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उत्तर प्रदेश चुनाव 2017: ये गांव यूपी का थर्मामीटर है

इस गांव के लोगों की सरकार से केवल एक अदद घर और काम की चाह है

Badri Narayan

लखनऊ से 20 किलोमीटर दूर मोहनलालगंज में एक गांव है डिहवा. इस गांव में कुछ भी विशेष नहीं है और केवल इसीलिए ये गांव महत्वपूर्ण है. ये गांव उत्तर प्रदेश के चुनाव को, मुद्दों को और वोट डाल रहे लोगों को समझने के लिए एक अच्छा थर्मामीटर है.

जैसा आम तौर पर माना जाता है कि अगर राजधानी में विकास की वर्षा हो तो दो चार छींटे तो अगल-बगल पड़ ही जाते हैं. ये गांव तो दिए तले अंधेरे में धंसा हुआ है. इन लोगों की विकास की परिभाषा में मेट्रो और आठ लेन के हाइवे या एयरपोर्ट नहीं है. यहां लोगों के लिये विकास का मतलब सिर्फ एक अदद अपनी छत और दो वक्त की रोटी कमाने के लिए रोजगार है.


ना यहां लोगों के पास काम है और ना ही सिर के ऊपर पक्की छत. लोगों से पूछिए तो सब एक सुर में बोलते है सरकार कोई हो उनके हिस्से कुछ नहीं पड़ा

सवाल कीजिए कि सरकार से क्या उम्मीद है तो कोई उछल कर लैपटॉप, स्मार्टफोन नहीं मांगता. उनकी मांग भी उनकी जरूरतों की तरह बहुत थोड़ी है. वो चाहते हैं कि सरकार उन्हें एक छत और करने के लिए कोई काम दे दे. ऐसा काम जिसे वो मेहनत से करें और जिंदगी की गाड़ी खींचें. गरीब से गरीब आदमी भी सरकार से मुफ्त में कुछ नहीं मांग रहा.

डिहवा की कुंडली

दरअसल डिहवा मजदूरों के गांव के नाम से ही जाना जाता है. यहां रहने वाले लोगों में ज्यादातर मजदूर हैं. इनमें से कोई सुबह उठ कर जूते चमका कर दफ्तर नहीं जाता. कोई अंधेरे में उठ कर फसलों को पानी लगाने नहीं जाता. कोई सुबह लक्ष्मी जी की आरती पढ़ कर दुकान का शटर नहीं उठाता.

पहले लोग उठ कर मजदूरी करने जाते थे अब वो भी नहीं जाते.

क्यों? अब वो उठ कर यहां वहां बैठे पत्ते फेंटते रहते हैं, ताश खेलते हैं.

वजह?

नोटबंदी के बाद डिहवा में बेरोजगारी से बेहाल लोग. (फोटो: फर्स्टपोस्ट)

नोटबंदी का असर

नोटबंदी की वजह से यहां के मजदूरों का काम छिन गया है. कोई ईंटभट्टे में खटता था तो कोई बालू ढोने और भरने में. सबको नकद पैसा मिलता था. लेकिन नोटबंदी के बाद जहां से भी कैश मजदूरी मिला करती थी वो बंद हो गई.

नोटबंदी के बाद यहां के मजदूरों के हाथ ही कट गए. लोग मकान नहीं बनवा रहे क्योंकि उनके पास मजदूरों को देने के लिये कैश नहीं है. दूसरा सवाल ये भी है कि अब वो मकान बनवाएं भी तो क्यों और कैसे ?

मीडिया ने चिल्ला-चिल्ला कर देश भर में परोसा था कि नोटबंदी से गांव के खेतीहर मजदूर और किसानों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. दलील थी कि गरीब के पास पैसा ही कहां है जो वो नोटबंदी से परेशान होगा. इस झूठ को जिसे भी देखना हो तो वो यहां आ सकता है

पिछड़ेपन के अंधेरे में जाति धधक रही है

राजनीतिक और सरकारी फैसलों और योजनाओं का विरोधाभास गांवों की तरफ जाती पगडंडियों से ही शुरू हो जाता है. ये गांव भी जातिगत समीकरण से अछूता नहीं है यहां रावत, पासी, सैनी, लोधी, मौर्या, प्रजापति, यादव सब हैं.

गांव में चार खेड़े हैं. एक खेड़ा पूरी तरह से यादवों का है तो दूसरे खेड़े में आधे यादव लोग हैं. ढाई खेड़ों में बची हुई जातियों के लोग हैं. गांव में कुल 3 हजार के आसपास वोट हैं. अगर गांव में विकास की हल्की सी झलक है तो वो यादव खेड़े में ही नजर आती है.

दरअसल चुनाव के वक्त यादव यहां एक हो जाते हैं और चुनाव जीत जाते हैं. जिसके बाद अगर इस गांव में कहीं थोड़ा बहुत विकास होता है तो वो यादव खेड़े में ही सिमट जाता है.

(फोटो: रॉयटर्स)

रावत का झुकाव बीएसपी की तरफ है तो लोधी बीजेपी-बीएसपी में बंटे हुए हैं. जबकि प्रजापति एसपी-बीएसपी में बंटे हुए हैं. सैनी का झुकाव कुछ बीजेपी की तरफ है तो कुछ बीएसपी की तरफ. यहां के मौजूदा हाल में देखा जाए तो बीएसपी मजबूत दिखाई देती है जबकि दूसरे और तीसरे नंबर पर समाजवादी पार्टी और बीजेपी दिखाई दे रहे हैं.

बीएसपी की मजबूती की एक बड़ी वजह ये भी है कि बीएसपी के नेता यहां लगातार आ कर गांव के लोगों से उनकी समस्याएं सुनने आ रहे हैं. जबकि सपा सरकार की तरफ से कोई नुमाइंदा गांव के गरीब लोगों की सुध लेने यहां नहीं आया है.

यही वजह है कि यहां के लोगों को सरकार से कोई आस नहीं है. लोगों के भीतर ये बात घर कर गई है कि सरकार उनके लिये कुछ नहीं करेगी.

यानी बराबरी के अधिकार का लोकतंत्र यहां ताकतवर के सामने नतमस्तक है.यहां लोकतंत्र का मतलब ही सरकार से केवल एक अदद घर और काम की चाह है और यही उनके लिये विकास है.