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अखिलेश के लिए साइकिल को रफ्तार में रखना जरूरी

पार्टी का चुनाव-चिन्ह और खुद पार्टी के हाथ में चले आने से अखिलेश फायदे में हैं.

Akshaya Mishra

विधानसभा चुनावों की अग्नि-परीक्षा में उतरने से ऐन पहले अखिलेश ने अपनी पहली बड़ी लड़ाई जीत ली है और अचानक ही यह लगने लगा है कि हवा का रुख उनकी तरफ है.

चुनावी निशान की लड़ाई बेशक घरेलू थी. पार्टी की अंदरुनी लड़ाई थी. लेकिन यह सरेआम थी. सो, इस लड़ाई में जीत के साथ अखिलेश का कद एकबारगी कई गुना बढ़ गया है. इस लड़ाई को पूरा देश टकटकी लगाये देख रहा था. अखिलेश लोगों की नजरों के केंद्र में थे.


मुख्यमंत्री रहते अखिलेश लोगों की नजर में इतना कभी नहीं चढ़ पाये थे जितना कि इस लड़ाई के बाद चढ़े जान पड़ते हैं. ऐसा हो भी क्यों ना ! आखिर, जो चुनौती उन्होंने सियासत के कद्दावर खिलाड़ी अपने पिता के आगे पेश की वह यूपी क्या, आजाद भारत के पूरे राजनीतिक इतिहास में बेजोड़ है. चुनौती पेश करने के साथ वे पिता मुलायम सिंह यादव की छत्रछाया में काम करने वाले आज्ञाकारी पुत्र भर नहीं रह गये. चंद हफ्तों के भीतर ही वे अपने दमखम पर कायम शख्सियत के मालिक बन बैठे, अब वे खुद के दम पर नेता हैं.

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चुनाव-चिन्ह की लड़ाई ने उनके पंख को परवाज देने का काम किया है. अगर उनकी उड़ान इसी रफ्तार से कायम रही तो फिर चौंकने की बारी राजनीति के उन पंडितों की होगी जो उन्हें आने वाले चुनाव का छुटभैया खिलाड़ी मानकर चल रहे हैं.

साइकिल के फायदे

अखिलेश को साइकिल चुनाव-चिन्ह देने के चुनाव आयोग के फैसले से एक बात पक्की हो गयी है. साइकिल निशान ना होने पर जो घाटा उन्हें चुनावों में उठाना पड़ता अब वह एकदम से कम हो जाएगा. बहुत से वोटर पार्टी की पहचान उसके निशान से ही कर पाते हैं. साइकिल का निशान ना मिलने पर ऐसे मतदाताओं के वोट अखलेश के लिए बेकार जाते.

आखिर अखिलेश कैसे कायम रख पायेंगे अपनी रफ्तार? उन्हें एक-एक करके कदम उठाने होंगे. पहले तो उन्हें यही निश्चित करना होगा कि जीत की खुशी सर चढ़कर ना बोलने लगे. उन्हें कोशिश करनी होगी कि कुनबे के मुखिया मुलायम सिंह यादव की हैसियत पार्टी में एक बार फिर से बहाल हो जाय.

इससे बुजुर्ग बाप का क्रोध तो शांत होगा ही. अखिलेश के बारे में सूबे की जनता के बीच एक सकारात्मक संदेश भी जाएगा. दूसरे उन्हें यह भी पक्का करना होगा कि समाज का जो तबका पार्टी के अच्छे-बुरे दिनों में साथ रहे वे पार्टी से दूर ना छिटकें. यह सोचकर कि अब अगुवाई मुलायम सिंह यादव के हाथ ना रही. वे किसी और राह ना लग जायें.

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नेता के रूप में ऐसा कौन है जिसे पार्टी के अतीत का बोझ ना ढोना पड़ा हो? अखिलेश के सामने मौका है कि वे पार्टी का परंपरागत सामाजिक आधार बढ़ायें और पार्टी के भीतर नये सामाजिक समूहों के लिए जगह पैदा करें. मिसाल के तौर पर, मुलायम सिंह यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी का मुख्य सामाजिक आधार यादवों के बीच रहा है.

गैरयादव ओबीसी तबका धीरे-धीरे समाजवादी पार्टी से दूर छिटका और बीजेपी की तरफ चला गया. 2014 के लोकसभा चुनावों में हुई वोटिंग के पैटर्न से यह रुझान साफ जाहिर होता है. अखिलेश नई सोच के साथ इस रुझान को थाम सकते हैं. यह उनका तीसरा फौरी मकसद होना चाहिए.

चौथी बात यह कि मुस्लिम मतदाता मुलायम सिंह यादव को अपना संकटमोचक मानता आया है.  इस वजह से उसने समाजवादी पार्टी के प्रति एक हद तक वफादारी निभायी है. अखिलेश को मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास जल्द से जल्द जीतना होगा ताकि वे छिटककर मायावती की पार्टी बीएसपी की ओर ना चले जायें.

अखिलेश की छवि एक नेक आदमी की है लेकिन मुस्लिम मतदाताओं को अपनी तरफ करने के लिए इतना भर काफी नहीं है. उन्हें अपने को एक मजबूत नेता के रूप में भी खड़ा करना होगा.

उनके लिए पांचवा सबसे अहम कदम होगा चुनावों में अपने लिए गठबंधन के साथी तलाशना. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ उनके ताल्लुकात अच्छे हैं और राहुल गठबंधन कायम करने के पक्ष में हैं. गठबंधन की सूरत में यह पक्का हो जाएगा कि मुस्लिम वोट दोनों पार्टियों के बीच बंटने नहीं जा रहा.

मुकाबला होगा त्रिकोणीय

यूपी में चुनावी मुकाबला मुख्य रुप से त्रिकोणीय रहता है. पिछले चुनावी रुझान बताते हैं कि जो पार्टी तकरीबन 29 फीसद वोट हासिल कर लेती है. सूबे में उसका शासन कायम हो जाता है. समाजवादी पार्टी के 25 फीसद के मत-प्रतिशत में अगर कांग्रेस के 8 फीसद वोट जोड़ दिए जायें तो दोनों का गठबंधन जीत की हालत में दिखायी देता है.

इसके अलावा, समाजवादी पार्टी को रणनीतिक सहयोगी के रूप में अन्य छोटी-छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ना होगा.

यूपी चुनाव सभी दलों के लिए बेहद अहम है

इन बातों के साथ-साथ अखिलेश के लिए सबसे सबसे ज्यादा जरूरी है, ऐसा सियासी संदेश गढ़ना जो असरदार हो और पूरे सूबे को जंच सके. अखिलेश ने अब तक अपना ध्यान विकास के मुद्दे पर केंद्रित कर रखा है. जाहिर है, उनके खाते में कुछ उपलब्धियां भी हैं.

उनका काम इतने भर से नहीं चलने वाला क्योंकि सूबे में जाति और संप्रदाय की गुटबंदी बहुत गहरी है. उन्हें ऐसा सियासी संदेश गढ़ना होगा जो लोगों के बीच भेद डालने वाले समीकरणों को काट सके और सूबे की नौजवान पीढ़ी की उम्मीदों को आवाज दे.

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यूपी में युवा वोटर अपने आप में काफी बड़ा है और नहीं लगता कि वह पहचान की राजनीति के पीछे भागेगा. चूंकि अखिलेश खुद भी युवा हैं, इसलिए सूबे की नौजवान पीढ़ी से संवाद कायम करना उनके लिए उतना मुश्किल नहीं होगा जितना कि अपने पिता की पीढ़ी के लोगों से संवाद करना.

पार्टी का चुनाव-चिन्ह और खुद पार्टी के हाथ में चले आने से अखिलेश फायदे में हैं. आगे की राह वे कैसे अख्तियार करते हैं, इसपर सबकी नजरें टिकी रहेंगी.