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नेताओं के बिगड़े बोल: प्यादे सो फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय...!

रोजाना एक के बाद एक रैली में बोलने के लिए नई बातों का अकाल पड़ जाता है

Mukesh Kumar Singh

उत्तर प्रदेश के चुनावों में बीजेपी ने एक बार फिर से राम मंदिर के मुद्दे को हवा दी है. पार्टी के वरिष्ठ नेता विनय कटियार ने तो यहां तक कह दिया कि राम मंदिर के बगैर विकास, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दे भी बेमानी हैं.

कटियार ये भी कह चुके हैं कि राम मंदिर नहीं बना तो प्रचंड आंदोलन होगा. अगर उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनती है तो अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण ठीक उसी तरह से कराया जाएगा जैसे बाबरी ढांचे को गिराया गया था.


करीब महीने भर पहले विनय कटियार के बिगड़े बोल थे कि प्रियंका गांधी से कहीं ज्यादा सुंदर कई चेहरे बीजेपी के स्टार प्रचारक हैं. इसीलिए ये सवाल ज्यादा मौजूं है कि नेताओं के बिगड़े बोल के मायने क्या हैं?

विकास से भटका मुद्दा, आई राम मंदिर की याद

उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार की शुरुआत ‘विकास’ की जिस डुगडुगी को बजाकर हुई थी, वो चुनाव के आगे बढ़ने के साथ ही फाख्ता क्यों हो गई? परिवारवाद और गुंडाराज जैसे मुद्दों को पहले गरमाया गया, वो चुनाव के आगे बढ़ने के साथ ही विरोधियों के चरित्र हनन और व्यक्तित्व मर्दन के रूप में क्यों तब्दील हो गई?

यदि नेताओं के ऐसे तेवर आपको अखरते हैं, यदि आपको लगता है कि मौजूदा चुनाव में नेताओं की बयानबाजी या भाषणबोली लगातार स्तरहीन और अमर्यादित होती जा रही है तो आप खुद को सियासी तौर पर नादान, अबोध और अपरिपक्व मान सकते हैं, क्योंकि सच्चाई ऐसी कतई नहीं होती!

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सच तो ये है कि तमाम नेतागण वही बोल रहे हैं जैसा वो बुनियादी तौर पर सोचते और समझते हैं तथा बोलना चाहते हैं. आप ये भी गांठ बांध सकते हैं कि किसी भी पार्टी के बड़े नेता या स्टार प्रचारक की ज़ुबान कभी नहीं फिसलती!

दरअसल, नेता बनता ही वही है, और माना ही उसे जाता है जिसका उसकी वाणी पर संयम हो. इस लिहाज से कोई भी नेता अपरिपक्व या परिपक्व नहीं होता! सभी अपनी सियासी सहूलियत के मुताबिक ‘बुरा न मानो होली है’ की तर्ज पर असंख्य सच-झूठ गढ़ते एक-दूसरे का तियापांचा करते हैं. इसीलिए चुनावी मौसम में नेताओं के बेसुरे राग वैसे ही स्वाभाविक बन जाते हैं, जैसे बरसात में मेढ़कों की टर्रटर्र!

इसमें कोई शक नहीं कि SCAM (समाजवादी, कांग्रेस, अखिलेश, मायावती), श्मशान-कब्रिस्तान, गदहा और कसाब सभी ने मिलकर असली मुद्दों जैसे सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार वगैरह की आबरू लूट ली.

लंबे चुनाव प्रचार की वजह से नेताओं की लफ्फाजियां बहुत लंबी खिंच जाती हैं. रोजाना एक के बाद एक रैली में बोलने के लिए नई बातों का अकाल पड़ जाता है तो बेसिरपैर की बातों की पौ-बारह हो जाती है.

जनता की तालियां बटोरने का नया तरीका

नेताओं के बिगड़े बोल की सबसे बड़ी वजह ये है कि वोटिंग के चरणों के आगे बढ़ने के साथ ही राजनीतिक दलों को जनता के रूझान का फीडबैक मिलने लगता है. उनके पोलिंग एजेंट्स की रिपोर्टें बताने लगती हैं कि वोटरों ने ईवीएम मशीनों में किस चुनाव चिन्ह को तव्वजो दी है?

अपने आन्तरिक सर्वेक्षणों के आधार पर हरेक नेता नतीजों की आहट भांप लेता है. जनादेश का रुझान जिसके पक्ष में होता है उनकी भाषा संयत रहती है. जबकि विरोधी की बोली बौखलाहट, बदहवासी और चिड़चिड़ाहट साफ दिखने लगती है.

बड़ी रैलियों से हौसला तो बढ़ता है, लेकिन भीतर से मूड उखड़ा ही रहता है कि भीड़, वोटों में तब्दील क्यों नहीं हो रही?

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जनता की तालियां बटोरने के लिए भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाता है. जो छिछोरी बातों पर आसानी से मिल जाती है. यही छिछोरापन या स्तरहीनता, मीडिया में सुर्खियां पाती हैं तो नेतागणों को लगता है कि उनकी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कलेक्शन कर रही है.

फिर एक की लपलपाती जीभ को कतरने के लिए दूसरा भी उसी सुर का तीव्र स्वर थाम लेता है. इसी क्रम में अपने नेता के अमर्यादित होते शब्दों से कार्यकर्ताओं को उसके दुस्साहसी होने का अहसास और गुमान होने लगता है. लेकिन जनता पर ऐसी नौटंकियों का कोई असर नहीं पड़ता.

उल्टा जो जीत रहा होता है, उसकी जीत और पुख्ता होने लगती है, जबकि हार रही पार्टी का और बेड़ा गर्क हो जाता है.

मायावती अपने विरोधियों के लिए तू-तड़ाक वाली भाषा बोलने की अभ्यस्त रही है. इससे उनके सदियों से दबे-कुचले समर्थकों की हीन-भावना दूर होती है. उनके कलेजे को ठंडक मिलती है कि ऊंची जाति वाले दबंगों को भी उसकी नेता ठेंगे पर रखती है.

दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी जब मुसलमानों का संदर्भ देते हैं तो हिंदुत्ववादियों की रूह को चैन मिलता है. तीसरी ओर, राहुल गांधी जब समाज को जोड़ने और तोड़ने वालों की बात करते हैं तो मुसलमानों और प्रगतिशील लोगों का कांग्रेसी संस्कृति पर भरोसा बहाल होता है.

इस तरह, हरेक नेता और पार्टी की कुछ न कुछ अलग पहचान है. बाजारवाद की शब्दों की यही ‘यूनिक सेलिंग प्वाइंट’ यानी यूएसपी होता है.

भाषण से अंदाज लगा सकते हैं पार्टी की अंदरूनी खलबली का

चुनावी भाषणों में नेताओं के बिगड़ते बोल अहसास कराते हैं कि उनकी पार्टी का अंदरूनी हाल क्या है? जब गंभीर मुद्दों को व्यक्तिगत छींटाकशी से निपटाया जाए तो समझिए कि ऐसा करने वाला नेता अपनी खीज मिटाने के लिए परेशान है.

मसलन, यदि कोई नोटबंदी पर जनता को हुई परेशानियों का जिक्र करे और जवाब में दूसरा ये चर्चा नहीं करे कि परेशानी वास्तव में है भी या नहीं? तो कैसी, कितनी और क्यों है? बल्कि मुद्दे को भटकाने के लिए कहा जाए कि नोटबंदी की आलोचना करने वाले खुद की तकलीफ का रोना रो रहे हैं. क्योंकि वो खुद परिवारवाद और भ्रष्टाचार के पोषक हैं.

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भ्रष्ट भाषा की शुरुआत ऐसी ही बातों से होने लगती है. इसके बाद वो कहां का रुख लेगी, ये भगवान भी नहीं जानते? व्यक्तिगत हमलों का खेल एक-दूसरे को ललकारने और हल्की भाषा के जरिए उकसाने के लिए किया जाता है.

जैसे ही कोई यूपी वालों को अपना माई-बाप बनाता है, वैसे ही दूसरा याद दिलाता है कि उस गंगा मईया का क्या हुआ जिसके बुलाने पर आप आए थे, अब आपको उसकी दुर्दशा क्यों नहीं दिख रही? इसी बीच, किसी को किसी का ‘लेवल’ बेचैन कर देता है. ऐसे में रहीम के दोहे अच्छे-अच्छों का ‘लेवल फिक्स’ कर देते हैं –

  • जो बड़ेन को लघु कहै, नहिं रहीम घटि जाहिं. गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं.
  • अर्थात – बड़ों को छोटा कह देने से उनका बड़प्पन कम नहीं हो जाता. गिरिधर कृष्ण को जब मुरलीधर कहा जाता है तो क्या वो बुरा मानते हैं. इसीलिए औरों को कमतर आंकने से वो छोटे नहीं हो जाते.

    2. बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोलैं बोल. रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मम मोल.

    अर्थात – जो सचमुच बड़ी हैसियत वाले होते हैं, वो अपनी तारीफ़ ख़ुद नहीं किया करते. जैसे हीरा कब कहता है कि उसका दाम लाख रुपया है. यानी, सिर्फ़ अहंकारी लोगों में ही मुंह मियां मिट्ठू बनने की बीमारी होती है.

    3. जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय. पयादे सो फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाए.

    अर्थात– नीच प्रवृति के लोग जब जीवन में आगे बढ़ते हैं तो वो बहुत घमंडी हो जाते हैं. जैसे शतरंज के खेल में फर्जी बनते ही प्यादे की चाल टेढ़ी हो जाती है. यानी, जिन्हें मामूली कामयाबी अहंकारी बना देती है वो व्यक्ति निहायत घटिया होते हैं.