view all

1975 की याद दिलाती है यूपी में नेताओं की फिसलती जुबान

सियासतदानों की भाषा की शालीनता तार-तार होती नजर आ रही है

Ambikanand Sahay

यूपी सहित पांच राज्यों में हो रहे चुनावों के शोर में, सियासतदानों की भाषा की शालीनता तार-तार होती नजर आ रही है. नेताओं की बढ़ती जुबानी फिसलन जाने अनजाने हमें सन 1975 की याद दिला जाता है.

जब देश आपातकाल के भंवर फंसा हुआ था. उन्हीं काले दिनों में धर्मयुग पत्रिका के संपादक धर्मवीर भारती ने मुनादी शीर्षक के नाम से अपनी एक छोटी सी कविता लिखी थी. बेहद शालीन शब्दों से सजी इस कविता ने पूरे देश को ऐसा झकझोरा, मानो मरणासन्न अवाम में जान आ गई. गौर कीजिए, धर्मवीर भारती ने क्या लिखा जो जादू हो गया—


ख़लक ख़ुदा का, मुलुक बाश्शा का

हुकुम शहर कोतवाल का

हर ख़ासो-आम को आगह किया जाता है

कि ख़बरदार रहें

और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से

कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें

गिरा लें खिड़कियों के परदे

और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें

क्योंकि

एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी कांपती कमज़ोर आवाज़ में

सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है

भारती जी की इस मुनादी की गूंज चंद दिनों में ही पूरे देश में सुनी गई. जिस समय मोबाइल, इंटरनेट तो छोड़िए, फोन भी ना के बराबर मयस्सर थे.

उस वक्त लोगों ने हाथों हाथ और कानों कान इस कविता का पैगाम आम-ओ-खास तक पहुंचाया. धर्मवीर के शालीन, इंकलाबी शब्दों से तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी सरकार की चूलें हिल गई. सन् 1977 के आम चुनाव में इंदिरा सरकार को बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी. जी हां, ये है शालीन भाषा का कमाल !

यह भी पढ़ें: शाह-मोदी का मॉडल छीन लेगा अखिलेश-मायावती के कुर्सी का सपना?

खैर, आइए लौटते हैं मूल प्रश्न की ओर. यूपी चुनाव में जैसे जैसे प्रचार का शोर बढ़ा, नेताओं की बदजुबानी निम्न से निम्नतर स्तर पर उतरती दिखी.

फिसलती जुबान ने कसाब की एंट्री की

नेताओं के एक दूसरे पर निजी और व्यक्तिगत आक्षेप बार-बार शालीनता को मुंह चिढ़ाती रही. जुबानी फिसलन के बीच एक दूसरे को नए-नए नामों और उपमाओं के संबोधन में कुत्तों, गधों से लेकर कसाब तक की एंट्री होती दिखी.

जुबानी मर्यादा का उल्लंघन देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तक ने किया. पीएम मोदी ने अपनी रैलियों में ‘SCAM’ और बहन मायावती की ‘BSP’ को नई व्याख्या दी.

बदजुबानी की मची होड़ में अब तक भद्र रहे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का धैर्य भी चूकता नजर आया. पीएम मोदी और अमिताभ बच्चन को निशाना बनाते हुए उनकी जुबान पर ‘गदहा’ शब्द हावी हो गया.

‘बहनजी संपत्ति पार्टी’ के नामकरण से बिफरी मायावती ने जवाब में पीएम को ‘निगेटिव दलित मैन’ की संज्ञा दे डाली. बदजुबानी की रही सही कसर ‘कसाब’ किस्से ने पूरी कर दी.

आजमगढ़ में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने यूपी को ‘कसाब’ यानि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से मुक्त कराने का आह्वान् कर दिया. जिसका जवाब बिना वक्त गंवाए मायावती ने अंबेडकरनगर में शाह को कसाब से भी बड़ा आतंकी  बताकर दिया.

यह भी पढ़ें: कांग्रेस का भविष्य खतरे में फिर भी राहुल का इंतजार

अफसोस, चुनावी शोर में सिरफिरी जुबान की ये फेहरिस्त बहुत लंबी है. लेकिन, सवाल है कि इस नाम-उपनाम और अनोखी व्याख्याओं से भला किसका होगा? क्या जनता अमर्यादित भाषा की ऐसी आंधी से उद्वेलित होगी ?

इसका जवाब है- शायद नहीं. क्योंकि अगर अमर्यादित और अभद्र भाषण लोगों को झकझोरने की गारंटी होते. तो सन् 75 में की गई धर्मवीर की मुनादी और फिर दिनकर की याचना अब तक बेमानी साबित हो चुकी होती.

दिनकर जी ने कहा था-

दो राह समय के रथ को

घर-घर नाद सुनो

सिंहासन खाली कर दो

कि जनता आती है.

दरअसल, संयमित भाषा में सियासी दुश्मनों को पटखनी देने की कला कोई बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से बहुत हद तक सीख सकता है. यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश अपने पड़ोसी नीतीश से सियासी दांवपेंच भले ना सीखें. लेकिन चुनावी भाषा का संयम तो सीख ही सकते हैं.

बिहार चुनाव में नीतीश कुमार ने पीएम मोदी को संयमित भाषा में ही करारा जवाब दिया था. जबकि अमर्यादा और अभद्रता के मोर्चे पर पलटवार के लिए सहयोगी आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद को खुला छोड़े रखा. यह नीतीश बाबू की बेहद सफल रणनीति थी.

ये देश गांधी, जेपी और बुद्ध का है

आज के जहरीली चुनावी माहौल में भी हमें, खासकर नेताओं को ये नहीं भूलना चाहिए कि, ये देश बुद्ध, गांधी और जयप्रकाश सरीखे महामानवों का है. यहां शब्दों में भी अहिंसा बरती जाती है. शब्द को तो ब्रह्म ही कहा गया है.

दरअसल विनम्रता से ज्यादा शक्तिशाली और असरदार कोई चीज नहीं है. याद रखिए, तल्ख टिप्पणियों से अगर 4 वोट आते हैं तो 40 वोट बिदकते भी हैं.

वैसे तो हम जानते ही हैं कि आज के नेताओं में विद्वान कम ही पाए जाते हैं. लेकिन आश्चर्य तब होता है कि, ये नेतागण विद्वानों से राय क्यों नहीं लेते ? उनके पास संसाधनों की तो कोई कमी नहीं होती. यकीनन ऐसा लगता है कि, विद्वानों की जगह नेताओं को चमचे ज्यादा रास आते हैं.

छोड़िए, पुरानी बातों को. चुनाव रथ अब संत कबीर के पूर्वी उत्तर प्रदेश की ओर बढ़ चला है. समय है उनकी इन अमर पंक्तियों को दोहराने का...

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय |

औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय ||