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यूपी चुनाव 2017: काशी की कसौटी पर कितना खरे उतरते हैं पीएम मोदी?

बनारस के बुनकर पीएम मोदी के नोटबंदी के फैसले पर सवाल उठाते हैं

Parth MN

उत्तर प्रदेश में सात चरणों में हो रहे चुनाव में इस बार नजर युवा मतदाताओं पर सबसे ज्यादा है. इक्कीसवीं सदी का ये वोटर क्या सोचता है? उसके लिए कौन से मुद्दे अहम हैं? रोजगार और राजनीति में से किस पर उसका जोर है? इन सवालों के जवाब जानने की कोशिश में पार्थ एमएन ने यूपी के कई इलाकों का दौरा किया है. पेश है वाराणसी के युवा मतदाताओं के मन को टटोलती उनकी ग्राउंड रिपोर्ट:

बनारस के रहने वाले महबूब अली कह रहे हैं कि उनका कारोबार धीरे-धीरे नोटबंदी के असर से उबर रहा है. धंधा बेहतर हो रहा है. महबूब अली बताते हैं कि 8 नवंबर को नोटबंदी के एलान के बाद वो करीब दो महीने तक खाली बैठे रहे थे. लेकिन अब हालात बेहतर हो रहे हैं.


महबूब अली वाराणसी के बुनकर समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. वाराणसी में बुनकरों की आबादी करीब दो लाख है. महबूब अली की उम्र बीस बरस है. वो दस साल की उम्र से ही अपने पुश्तैनी कारोबार से जुड़ गए थे. ये धंधा उनके बाबा ने शुरू किया था.

महबूब बताते हैं कि हथकरघे के कारोबार से उनके परिवार की जरूरतें बमुश्किल पूरी हो पाती हैं. वो कहते हैं कि नोटबंदी से इतना तगड़ा झटका लगा है कि उन्हें अभी भी चेक भुनाने के लिए लाइनों में लगना पड़ता है. उन्हें हर मजदूर को हफ्ते में दो हजार रुपए मजदूरी देनी होती है. क्योंकि मजदूर का खाना-पानी भी तो उन्हीं के भरोसे है. वो कहते हैं कि जब वो मजदूरों को पैसे नहीं दे पाते तो बहुत खराब महसूस करते हैं.

हथकरघा कारोबार से जुड़े बुनकर महबूब अली

महबूब अली स्कूल की पढ़ाई भी नहीं पूरी कर पाए थे. उनके चार छोटे भाई हैं. उनकी कोशिश है कि कम से कम उनके छोटे भाई अच्छी पढ़ाई कर लें. जिससे उन्हें हथकरघा उद्योग से न जुड़ना पड़े. वो बनारस से बाहर अपना बेहतर भविष्य तलाशें. उत्तर प्रदेश से भी बाहर चले जाएं.

बुनकर समुदाय के ज्यादातर युवा वोटर अपने पुश्तैनी धंधे से निजात चाहते हैं. लेकिन वो बताते हैं कि उनके लिए रोजगार के बेहद कम मौके हैं. अगर उन्हें अच्छी शिक्षा मिल जाती तो शायद उनका मुस्कबिल दूसरा होता. अब ये सब नहीं मिलता तो मजबूरी में उन्हें हथकरघे के कारोबार से जुड़ना पड़ता है.

भले ही यूपी के बाकी हिस्सों में लोग पीएम मोदी के नोटबंदी के फैसले की तारीफ करते हों. इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ा कदम बताते हों. मगर बनारस के बुनकर इस पर सवाल उठाते हैं.

अखिलेश यादव के पक्ष में बुनकर समुदाय

इस समुदाय के ज्यादातर वोट अखिलेश यादव के पक्ष में जाते दिख रहे हैं. बुनकर कहते हैं कि हथकरघा मशीनों के लिए समाजवादी पार्टी की सरकार ने सस्ती बिजली मुहैया कराई है. उन्हें एक मशीन के लिए सिर्फ 85 रुपए महीने बिजली के बिल के तौर पर देने पड़ते हैं. ये सुविधा अखिलेश ने ही दी है. बुनकर समुदाय के लोग कहते हैं कि समाजवादी पार्टी की सरकार ने उनके लिए बहुत कुछ किया है.

लेकिन बनारस के वोटर को समझना मुश्किल है. यहां का सियासी रुख पेचीदा है. यहां बिस्मिल्लाह खां की शहनाई फिजां में गूंजती रहती है. और हजारों भक्त गंगा में डुबकी भी लगाते हैं.

ब्राह्मण वोटरों का रूख बीजेपी के करीब

वाराणसी में बुनकरों के अलावा ब्राह्मण वोटरों की भी अच्छी खासी तादाद है. जिले में 13 फीसद ब्राह्मण वोटर हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश की करीब बीस संसदीय सीटों पर ब्राह्मण वोट काफी अहम हैं. इनमें से बनारस भी एक सीट है. इसी वजह से युवा वोटरों के बीच आरक्षण बड़ा मुद्दा है.

भूमिका शुक्ला, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की छात्रा हैं. वो कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट ऐंड डेवेलपमेंट की पढ़ाई कर रही हैं. उनके पिता यूपी पुलिस में हैं. वो बताती हैं कि पुलिस में तबादले और पोस्टिंग में बहुत भेदभाव होता है. हर चीज में यादवों को तरजीह दी जाती है. भूमिका कहती हैं कि यादवों के मुकाबले उनके लिए नौकरी हासिल करना ज्यादा मुश्किल है. वो मौजूदा सरकार को यादवों की सरकार कहती हैं. और आरक्षण व्यवस्था को नए सिरे से तय करने की मांग करती हैं.

बीएचयू की छात्रा भूमिका शुक्ला

छात्र कहते हैं कि वो वोट देते वक्त जाति और धर्म के बजाय विकास के बारे में सोचते हैं. लेकिन सवर्ण युवा वोटर आरक्षण की खुलकर मुखालफत करते हैं. उन्हें पता है कि किस पार्टी ने कितने ब्राह्मण और पिछड़े उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं.

पिछड़ों को गोलबंद करने में चूकी बीजेपी

यूपी में पिछड़ों को 27 फीसद आरक्षण मिलता है. युवा वोटर कहते हैं कि इसका सबसे ज्यादा फायदा यादवों को मिलता है. समाजवादी पार्टी पर हमेशा ही यादवों को तरजीह देने का इल्जाम लगता रहा है. गैर यादव वोटरों के बीजेपी के पक्ष में लामबंद होने की इस चुनाव में काफी चर्चा हुई है. फिर भी प्रधानमंत्री मोदी का चुनाव क्षेत्र होने के बावजूद, वाराणसी में बीजेपी की राह आसान नहीं दिखती.

वाराणसी की 8 विधानसभा सीटों पर 8 मार्च को वोट डाले जाएंगे. इनमें से तीन सीटें शहरी इलाके में हैं और बाकी की 5 ग्रामीण सीटें हैं. वाराणसी उत्तर सीट पर इस बार बीजेपी के दो नेता निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं, क्योंकि उन्हें पार्टी से टिकट नहीं मिला. अगर वो बीजेपी के हिस्से के वोट अपने पाले में कर लेते हैं, तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन को फायदा मिल सकता है.

वहीं वाराणसी दक्षिण सीट में 55 फीसद वोटर मुसलमान हैं. उनके भी अखिलेश-राहुल के गठजोड़ के पक्ष में जाने की उम्मीद है. वहीं वाराणसी कैंट सीट पर मुकाबला बेहद कांटे है. इनके अलावा ग्रामीण इलाकों में अजय राय और सुरेंद्र पटेल को हरा पाना आसान काम नहीं.

बनारस का स्वच्छता मिशन अधूरा है

प्रदेश के बाकी हिस्सों की तरह वाराणसी में भी लोग मोदी और अखिलेश सरकारों की नाकामियां गिनाते हैं. खास तौर से वो कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर अखिलेश सरकार की नाकामी से काफी नाखुश हैं. मगर उनकी नाराजगी पीएम मोदी से भी है.

लोगों का कहना है कि पीएम मोदी उनके सांसद हैं, फिर भी पिछले करीब तीन सालों में बनारस का हाल जस का तस है. जिन चीजों से लोग 2014 से पहले परेशान थे, वही हालात आज भी हैं. न शहर में ड्रेनेज की व्यवस्था बदली है, न गंदगी और प्रदूषण से निजात मिली है.

काशी विद्यापीठ के छात्र अंकित यादव कहते हैं कि मोदी वादे तो खूब करते हैं, मगर उन्हें निभाते नहीं हैं. अंकित कहते हैं कि रुपए की कीमत गिर रही है. अर्थव्यवस्था की विकास की रफ्तार धीमी पड़ रही है. अच्छे दिनों का वादा अधूरा है.

काशी विद्यापीठ के छात्र

देश के तमाम शिक्षण संस्थाओं में चल रही उठा-पटक पर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में भी खूब चर्चा हो रही है. राजदीप सरदेसाई के शो में दिखीं मनीषा शुक्ला और उनकी तीन साथी छात्राओं का दावा है कि उन्हें बलात्कार की धमकियां मिल रही हैं. क्योंकि उन्होंने लड़कियों के साथ हो रहे भेदभाव का मुद्दा उठाया था.

बीएचयू के छात्र पाबंदियों से नाराज हैं

मनीषा कहती हैं कि छात्राएं यहां बहस में हिस्सा नहीं ले सकतीं उनके ऊपर कपड़े पहनने से लेकर तमाम तरह की बंदिशें लागू की जाती हैं. बीएससी में दूसरे साल की छात्रा मनीषा का कहना है वो किसके साथ घूमती हैं, इस पर भी नजर रखी जाती है.

जो छात्र बीएचयू में तीन साल से ज्यादा वक्त गुजार चुके हैं, वो कहते हैं कि पहले यहां का माहौल खुला था. लेकिन मौजूदा वाइस चांसलर के आने के बाद हालात बदले हैं. छात्रों का कहना है कि अब तो वैलेंटाइन डे मनाने पर उन्हें हॉस्टल से बाहर किए जाने का डर रहता है. यहां तक कि कई अध्यापक कहते हैं कि वो खुलकर अपनी बात नहीं कह पाते.

सोशल मीडिया पर कुछ कहने से डरते हैं. क्योंकि छात्रों और अध्यापकों की सोशल मीडिया पोस्ट की भी निगरानी की जाती है. इन लोगों का दावा है कि दक्षिणपंथी मुद्दों पर चर्चा की तो इजाजत है. मगर गांधी पर बहस की गुंजाइश कम हो गई है. वहीं गोलवलकर पर कई सेमिनार हो चुके हैं.

एक 24 बरस की छात्रा ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया कि वो पहले के वाइस चांसलर के दौर में ज्यादा खुश थी. लेकिन अब उसे दिनों दिन बढ़ती पाबंदियां डराती हैं. बीएचयू कैम्पस में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का असर भी बढ़ता जा रहा है. एबीवीपी के समर्थक धड़ल्ले से कैम्पस में घूमते हैं, छात्रों को खुलेआम नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं. धमकाते हैं.

इस छात्रा का कहना है कि जैसा दिल्ली के रामजस कॉलेज और जेएनयू में देखा जा चुका है, कुछ वैसा ही यहां भी एबीवीपी के समर्थक छात्र करते हैं. इस छात्रा का कहना है कि पहले उसे बीजेपी को वोट देने से गुरेज नहीं था. मगर जिस तरह से कैम्पस में एबीवीपी का दखल बढ़ रहा है, खुली बहस की आजादी खत्म हो रही है. तो, इस माहौल में वो बीजेपी को वोट देने से पहले दो बार सोचेगी.