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यूपी चुनाव 2017: मिर्जापुर में अखिलेश का काम नहीं गाड़ियों का टायर बोलता है!

मिर्जापुर जिले में लोगों के बीच 'गाड़ी का टायर बोलता है' प्रचलित चुनावी नारा है.

Ajay Singh

'काम बोलता है' काफी आकर्षक प्रचार वाक्य है जो लोगों में रूचि पैदा करता है. लेकिन बनारस से सटे मिर्जापुर जिले में लोगों ने इस नारे को नए तरीके से गढ़ा है. यहां लोगों के बीच 'गाड़ी का टायर बोलता है' प्रचलित चुनावी नारा है.

वैसे इस चुनावी मौसम में बनारस-इलाहाबाद एक्सप्रेस-वे की बांयी ओर विंध्याचल जाने के लिए जैसे आप मुड़ेंगे, वैसे ही नारों की ऐसी नवीनता का गूढ़ अर्थ आपको समझ में आने लगेगा.


काम नहीं गाड़ियों का टायर ही बोलता है

हाईवे में गड्ढे इतने गहरे हैं कि सावधानी से गाड़ी नहीं चलाने पर गाड़ी के एक्सल के टूटने का खतरा हमेशा बना रहता है. मिर्जापुर से इलाहाबाद तक फिजाओं में धूल इतनी भरी हुई है कि सांस तक ले पाना मुश्किल हो जाता है. फेफड़े शुद्ध हवा के लिए हांफने लगते हैं. तो दूसरा विकल्प नहीं दिखता. ऐसे में ये समझ से परे है कि यूपी के मुख्यमंत्री अपनी चुनावी सभाओं में जनता के सामने अपनी किन उपलब्धियों का दावा करते हैं?

जिस युग में बाजार हर क्षेत्र पर हावी होता जा रहा है, उस युग में सियासत पाल जोसेफ गोएब्बलस की कही हुई बात की तरह ही लगती है. गोएब्बलस ने कभी कहा था कि 'अगर आप एक बड़ा झूठ बोलते हैं. और लगातार बोलते हैं तो एक वक्त के बाद इसी झूठ पर लोग भरोसा करने लगते हैं.' और इस बात के संकेत भी मिल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश का सामना एक बड़े झूठ से हो रहा है. और बार-बार इसे प्रचारित भी किया जा रहा है.

कभी बेहतर हुआ करती थीं बुनियादी सुविधाएं

मिर्जापुर दो बड़े शहरों इलाहाबाद और बनारस से घिरा हुआ है. जिसे राजनीतिक वर्ग ने लंबे समय में ठगा है. कभी मिर्जापुर जिला यूपी के उन जिलों में शुमार हुआ करता था जहां बुनियादी सुविधाएं बेहतर हुआ करती थीं. लेकिन अब यही इलाका बुनियादी सुविधाओं का रोना रोता है.

तीन दशक पहले तक डाला, चर्क और चुनार नाम की तीन सीमेंट फैक्ट्रियों की वजह से इस इलाके में आर्थिक गतिविधियां तेज थीं. उदारीकरण से पहले तक, जब हाउसिंग सेक्टर पर राज्य सरकार का एकाधिकार हुआ करता था. तब ये फैक्ट्रियां सोने की खान हुआ करतीं थीं.

इसी प्रकार यहां बिजली की भी कोई कमी नहीं थी. इस क्षेत्र में पानी की अधिकता की वजह से कई पॉवर प्लांट लगाए गए थे. तो झारखंड की सीमा से सटे होने के कारण यहां कोयला की आपूर्ति भी आसानी से हो जाया करती थी. लेकिन उदारीकरण के बाद और कोटा परमिट राज के खत्म होते ही यहां के हालात बद से बदतर होने लगे. इलाके में सरकारी सीमेंट फैक्ट्रियां बंद होने लगीं. तो उद्योग धंधे लगा पाना आर्थिक रूप से कठिन होने लगा. इससे एक बहुत बड़ी आबादी बेरोजगार हो गई.

एक महिला जो यहां के खूबसूरत विन्डम फॉल के पास रहती है उन्होंने बताया कि 'यह क्षेत्र नरक जैसा है.'

बस अखिलेश ही नहीं सभी रहे हैं नाकाम

हालांकि ये मान लेना कि अखिलेश सरकार की नाकामी के खिलाफ लोगों की नाराजगी का फायदा बीजेपी या बीएसपी को मिलेगा, तो ऐसा नहीं है क्योंकि मतदाता इन दोनों पार्टियों से भी उतने ही नाराज हैं जितना कि अखिलेश सरकार से.

फोटो. फेसबुक से साभार.

मसलन, यहां की जनता इलाके की अनदेखी करने से अपने सांसद और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल से खासी नाराज हैं. अनुप्रिया पटेल का ताल्लुक अपना दल से है. जो मुख्य रूप से कुनबिस ( कुर्मी ) जाति आधारित पार्टी है. अपना दल का गठबंधन बीजेपी के साथ है. लेकिन महज तीन वर्षों में ही इलाके के लोगों के बीच अनुप्रिया पटेल की स्वीकार्यता काफी घटी है.

लेकिन अनुप्रिया इस सूची में अकेली नहीं है जिनसे जनता का मोहभंग हुआ हो. मिर्जापुर ने राजनाथ सिंह और ओम प्रकाश सिंह जैसे कद्दावर नेता दिए हैं. लेकिन इन नेताओं पर आरोप है कि सत्ता तक पहुंच बनाने के बाद से ही इन लोगों ने जिले की अनदेखी की.

इसी प्रकार इससे पहले जब बीएसपी इस इलाके से शक्तिशाली राजनीतिक ताकत बन कर उभरी थी, तब विंध्य क्षेत्र, जो कैमूर रेंज भी कहलाता है, के वातावरण को पूरी तरह खराब करने का आरोप पार्टी पर लगता है.

सच तो ये है कि मायावती सरकार ने इस इलाके में बड़े स्तर पर पत्थरों की माइनिंग की इजाजत दी थी. जिससे इस इलाके का जल स्तर काफी नीचे चला गया तो जंगल और पहाड़ दोनो को इससे नुकसान पहुंचा.

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता जा रहा है, इलाके के मतदाताओं के लिए न्यूनतम खराबी वाली राजनीतिक पार्टी का चुनाव कर पाना कठिन होता जा रहा है.

बहुत सालों से नहीं बदले हैं हालात

दो राय नहीं कि मतदाता अखिलेश के प्रचार वाक्य 'काम बोलता है' से काफी नाराज हैं. मिर्जापुर और इससे सटा हुआ सोनभद्र इलाके में भी स्थितियां इससे अलग नहीं हैं. खासकर सूबे के पूर्वी हिस्से में अगर आप चले जाएंगे तो कमोबेश यही हालात हर जगह दिखाई देंगे. बनारस से आजमगढ़ जाने वाली सड़क हो या फिर कोई दूसरी सड़क, सभी खस्ताहाल हैं.

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का हाल तो पहले से ही बदतर है. हालांकि ये मान लेना भी गलत होगा कि पिछले पांच वर्षों के दौरान ही सूबे की हालत इतनी खराब हुई है. यूपी के वर्तमान की ऐसी बदरंग तस्वीर के लिए हर वो सियासी दल जिम्मेदार है, जिसने अतीत में सूबे पर राज किया था.

हालांकि एक अंतर है जो आखिलेश को दूसरी पार्टियों से अलग करती है और ये अंतर है उस राजनीतिक प्रयोग के लिए आगे बढ़ना जिसमें 'एक बड़े झूठ को' सच जैसा साबित किया जाना है.