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बतकही से जवाबदेही का सफर कब तय करेंगे चुनावी वायदे

राजनीतिक दलों को उनके वायदों के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए संगठित प्रयास होने चाहिए.

Naresh Goswami

उत्तर प्रदेश के चुनाव में वायदों की बहार देखकर ‘ग्रैंड सेल’ की याद आने लगी है. ऐसा लगता है जैसे हरेक दल उपभोक्‍ता के लिए ‘बाय वन, गेट वन फ्री’ का ऑफर लिए घूम रहा है.

सड़कों की बात तो दूर इंटरनेट पर भी चुनाव की छवियां और सामग्री थोक के भाव उपलब्ध हैं.


कोई भी साइट खोलकर देखिए- कहीं समाजवादी पार्टी के अखिलेश का 'काम बोल' रहा है तो कहीं वे वृद्धावस्‍था पेंशन की राशि पांच सौ रुपए से बढ़ा कर एक हजार करने का दावा कुछ इस अदा के साथ कर रहे हैं कि जैसे एक हजार रुपए में वाकई जीवन चल जाता हो.

मुफ्त...मुफ्त...मुफ्त...

बीजेपी लड़कियों को 12वीं के बाद बीए तक की शिक्षा मुफ्त देने की पेशकश कर रही है.

मोदी जी चार दिन पहले हरदोई की एक रैली में किसानों से वायदा कर चुके हैं कि अगर राज्‍य में बीजेपी की सरकार बनती है तो कैबिनेट का पहला फैसला कर्ज माफी होगी.

कुछ कुछ ऐसा ही वायदा राहुल गांधी भी कई बार कर चुके हैं. चुनावी वायदों की इस बेला में अगर बीजेपी ने छात्राओं को छेड़खानी से बचाने के लिए एंटी रोमियो दल गठित करने का वादा किया है तो साथ ही कई ऐसे चुनावी पोस्‍टर भी उतारे हैं जिनमें नारे की तान इस बात पर टूटती है- ‘नहीं चाहिए ऐसी सरकार’.

पोस्टर में हमारी राजनीति का सच

इन पोस्‍टरों में हमारी राजनीति और समाज का वह स्‍याह सच दिखता है जिससे हर औसत नागरिक क्षुब्‍ध रहता है.

मसलन, इनमें बलात्‍कार, जमीन पर कब्‍जे, काम के लिए पलायन करने की मजबूरी, दलितों की गुहार, भ्रष्‍टाचार आदि आदि का जिक्र किया गया है.

जाहिर है कि जनता का दर्द बयान करने के बाद हर पोस्‍टर के अंत में बीजेपी को वोट देने की सलाह दी गई है.

हालांकि दिल्‍ली में अभी दूर-दूर तक चुनाव का माहौल नहीं है लेकिन बीजेपी के ऐसे कई चुनावी पोस्‍टर दिल्‍ली की मुख्‍य सड़कों पर भी दिखाई दे रहे हैं.

इन पोस्‍टरों में जनता की जिन समस्‍याओं की ओर संकेत किया गया है वे एक दिन में पैदा नहीं हुई हैं. कहीं किसी समस्‍या के लिए समाज की मानसिकता जिम्‍मेदार तो है किसी समस्‍या के लिए राजनीति का अपराधीकरण.

ऐसे में किसी भी पार्टी या नेता के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है कि वह सत्ता में आते ही उसका हल कर दे.

समाज की मानसिकता में अपराध 

बलात्‍कार जैसा जघन्‍य अपराध समाज की मानसिकता में पनपता है. स्‍त्री जब तक समाज की निगाह में कमजोर, दोयम और भोग्‍या मानी जाती रहेगी तब तक ऐसी घटनाओं को केवल कानून के दम पर रोक पाना असंभव रहेगा.

इसी तरह काम की तलाश में अपनी जड़ों से पलायन करना हमारी आर्थिक नीतियों का परिणाम रहा है.

उसके लिए कोई एक पार्टी नहीं बल्कि राज्‍य का आर्थिक ढांचा जिम्‍मेदार रहा है. अब अगर कोई पार्टी यह कहती है कि वह सत्ता में आते ही पलायन पर रोक लगा देगी तो यह हद दर्जे की गलतबयानी होगी.

मतदाता अपने रोजमर्रा के अनुभवों से जानता है कि सत्ता किनके पास बंधक होती है. लेकिन वह शायद सत्ता के दाव-पेंच, व्‍यूह-रचना और जोड़-तोड़ का खेल पूरी तरह नहीं समझ पाता. हमारे राजनीतिक दल मतदाता की इसी थोपी हुई अज्ञानता का लाभ उठाते हैं. वायदों के नाम पर उन्‍हें कुछ भी कह देने की छूट शायद यहीं से मिलती है.

बहरहाल, जनता से वायदे करना किसी भी चुनावी राजनीति का जरूरी कर्मकांड होता है लेकिन हमारी राजनीति इस मायने में सारी हदें पार कर चुकी है. गौर करें कि किसी भी पार्टी का वादा मतदान तक ही रहता है. इसके बाद वह प्रशासन और नौकरशाही के हाथों में चला जाता है.

अगर कोई हिम्‍मत करके पार्टी नेता को उसके वायदे की याद दिलाए तो उसे यह पुराना और सुना-सुनाया बहाना थमा दिया जाता है कि हमारा प्रशासन इस दिशा में गंभीर प्रयास कर रहा है. जबकि लोगबाग बखूबी जानते हैं कि इन तथाकथित गंभीर प्रयासों का पांच साल बाद भी कोई नतीजा नहीं निकलेगा.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्‍या राजनीतिक दलों को उनके वायदों के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए कोई संगठित प्रयास और संवैधानिक प्रबंध नहीं किया जाना चाहिए? क्‍या हमारे लोकतंत्र में ऐसी व्‍यवस्‍था नहीं की जा सकती कि सत्‍तारूढ़ पार्टी के लिए अपने वायदों और उनसे संबंधित संबंधित कार्रवाईयों का समयबद्ध रिपोर्ट कार्ड पेश करना एक कानूनी दायित्‍व बन जाए?