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उत्तर प्रदेश में चुनाव की रणभेरी बजते ही सेनापति मैदान में उतर चुके हैं

बीजेपी की दिक्कत इस बात से भी बढ़ रही है कि किसान नोटबंदी की वजह से पार्टी से दूर हो रहे हैं

Ambikanand Sahay

उत्तर प्रदेश में चुनाव की रणभेरी बज चुकी है. प्रचार शुरू हो चुका है. ऐसे मौके पर हमें भी मैदान में उतरने वाली सेनाओं की ताकत...उनकी कमजोरियों, उनके सामने दिख रहे मौकों और खतरों का हिसाब किताब लगाना चाहिए.

इस बार चुनाव में मुख्य मुकाबला सत्ताधारी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन, बहुजन समाज पार्टी और बीजेपी के बीच है. यानी मुकाबला त्रिकोणीय है.


समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन

सबसे पहले हम सत्ताधारी समाजवादी पार्टी और उसकी सहयोगी कांग्रेस की चुनावी स्थिति पर नजर डालते हैं. इस गठबंधन की सबसे बड़ी खूबी इसके नेतृत्व में दिख रहा नयापन है. पार्टी की कलह में जीत से कद्दावर बनकर उभरे अखिलेश यादव और कांग्रेस की तरफ से समझौते की बातचीत की अगुवाई करने वाली प्रियंका गांधी इस गठजोड़ की सबसे बड़ी ताकत हैं.

दोनों युवा चेहरे हैं.अखिलेश ने जहां पार्टी के भीतर छिड़ी वर्चस्व की लड़ाई में अपने ताकतवर पिता और चाचा को मात दी है, वहीं प्रियंका गांधी ने इस बार अमेठी और रायबरेली की हदों के बाहर प्रचार करने का फैसला किया है.

अखिलेश ने तो प्रचार शुरू भी कर दिया है. वहीं जल्द ही प्रियंका भी चुनाव मैदान में उतरने वाली हैं. आने वाले दिनों में यूपी के चुनाव में इन दोनों चेहरों पर नजर होगी. ये चुनावी समर को यूथफुल और रंग बिरंगा बनाएंगे.

इसके अलावा भी इस गठबंधन की तीन खूबियां हैं. अखिलेश यादव एक नई इमेज के साथ सामने आए हैं. वो अब बेचारे मुख्यमंत्री के तौर पर नहीं देखे जा रहे. वो समाजवादी पार्टी के भीतर हर फैसला खुद लेने वाले मुखिया बन गए हैं.

उनकी पार्टी के नेता-कार्यकर्ता अब उनकी सुनने लगे हैं. अखिलेश अब उसी रोल में दिख रहे हैं जिसमें कभी उनके पिता मुलायम दिखते थे. अब पार्टी में कोई भ्रम नहीं है.

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दूसरी अच्छी खबर है कि समाजवादी पार्टी का मुस्लिम-यादव वोटबैंक उनके साथ खड़ा दिखता है. इसमें बिखराव की अटकलें गलत साबित होती दिख रही हैं. पार्टी के भीतर छिड़ी जंग की वजह से इन वोटों के बिखरने का जो डर था, अब अखिलेश के विजयी होने के साथ ही दूर होता दिख रहा है.

कांग्रेस-समाजवादी पार्टी के गठबंधन की तीसरी प्रमुख बात है कि युवा वोटर अखिलेश यादव से प्रभावित दिखते हैं.

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अब इस गठबंधन के सामने चुनौती होगी सवर्णों, खासतौर से ब्राह्मणों को लुभाने की. कांग्रेस के साथ आने से समाजवादी पार्टी को इसकी उम्मीद है. हालांकि पिछले चुनाव के नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक उस पार्टी को नहीं मिलता, जिसके साथ कांग्रेस गठजोड़ करती है.

अब इस चुनाव में अगर इस चलन को तोड़ने में कामयाब रहा तो समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन के लिए ये बड़ी कामयाबी होगी. गठजोड़ सिर्फ सीटों के समीकरण नहीं, बल्कि दोनों ही पार्टियों के बीच अच्छे तालमेल की वजह से कामयाब होते हैं. फिलहाल तो दोनों दलों के बीच वो तालमेल नहीं दिख रहा.

बहुजन समाज पार्टी

बीएसपी की सबसे बड़ी ताकत ये है कि हमेशा इसकी ताकत को कम करके आंका जाता है. 2014 में मोदी की आंधी में बीएसपी भले ही एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत सकी, लेकिन पार्टी को बीस फीसद वोट मिले थे.

पिछले करीब दो दशकों से बीएसपी का परंपरागत वोट बैंक हमेशा पार्टी के साथ रहा है. यहां ये भी याद रखने वाली बात होगी कि जिस पार्टी को भी तीस फीसद वोट मिलेंगे, वो यूपी में सरकार बनाएगी.

2012 में बीएसपी को कमोबेश 26 फीसद वोट मिले थे. किसी को नहीं पता, इस बार मुसलमानों को लुभाकर, चार फीसद और वोट जुटाकर बीएसपी सत्ता में वापसी कर ले?

मायावती का आत्मविश्वास अपने वफादार वोटबैंक के कारण बना हुआ है

इस बार के चुनाव में दलित-मुस्लिम गठजोड़ विनिंग कॉम्बिनेशन बन सकता है. मायावती पिछले कई महीनों से इस गठजोड़ की गोटियां फिट करने में जुटी हैं. उन्होंने इस बार 97 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया है.

वो रोजाना वोटरों को ये याद दिलाना नहीं भूलतीं कि अगर यूपी में बीजेपी को कोई हरा सकता है तो वो उनकी पार्टी है न कि समाजवादी पार्टी.

बीएसपी के लिए मुश्किल ये है कि पिछले महीनों में कई बड़े नेताओं ने पार्टी छोड़ दी. स्वामी प्रसाद मौर्य, आर के चौधरी और रवींद्र नाथ त्रिपाठी जैसे कद्दावर नेता बीएसपी के खेमे से निकल चुके हैं. इससे ये संकेत गया है कि अति पिछड़े वर्ग के वोटर बीएसपी के हाथ से निकल रहे हैं.

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खास तौर से बीजेपी के बढ़ते दलित और पिछड़ा वर्ग प्रेम से बीएसपी को काफी नुकसान हुआ है. हालांकि, मायावती आत्मविश्वास से लबरेज दिखती हैं. वो अपने चिर-परिचित अंदाज में चुनावी समर में आगे बढ़ रही हैं.

वो कहती हैं कि, 'बीएसपी का वोट बैंक समाजवादी पार्टी और बीजेपी की तरह बंटा हुआ नहीं हैं. हमारे यहां समाजवादी पार्टी और बीजेपी जैसे खेमेबंदी नहीं है. हमारे यहां कोई गुट एक दूसरे को हराने की नीयत से मैदान में नहीं उतरेगा. सिर्फ बहुजन समाज पार्टी ही बीजेपी को यूपी में सत्ता में आने से रोक सकती है. सिर्फ हमारी पार्टी ही 2019 में बीजेपी की राह में रोड़ा बनने का माद्दा रखती है'.

भारतीय जनता पार्टी

बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत प्रधानमंत्री मोदी का करिश्माई नेतृत्व है. फिलहाल न तो पार्टी में और न ही देश में उनकी बराबरी की लोकप्रियता वाला कोई दूसरा नेता है. पर, बीजेपी की दिक्कत ये है कि बिना मोदी के बीजेपी बेहद कमजोर नजर आती है.

यहां हमें याद रखना होगा कि ये लोकसभा के नहीं विधानसभा के चुनाव हैं. बीजेपी के पास राज्य के स्तर पर कोई कद्दावर नेता नहीं जो अखिलेश यादव या मायावती की बराबरी का होने का दावा कर सके.

बीजेपी एक बार फिर से पीएम मोदी के ब्रांड इमेज पर निर्भर है

यही वजह है कि इस बार बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद के लिए कोई उम्मीदवार नहीं घोषित किया है. अब बीजेपी को एक तरफ मायावती तो दूसरी तरफ अखिलेश-प्रियंका की ताकतवर जोड़ी का सामना करना है.

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के गठजोड़ के चलते बीजेपी का परंपरागत सवर्ण वोट बैंक भी खतरे में है. खास तौर से ब्राह्मण और बनिया मतदाताओं का झुकाव समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन की तरफ दिख रहा है.

बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की नाराजगी भी है. जाटों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का जमकर समर्थन किया था. मगर तब से हालात बहुत बदल गए हैं. जाट आज नाराज हैं उनका एक बड़ा वर्ग 'कमल' के खिलाफ वोट करने की बात कर रहा है.

बीजेपी की दिक्कत इस बात से भी बढ़ रही है कि किसान नोटबंदी की वजह से पार्टी से दूर हो रहे हैं. उनका धैर्य चुकता दिख रहा है. चुनाव का वक्त करीब है और नाराज वोटरों को मनाने के लिए बीजेपी के पास वक्त बेहद कम है. उसे जीत के लिए पूरी ताकत लगानी होगी.