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'माननीय' नहीं समझ पा रहे बनारस का मिजाज

जीत-हार की चिंता की गठरी गंगा में डुबोकर आम बनारसी ठंडई के साथ चुनावी मौसम का मजा ले रहा है

Shivaji Rai

बनारस की एक अलग ही तासीर है. कबीर की उलटबासी की तरह यहां का समाजशास्‍त्र भी अलहदा है. फिलहाल बनारस 'चुनाव मोड' पर है.अड़ियों (अड्डों) से लेकर घाटों तक नेताओं का जमघट लगा है.

दिल्‍ली और लखनऊ के सत्‍ताधारी शहर में दरबार लगाए बैठे हैं. आए दिन उल्‍कापिंड की तरह नेता शहर में टपक रहे हैं. पर 'गं-गं-गच्छति के घूर्णन गति से घूमते इस शहर की आकाश गंगा में खुद को फिट नहीं कर पा रहे हैं.


माननीयों को समझ नहीं आ रहा है कि फक्‍कड़ मतदाताओं का मन आखिर जीतें तो जीतें कैसे? यहां सब कुछ उल्‍टा पड़ रहा है. 'थ्री डाइमेंशन वाले कृत्रिम प्रचार पर नुक्‍कड़ सभाएं भारी पड़ रही हैं. चुनावी अन्‍नप्राशन में ना मुर्गे की मांग है, ना प्रचार की थकान मिटाने के लिए शराब की डिमांड.

मधुशाला का फार्मूला बनारस में फेल 

बाबा की नगरी में हरिवंश राय बच्‍चन का फार्मूला भी फेल है. यहां हर राह मधुशाला नहीं पहुंचती. यहां गलियां घूम-फिरकर गंगा के मुहाने ले जाती हैं. आयातित नेता परेशान हैं कि 'चना-चबेना' वाले बनारसियों को फुसलाएं कैसे?बिना दारू-मुर्गा वाले बनारसियों को वोटबैंक बनाएं कैसे?

'निंदक नियरे राखिए' की सोच वालों के समक्ष विरोधियों का उपहास उड़ाएं कैसे? भारी असमंजस बरकरार है. लंका पर टंडन जी की चाय की दुकान पर नेताओं की नादानी पर ठहाके लग रहे हैं.

भौकाली गुरू हंसते हुए कहते हैं, 'गुरू दारू से तो काशी करवट होने से रहल, इहां तो 'बाबा की बूटी' का ही बोलबाला हौ.'

पप्‍पू चौबे हां में हां मिलाते हुए कहते हैं कि गुरु नेता क्‍या जाने की बनारसी 'पीता' नहीं, 'छानता' है. वह पीकर लोटने का कायल नहीं, वह तो बाबा की 'बूटी' (भांग) का कायल है. वह सोडा में दारू मिलाकर पैग नहीं बनाता, वह तो निखालिस दूध में भांग मिलाता है. उसमें केसर और गुलाब जल का पुट मारता है. वह चियर्स बोलकर घूंट नहीं लेता, वह तो हर हर महादेव बोलकर भांग गटकता है.

बनारस की पहचान है भांग और ठंडई 

प्रोफेसर प्रेम दूबे आंखों की पुतलियां चौड़ी करते हुए कहते हैं, 'नेता क्‍या जाने कि बनारस में भांग नशा नहीं, वह तो यहां का दैहिक अनुष्‍ठान है. भांग शराब की तरह चरित्रहीन नहीं, यह तो आचरण प्रधान है. गुरु बनारसी से भांग और ठंडई का छूटना गंगा-जमनी तहजीब का छूटना है. भांग ठंडई से हटना सांप्रदायिक सद्भाव के एक हजार साल पुराने इतिहास से हटना है.

सो मौसम चुनावी भले ही हो बनारसी न भांग से मुंह मोड़ सकता है, न दारू से दिल जोड़ सकता है. अवधू गुरु न्‍यूज चैनलों का हवाला देते हुए विकास और समाजवाद की बात करते हैं.

उन्‍हें डपटते हुए छन्‍नू ओझा कहते हैं, 'गुरु बनारस को समाजवाद का कोई सिखाई. मार्क्‍स से चार शताब्‍दी पहले ही बाबा कबीर 'मांग-आपूर्ति' पर समाजवाद का फतवा जारी कर दिए रहें, भूल गए क्‍या गुरू.

'साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधू न भूखा जाए.' गुरू मोदीजी 'सबका साथ, सबका विकास' को आज समझे हैं, बनारस तो सौ साल पहले ही इसे आत्‍मसात कर लिया था.

छन्‍नू ओझा की बात पर सभी हामी भरते हुए घर के लिए निकल पड़ते हैं. फिलहाल जनभावना को पकाने में नाकाम नेता बनारसी पान खाकर बंद अक्‍ल का ताला खोलने की कोशिश में लगे हैं. और जीत-हार की चिंता की गठरी गंगा में डुबोकर आम बनारसी ठंडई के साथ चुनावी मौसम का मजा ले रहा है.