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यूपी चुनाव 2017: चाशनी में लिपटी पश्चिमी यूपी की कड़वी कहानी

गन्ने की खेती करने वाले किसान असल मुद्दे को छोड़कर जातिगत राजनीति के पीछे भाग रहे हैं

Pratima Sharma

पश्चिमी यूपी में धर्म, ध्रुवीकरण और जाति की राजनीति के बीच एक मुद्दा गन्ना किसानों का भी है. यह मुद्दा हर बार चुनावों से पहले उठता है और चुनावों के खत्म होने के साथ ही धीरे-धीरे खत्म हो जाता है.

किसान हर हाल में बेहाल 


भारतीय किसान यूनियन के मीडिया प्रभारी धमेंद्र मलिक से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, 'हर पार्टी जब विपक्ष में रहती है तो बड़े-बड़े वादे करती है लेकिन सत्ता में आने के बाद सबका एक ही हाल होता है.'

मलिक ने कहा कि इतने साल में हमने सब सरकारों का मजा चख लिया है. सत्ता में आते ही सब एक जैसे हो जाते हैं.

उन्होंने कहा, 'किसानों को यह समझ आ गया है कि उनके पास संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं है. सभी पार्टियों से हमारा मोहभंग हो गया है.'

राजनीतिक तौर पर अहम है यह इलाका 

किसानों के मुद्दों पर गौर नहीं

यूपी विधानसभा में सात चरणों में चुनाव होने वाले हैं. सबसे पहले 11 फरवरी को पश्चिमी यूपी में ही चुनाव है. यह इलाका गंगा और यमुना नदी के बीच में पड़ने से काफी उपजाऊ है.

भारत में सबसे ज्यादा गन्ना उत्पादन उत्तर प्रदेश के इसी हिस्से में होता है. हिस्सेदारी के लिहाज से देखें तो देश के कुल गन्ना उत्पादन का करीब एक तिहाई हिस्सा अकेले उत्तर प्रदेश में होता है.

यहां की आर्थिक व्यवस्था का असर राजनीतिक समीकरणों पर साफ देखने को मिलता है. इलाके के धनाढ्य किसानों का ही राजनीति पर दबदबा रहता है. इसके बावजूद गन्ना किसानों के मुद्दों को कोई जगह नहीं मिल पाती है.

भूल गए पुराने वादे

पुराने वादों को याद करते हुए मलिक कहते हैं कि 2011 में जब बीएसपी की सरकार थी तब मायावती ने वादा गन्ने का समर्थन मूल्य 40 रुपए प्रति क्विंटल बढ़ा दिया था.

उस वक्त समाजवादी पार्टी के एक प्रवक्ता चौधरी राजेन्द्र सिंह ने कहा था कि अगर समाजवादी पार्टी की सरकार आती है तो वह गन्ने का समर्थन मूल्य बढ़ाकर 350 रुपए प्रति क्विंटल कर देगी.

समाजवादी पार्टी का यह वादा दोहराते हुए मलिक कहते हैं कि यह सरकार सत्ता में आई लेकिन अपना वादा पूरा नहीं किया.

उन्होंने कहा बयानबाजी की राजनीति चलती रहती है. लेकिन मौजूदा हालात में जातिगत राजनीति भारी पड़ गई है. जाट समुदायों का वोट राष्ट्रीय लोक दल को जाएगा. मुसलमानों का वोट समाजवादी पार्टी को जाएगा.

तालमेल का अभाव

मलिक ने कहा कि केंद्र और राज्यों के बीच सही तालमेल नहीं होने के कारण इंडस्ट्री, किसानों और कंज्यूमर की समस्या बढ़ रही है.

उन्होंने कहा कि सरकार को यह डर है कि अगर गन्ना का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाता है तो चीनी की कीमतें बढ़ जाएंगी.

यह पूछे जाने पर कि इस समस्या का क्या हल है. मलिक कहते हैं कि सरकार को कमर्शियल और घरेलू इस्तेमाल के लिए चीनी की कीमतें अलग-अलग तय करनी चाहिए.

इससे एक तरफ आम आदमी के लिए चीनी की कीमतें सही स्तर पर बनी रहेंगी और दूसी तरफ इंडस्ट्री से होते हुए किसानों को गन्ने की वाजिब कीमत मिल सकेगी.

उंची दुकान फीका पकवान

मलिक ने कहा कि चॉकलेट और कोक बनाने वाली कंपनियां 20 रुपए किलो के हिसाब से दोयम दर्जे की चीनी खरीदती हैं और उससे बने उत्पाद महंगे दामों में बेचती हैं.

चीनी की कीमतें और किसानों को मिलने वाले गन्ने के दाम में बड़ा अंतर है. मलिक कहते हैं कि 2015 में चीनी 22 रुपए प्रति किलो बिकती थी. अब खुदरा बाजार में चीनी का दाम 40 से 42 रुपए प्रति किलो है.

इस हिसाब से पिछले दो साल में चीनी की कीमतों में दोगुना इजाफा हुआ है. जबकि किसानों को मिलने वाली गन्ने की कीमत देखें तो उसमें मामूली इजाफा हुआ है.

2015 में गन्ने की कीमत 280 रुपए प्रति क्विंटल थी जो अब सिर्फ 305 रुपए प्रति क्विंटल हो गई है.

किसानों के हितों का ख्याल रखना जरूरी

भारतीय किसान यूनियन के मीडिया प्रभारी धर्मेंद्र मलिक ने कहा जिस तरह अमेरिका में ट्रंप ने 'नेशन फर्स्ट' का नारा दिया है उसी तरह यहां की सरकार को भी कदम उठाना चाहिए.

मनमोहन सरकार ने चीनी पर इंपोर्ट ड्यूटी जीरो कर दिया था, जिसके बाद यहां के बाजारों में बाहर से सस्ती चीनी आ गई और घरेलू किसानों को नुकसान उठाना पड़ा.

हालांकि, बाद में बीजेपी की सरकार ने चीनी की इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाकर 40 फीसदी कर दिया है. बाहर से आनी वाली चीनी की कीमतें बढ़ने के कारण घरेलू उत्पादकों ने राहत की सांस ली है.

लेकिन पेमेंट की समस्या बदस्तूर जारी है. हैरानी के लहजे में मलिक कहते हैं कि समाजवादी पार्टी की सरकार ने अक्टूबर 2016 में चीनी मिलों का इंटरेस्ट माफ कर दिया.

यह इंटरेस्ट किसानों के बकाए पर था तो इसे माफ करने का हक सरकार ने कैसे ले लिया. उन्होंने कहा कि सरकार अपनी मर्जी से किसानों को हांक रही है और किसान भी असल मुद्दे को छोड़कर राजनीति के पीछे भाग रहे हैं.