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यूपी चुनाव 2017: बनारस में खिसक सकती है बीजेपी की जमीन

बनारस में बीजेपी को बहुत जोर लगाना पड़ रहा है कि आठ सीटों में से कुछ तो उसकी झोली में आ जाएं.

Ajay Bose

मीडिया और सियासत के दायरों में हल्ला तो यही है कि बीजेपी यूपी के चुनावों में आगे चल रही है लेकिन बनारस को लेकर बीजेपी के चुनावी चिंता इस हल्ले से कुछ अलग कहानी कहती जान पड़ती है.

बनारस बीजेपी का परंपरागत गढ़ है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनाव क्षेत्र भी. लेकिन विडंबना देखिए कि बीजेपी को बहुत जोर लगाना पड़ रहा है कि बनारस जिले की आठ सीटों में से कुछ तो उसकी झोली में आ जाएं.


ऐसे में इस बात का गले उतरना तनिक मुश्किल है कि बीजेपी हिंदुओं के ध्रुवीकरण और मोदी की शख्सियत के आकर्षण के बूते पूरे सूबे के चुनाव में बढ़त पर है.

दरअसल इसे विचित्र विरोधाभास कहा जायेगा कि बीजेपी को जहां एकदम सूपड़ा साफ जीत की हालत में होना चाहिए था, वहीं उसके हाथ से जमीन खिसकती नजर आ रही है.

इस विरोधाभास से जाहिर होता है कि यूपी के चुनाव कितने जटिल हैं. यहां जाति, समुदाय, उम्मीदवारों का चयन और कई तरह के स्थानीय मुद्दों के आपसी घालमेल से चुनाव का गणित तैयार होता है. इस गणित के आगे किसी भी एक चीज को सबसे ज्यादा असरदार मानकर नहीं चला जा सकता.

धर्म की नगरी बनारस में तकरीबन दो हजार मंदिर हैं. नगर अखाड़ों और मठों से भरा है. जिनमें कुछ बहुत मशहूर हैं तो कुछ एकदम ही भूले-बिसरे. इन सबसे हिंदुओं के अलग-अलग संप्रदाय जुड़े हुए हैं.

इस पवित्र नगरी की दो दिन की यात्रा में शायद ही कोई ऐसी चीज देखने को मिली जिससे धार्मिक कट्टरता या सांप्रदायिक पूर्वग्रह की झलक आती हो.

पीएम से निराश हैं बनारसी 

यह भी लगा कि यहां लोग बीजेपी और प्रधानमंत्री से मोहभंग की हालत में भले ना हों परंतु निराश जरुर हैं. इसकी वजह है कि केंद्र में सत्ता संभालने के बाद ना तो बनारस में बुनियादी ढांचे का सुधार हुआ और ना ही बनारस के लोगों की लंबे समय से चली आ रही दिक्कतें ही दूर हुईं.

मोदी ने वादा किया था कि वे काशी को दुनिया के सबसे सुंदर पर्यटनी शहरों में एक बनाकर दिखाएंगे. यह शहर कुछ ऐसा सुंदर होगा कि उसकी तुलना जापान के क्योटो से की जायेगी. यह वादा अपने कद और विस्तार में आज भी बहुत आकर्षक जान पड़ता है लेकिन इसके साथ विश्वास का घाटा भी जुड़ा है. काशी को सुंदर बनाने के मोर्चे पर कथनी और करनी का अंतर बढ़ता जा रहा है.

गौर करने की एक बात और भी है. बनारस में बहुत से लोगों से बात हुई और इनमें कुछ बीजेपी के भी करीबी थे. एक सुर से सबका कहना था कि चुनाव से ऐन पहले अपने पोल में गोल मारने काम तो बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने खुद ही किया.

कमजोर प्रत्याशियों का चयन हुआ है, कुर्मी (पिछड़ी जाति) समुदाय को अपने पाले में खींचने की कोशिश की गई लेकिन आधे-अधूरे मन से. गंगा नदी के लिए बिना सोचे-विचारे खास तरह की योजना शुरु की गई और इससे स्थानीय मल्लाह (नाव खेने वाले) नाराज हुए.

इन सबके साथ-साथ नोटबंदी के फैसले ने भी असर दिखाया है. नोटबंदी से शहर के व्यापारी वर्ग पर तो असर हुआ ही शहर की जीवनरेखा कहे जाने वाले पर्यटन-उद्योग से जुड़े लोगों को भी इससे परेशानी हुई है.

बंगाली और ब्राह्मण मतदाता हैं नाराज 

सबसे बड़ी गलती यह मानी जा रही है कि उम्र के सातवें दशक में पहुंच चुके पार्टी के स्थानीय स्तर के कद्दावर नेता बंगाली ब्राह्मण ‘दादा’ श्यामदेव राय चौधरी को टिकट नहीं दिया गया. वे प्रतिष्ठित सीट वाराणसी दक्षिण से लगातार सात दफे पार्टी की तरफ से चुनाव जीते हैं.

इस विधानसभाई इलाके में कई बड़े मंदिर और धार्मिक संस्थान हैं. ‘दादा’ टिकट ना मिलने से सदमे में हैं. बीजेपी का हाईकमान उन्हें मनाने की कोशिश में कह रहा है कि आप यह ले लीजिए या वह ले लीजिए लेकिन ‘दादा’ का गुस्सा कम नहीं हुआ है. वे कहते हैं, 'मैं कोई बच्चा नहीं हूं जिसे बैलून और लालीपॉप देकर बहलाया जाए.'

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर का कहना है कि रॉयचौधरी को टिकट ना देने के मनमाने फैसले से बीजेपी बनारस दक्षिण की सीट तो हारेगी ही, साथ ही शहर की कई अन्य सीटों पर पार्टी की जीत की संभावनाओं को चोट पहुंचेगी.

इसकी मुख्य वजह है कि वहां प्रभावशाली ब्राह्मण वर्ग और बंगाली समुदाय के मतदाताओं की अच्छी-खासी तादाद मौजूद हैं. प्रोफेसर का कहना था, 'दादा का अपमान हम सबका अपमान है.'

अपना दल का अंदरुनी झगड़ा बना सिरदर्द 

‘अपना दल’ से बीजेपी का गठबंधन परेशानी की हालत में है और इस वजह से भी बनारस को लेकर बीजेपी की चिंता में इजाफा हुआ है. 2014 में अपना दल के साथ गठबंधन बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित हुआ था. गठबंधन के कारण उसे बनारस जिले और आस-पास के इलाकों में कुर्मी मतदाताओं के वोट बटोरने में सहूलियत हुई.

फिलहाल यह पार्टी  मां-बेटी अनुप्रिया पटेल और कृष्णा पटेल के बीच दोफाड़ हो चुकी है. अनुप्रिया पटेल केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री हैं और उन्हें प्रधानमंत्री का करीबी माना जाता है.

कृष्णा पटेल के पति स्वर्गीय सोनेलाल पटेल ने पार्टी की स्थापना की थी और कृष्णा पटेल उनकी विरासत की दावेदार के रुप में देखी जाती हैं. बीजेपी के स्थानीय नेताओं की शिकायत है कि अनुप्रिया पटेल अपनी ताकत की बदगुमानी में हैं और इसी कारण पार्टी के लिए प्रचार करने से इनकार कर रही हैं.

गंगा नदी की योजनाओं से मल्लाह नाराज 

इस इलाके की एक और पिछड़ी जाति मल्लाह है. मल्लाह परंपरागत रुप से गंगा नदी में नाव चलाने का काम करते आये हैं. इस जाति के लोग भी बीजेपी से नाराज हैं क्योंकि केंद्र द्वारा प्रायोजित एक नई योजना के तहत दशाश्वमेध घाट पर दैनिक सांध्य-पूजा के दर्शन के लिए एक खास किस्म का छज्जा बनवाया जाना है.

इससे मल्लाहों की जीविका को खतरा पैदा हो गया है क्योंकि अबतक लोग नाव पर सवार होकर ही संध्या-पूजन के वक्त का आकर्षक दृश्य देखते आए हैं.

एक और स्कीम ई-बोट की है. इसकी वजह से मल्लाहों को सोलर बैट्री भाड़े पर लेकर नाव चलानी पड़ रही थी. विरोध होने पर हड़बड़ी में यह योजना बंद की गई.

मल्लाह निषाद जाति से हैं और लंबे समय से मांग कर रहे हैं कि निषाद जाति को अनुसूचित जाति में शामिल कर आरक्षण दिया जाय. वे इस बात को लेकर नाराज चल रहे हैं कि मोदी सरकार ने उनकी इस मांग को पूरा करने की दिशा में कुछ नहीं किया.

नोटबंदी: एक दुखती रग 

नोटबंदी का फैसला भी बनारस में बीजेपी की एक दुखती रग है, खासकर व्यापारी वर्ग के लिहाज से. यह वर्ग दशकों से आरएसएस, पुराने जनसंघ और फिर बीजेपी का भारी समर्थक रहा है.

हाल के समय तक बीजेपी के प्रति निष्ठा रखने वाले एक स्थानीय व्यापारी ने बड़े क्रोध के स्वर में बताया, 'पार्टी को इस चुनाव में नोटबंदी की भारी कीमत चुकानी होगी.'

विडंबना देखिए कि गंगा के घाट पर हमें घुमाने वाले एक मल्लाह ने अफसोस के स्वर में कहा, 'नोटबंदी के बावजूद कुछ भी नहीं बदला. धनी अब भी धनी हैं और गरीब अब भी गरीब. चोट हमारे ऊपर पड़ी क्योंकि नोट की किल्लत के समय सैलानी आने कम हो गए.'

बनारस की संस्कृति में बदलाव से नाखुश बनारसी  

बनारस के निवासियों के मन में इस बात का भी मलाल है कि प्रधानमंत्री को प्रभावित करने के लिए इस प्राचीन नगरी को रंग-रोगन के जरिए एक नया चेहरा दिया जा रहा है.

'मकसद नेक हो सकता है लेकिन बाहर के लोग जिनके पास अपने काम की विशेषज्ञता तो दूर, संस्कृति के प्रति खास संवेदनशीलता भी नहीं है-जिस तरह दखलंदाजी करने पर तुले हैं वह किसी विध्वंस से कम नहीं है.' यह बात अमिताभ भट्टाचार्य ने कही.

वे संस्कृति के विद्वानों के एक प्रतिष्ठित घराने से हैं जो तकरीबन 500 साल पहले बंगाल से हिजरत करके बनारस चला आया था. भट्टाचार्य बनारस के कई सांस्कृतिक उत्सव और कार्यक्रमों से जुड़े हैं. उनके चेहरे पर यह मलाल साफ-साफ पढ़ा जा सकता है कि जो शहर अपनी परिष्कृति रुचि के लिए विख्यात रहा है, उसका इस कदर नासमझी भरा व्यावसायीकरण हो रहा है.

मिसाल के लिए बनारस के बलुआ पत्थर के घाटों पर परंपरागत रुप से पीले रंग के बल्ब जलाये जाते रहे हैं. इनकी जगह अब गर्म होकर रोशनी बिखेरने वाली लेडलाइट लगायी गई है. इसकी वजह से घाट तकरीबन अंधेरे में डूबे नजर आते हैं.

भट्टाचार्य उलाहने के स्वर में कहते हैं, 'रात को जगमगाते रहने वाले घाटों को अचानक ही भयावह फीकेपन ने घेर लिया है मानो गंगा से कोई ड्रैकुला निकल रहा हो.'

एक और योजना है घाटों को प्लास्टिक पेंट के जरिए गुलाबी रंग में रंगने की. भट्टाचार्य को डर है कि ऐसा करने से घाटों के पत्थर साबूत ना रहे पायेंगे क्योंकि पेंट की परत चढ़ते ही घाटों के बलुआ-पत्थर का संपर्क हवा से टूट जाएगा और पत्थरों में दरार आने लगेगी.

भट्टाचार्य का मानना है कि प्रधानमंत्री जब बनारस से चुने गए तो यहां के बहुत से लोगों को खुशी हुई थी लेकिन अब यह खुशी धीरे-धीरे मंद पड़ने लगी है और यह बात बनारस में बीजेपी के लिए भारी पड़ सकती है.