार्टी यूपी के नतीजों से किस तरह उबरेगी इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है.

अखिलेश यादव ने कहा था कि सोए हुए कार्यकर्ताओं को फिर से जागना पड़ेगा और संघर्ष का रास्ता अख्यितार करना होगा. लेकिन क्या अखिलेश कह देने भर से सोये कार्यकर्ता जाग जाएंगे, खासकर वैसी हालत में जब ना तो उनके पास सत्ता है और ना ही भविष्य को लेकर कोई ठोस भरोसा. समाजवादी पार्टी का आपसी झगड़ा कहां जाकर खत्म होगा ये कोई नहीं जानता.

समाजवादी पार्टी से ज्यादा सवाल बहुजन समाज पार्टी को लेकर है. बहुजन से सर्वजन और सामाजिक न्याय से सोशल इंजीनियरिंग के बीच झूले झूलती बीएसपी  2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से ही गंभीर मुश्किलों में घिरी हुई थी.

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लेकिन यूपी के रिजल्ट के आफ्टरइफेक्ट इसके भविष्य के लिए डरावने संकेत लेकर आए हैं. मायावती ने अपने 34 साल पुराने सहयोगी और पार्टी के सबसे बड़े मुस्लिम नेता नसीमुद्धीन सिद्दीकी को खानदान समेत बाहर का रास्ता दिखा दिया.

बदले में सिद्दीकी ने बहनजी पर करप्शन के बेहद गंभीर आरोप लगाए हैं. बात यही खत्म हो जाएगी, ऐसा नहीं लगता. बीजेपी मौके की तलाश में बैठी में है. बहुत मुमकिन है कि मायावती आनेवाले दिनों में सीबीआई, आईटी और विजिलेंस के चक्कर काटती नजर आएं और बीएसपी की कमर पूरी तरह टूट जाए.

लालू बदहाल, नीतीश अधर में

बिल्ला-रंगा के नाम से मशहूर रहे इमरजेंसी के दिनों के साथी लालू और नीतीश की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है. चारा घोटाले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले की मार लालू यादव पर इस कदर पड़ी है कि चुनावी राजनीति में उनकी वापसी संभव नहीं लगती. पर्दे के पीछे की राजनीति लालूजी बेशक कर लें.

लेकिन पर्दे के पीछे की पॉलिटिक्स के लिए भी हालात अच्छे नहीं हैं. लालू का परिवार भ्रष्टाचार के इल्जामों में घिरा है. दोनों बेटों के साथ बड़ी बेटी तक पर जांच और कानूनी कार्रवाई की तलवार लटक रही है. महागठबंधन में उनकी ताकत कम पड़ती जा रही है. लेकिन क्या यह स्थिति नीतीश कुमार के लिए अच्छी है?

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कई लोग मान रहे हैं कि लालू का कमजोर होना नीतीश को फायदा पहुचाएंगा. लेकिन यह आधा सच है. बेशक सीएम के रूप में नीतीश की स्थिति थोड़ी बेहतर हो गई हो, लेकिन जिस विपक्षी एकता के दम पर 2019 में प्रधानमंत्री बनने का सपना सुशासन बाबू संजो रहे थे, वह धूमिल होता नजर आ रहा है.

नीतीश को पीएम कैंडिडेट मानने में लालू को कभी कोई परेशानी नहीं रही क्योंकि इससे बिहार में उनके बेटे तेजस्वी यादव का रास्ता साफ होता है. लेकिन कमजोर लालू और कमजोर आरजेडी नीतीश की पीएम की दावेदारी को मजबूती नहीं दे सकते.

नीतीश के लिए ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री के रूप में उनकी कुर्सी सुरक्षित हैं क्योंकि बीजेपी की तरफ लौटने के उनके रास्ते खुले हुए हैं.

विपक्ष की ताबूत में आखिरी कील

आम आदमी पार्टी में जो कुछ चल रहा है, उसे विपक्ष के ताबूत की आखिरी कील कहा जा सकता है. बेशक आम आदमी पार्टी नई है और चुनावी मैदान में राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को टक्कर देने की हालत में नहीं हो. लेकिन पिछले दो साल में नरेंद्र मोदी के विरोधी के रूप में जो एक चेहरा लगातार सामने आता रहा है, वह अरविंद केजरीवाल का है.

आम आदमी पार्टी का खतरा बीजेपी के लिए इसलिए बड़ा था क्योंकि उसके एक `अलटरनेटिव नैरेटिव’ था, जो उसे अब तक बाकी पार्टियों से अलग साबित करता आया था.

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लेकिन पार्टी में मचे घमासान ने सिर्फ केजरीवाल की साख को गहरा नुकसान पहुंचाया ही नहीं पहुंचाया है बल्कि ऐतिहासिक बहुमत वाली दिल्ली सरकार के बने रहने पर भी सवाल खड़े कर दिये हैं.

आम आदमी पार्टी कोई संगठन पर आधारित पार्टी नहीं है. अलग-अलग आंदोलनों से निकलकर इकट्ठा हुए लोगो की ये जमात आपसी फूट, लालच, भय, दबाव और ब्लैकमेलिंग कब तक झेल पाएगी, यह कहना मुश्किल है.

ओवर एक्सपोज हो चुके केजरीवाल दोबारा खोई साख हासिल कर पाएंगे इसमें भी शक है. ऐसे में बीजेपी की राह का एक ऐसा कांटा दूर होता दिख रहा है, जिससे उसे भविष्य में सबसे ज्यादा डर था.

कांग्रेस किसे याद है?

विपक्ष की राजनीति की बात करते वक्त लोग भूल जाते हैं कि कांग्रेस सीटों के लिहाज से देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है. दरअसल कांग्रेस ने पिछले तीन साल में बतौर विपक्ष कुछ भी ऐसा नहीं किया कि लोगों को उसका नाम याद आए.

सोनिया गांधी की बीमारी ने पार्टी को एक तरह नेतृत्व विहीन कर दिया है. राहुल गांधी हर मोर्चे पर नाकाम होने के साथ समय के साथ लगातार अविश्वसनीय साबित होते जा रहे हैं. वे कब सक्रिय होंगे और कब गायब हो जाएंगे, इसका अंदाज़ा किसी को नहीं है.

पंजाब की शानदार जीत कांग्रेस पार्टी में नई जान फूंक सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. पुराने नेताओं के पार्टी छोड़ने का सिलसिला जारी है और बड़े सवालों पर शीर्ष नेतृत्व ने चुप्पी साध रखी है. बीजेपी ने 2019 की चुनावी तैयारियां अभी से शुरू कर दी है. लेकिन कांग्रेस में कैंप में दूर-दूर तक इसकी कोई सुगबुगाहट नहीं है.

पार्टियां बचेंगी तभी विपक्षी एकता बनेगी

विपक्ष की तरफ से 2019 के चुनाव को लेकर कोई हलचल नहीं है. दरअसल यह समय तमाम पार्टियों के लिए विपक्षी एकता बनाने से ज्यादा खुद को बचाने का है. अपवादों को छोड़कर कोई ऐसा बड़ा विपक्षी नेता नहीं जिसपर किसी जांच एजेंसी या अदालती कार्रवाई की तलवार ना लटक रही हो.

राहुल और सोनिया गांधी भी इन नेताओं में शामिल है. नेशनल हेराल्ड केस में उनकी मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक तौर पर यह कह चुके हैं कि तमाम नेताओं की कुंडली उनके पास है, इसलिए केंद्र सरकार के खिलाफ मुंह खोलने से पहले वे ठीक से सोच लें.

सरकार से टकराने का नैतिक साहस किसी में नहीं

क्या तरह-तरह की जांच और मुकदमों में तमाम नेताओं का फंसे होना महज इत्तफाक है? मामला कानूनी है, इसलिए कुछ कहना ठीक नहीं होगा.

लेकिन अदालती मामलों को अलग कर दें तब भी ये सच है कि इंदिरा गांधी के निरंकुश दौर के बाद ऐसा पहली बार है, जब लगभग पूरा विपक्ष सरकार के निशाने पर है. प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस विहीन भारत को एक लोकप्रिय नारा बना दिया है.

अब मामला विपक्ष विहीन भारत की तरफ बढ़ रहा है. लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ मोदी को दोष देना ठीक होगा?

विपक्षी पार्टियों के पास ना तो नीति है और ना ही नैतिक साहस. जातिवाद और क्षेत्रवाद के घिस चुके उनके फॉर्मूलों पर आधारित उनकी राजनीति संगठित और साधन संपन्न बीजेपी को टक्कर दे तो आखिर कैसे? भारतीय राजनीतिक का ये एक बदनसीब दौर है. विपक्ष के बिना सरकार तो चल सकती है, लेकिन देश नहीं.