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क्या यूपी विधानसभा चुनाव में जाति व धर्म का असर कम होगा?

व्यावहारिक राजनीति में सभी दल जातिगत आधार पर उम्मीदवारों का चयन करते हैं

सुरेश बाफना

देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां जातिवाद के खिलाफ बयानबाजी करती हैं. लेकिन व्यावहारिक राजनीति में सभी दल जातिगत आधार पर उम्मीदवारों का चयन करते हैं. इसके अलावा चुनाव प्रचार के दौरान भी जाति का इस्तेमाल करने की पूरी कोशिश होती है. जाति की तरह कुछ राजनीतिक दल धर्म का भी इस्तेमाल करते हैं.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की बहुसदस्यीय खंडपीठ ने फैसला दिया था कि धर्म, जाति, क्षेत्र व भाषा के आधार पर वोट मांगना संविधान सम्मत नहीं है. देश के संविधान में इस बात की जरूर व्यवस्था की गई है कि धर्म, जाति, क्षेत्र व भाषा के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव व अन्याय नहीं होना चाहिए. यदि न्याय व समानता की मांग इन आधारों पर की जाती है तो इसे संविधान-विरोधी नहीं माना जा सकता है.


वैसे तो देश के हर राज्य में जाति व धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन बिहार व उत्तर प्रदेश में जाति व धर्म का सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाता रहा है. उत्तर प्रदेश मंडल-कमंडल की राजनीति का एपीसेंटर माना जाता है. मंडल की यह राजनीति बाद में जाकर यादव-मुस्लिम गठबंधन में तब्दील हो गई और भाजपा की अयोध्या आधारित राजनीति को नरेंद्र मोदी ने सबका साथ सबका विकास का नारा देकर नया रूप दिया.

कांशीराम ने दिलाया विश्वास-दलित भी बन सकता है सीएम

पीटीआई

बसपा के संस्थापक कांशीराम ने ऊंची जातियों द्वारा किए जानेवाले अत्याचारों से मुक्ति के लिए दलित समुदाय को संगठित किया. उनकी राजनीति में पहचान स्थापित की.  इस बात का एहसास भी कराया कि उनके वर्ग का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश में मुख्‍यमंत्री भी बन सकता है. बसपा की राजनीतिक यात्रा तिलक, तराजू व तलवार के आपत्तिजनक नारे के साथ शुरू हुई थी जो अब सर्वजन हिताय पर पहुंच चुकी है.

संविधान को बनाते समय और बाद में राजनीतिक स्तर पर जातिवाद और शोषण के सवाल पर लंबी बहस हुई है. इस बहस का यह आम निष्कर्ष रहा है कि हजारों सालों तक जाति के आधार पर हुए अन्याय से लोगों को मुक्त करने के लिए राज्य द्वारा विशेष प्रयास किए जाने चाहिए. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि जब तक जाति के आधार पर अन्याय होगा, तब तक राजनीतिक स्तर पर इसकी अभिव्यक्ति को रोकना संभव नहीं है.

इक्कीसवीं सदी का समाज न्याय की अवधारणा पर ही आगे बढ़ेगा. नई टेक्नोलॅाजी ने शोषण पर आधारित संरचना को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया है. नतीजा यह हुआ कि लगभग सभी राजनीतिक दलों की भाषा व नारों में गुणात्मक बदलाव आया है. सपा में मुलायम सिंह यादव व अखिलेश यादव के बीच जारी टकराव राजनीति में आए इस नए बदलाव का ही सूचक है.

अखिलेश यादव सपा के पारंपरिक जनाधार (यादव-मुस्लिम) का समर्थन अपने साथ बनाए रखते हुए समाज के अन्य वर्गों का भी समर्थन पाने की वास्तविक कोशिश कर रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने विकास के नारे को केन्द्र में रखकर देश की राजनीति को नई दिशा देने में सफलता पाई. मोदी के इस चुनावी प्रयोग को अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के स्तर पर अपनाया है.

पिछले ढाई सालों से अखिलेश यादव ने विकास के मुद्दे के आस-पास अपनी राजनीति को बुनने का प्रयास किया है.

उत्तर प्रदेश की सभी समस्याअों का समाधान नहीं हुआ, लेकिन वे लोगों को एक हद तक यह आश्वस्त कर पाने में सफल हुए हैं कि उनके नेतृत्व में आर्थिक विकास व न्याय मिलना संभव है.

अखिलेश यादव बने चुनौती

अखिलेश यादव की यह सार्वजनिक छवि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा के लिए गंभीर चुनौती बन गई है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से सफलता मिलने के बाद भी भाजपा आज आश्वस्त नहीं है कि विधानसभा चुनाव में वह बहुमत पाने में सफल हो जाएगी. आम जीवन में टेक्नोंलॅाजी के इस्तेमाल और ‍विकास की उम्मीदों ने जातिवादी मानसिकता को एक हद तक कमजोर किया है.

इस नई वास्तविकता को मोदी व अखिलेश अच्छी तरह समझ रहे हैं, किन्तु मायावती व मुलायम सिंह यादव अभी भी जातिगत समीकरण के आधार पर चुनाव जीतने की पुरानी सोच में उलझे हुए हैं. मायावती व बसपा के नारे बदल गए, पर बुनियादी सोच नहीं बदली. वे यह समझती है कि दलित वोट उसके कब्जे में हैं और उसे एकमुश्त मुस्लिम वोट मिल जाए तो चुनावी नैया पार हो जाएगी.

मायावती मुस्लिम समुदाय से इस नकारात्मक आधार पर एकमुश्त वोट चाहती हैं कि विभाजित समाजवादी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को हराने में कामयाब नहीं हो पाएगी. 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की विजय के बाद यह मिथ खत्म हो जाना चाहिए कि मुस्लिम समुदाय किसी एक पार्टी के पक्ष में या विरोध में एकजुट होकर वोट देता है. असम विधानसभा चुनाव में भाजपा की विजय इस बात का ताजा उदाहरण है.

अयोध्या में मंदिर निर्माण के संदर्भ में हिंदुत्व के आधार पर भाजपा को एक सीमा तक ही राजनीतिक सफलता मिलीं, लेकिन केन्द्र में सत्ता पाने के लिए उदारवादी नेता अटलबिहारी वाजपेयी को ही आगे करना पड़ा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में हिन्दू ह्रदय सम्राट माने-जानेवाले नरेंद्र मोदी को ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा लगाने को बाध्य होना पड़ा.

उत्तर प्रदेश में 1992 की भाजपा और आज की भाजपा में काफी अंतर आ गया है. कुछ घटनाअों को अपवाद के तौर पर माना जाए तो आज की भाजपा को मुस्लिम-विरोधी पार्टी के तौर पर देखना उचित नहीं होगा. आज वह भी प्रयासरत है कि मुस्लिम समुदाय के मतदाताअों को अपनी तरफ आकर्षित किया जाए.

उत्तर प्रदेश की राजनीति कई दलों के बीच विभाजित होने के बावजूद यह मानना गलत नहीं होगा कि 2012 के विधानसभा चुनाव की तुलना में आज उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाति व धर्म का असर कम हुआ है. धर्म और जाति का असर चुनावी सर्वे के नतीजों में अधिक दिखाई देता है. प्रमुख राजनीतिक दल अपने स्वनिर्मित जाति व धर्म के किलों से बाहर निकलकर अपने जनाधार को सर्वव्यापी बनाने की कोशिश कर रहे हैं.