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यूपी चुनाव 2017: बाहरी बनाम भीतरी की बहस कितनी वाजिब?

अब समय आ गया है कि राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को अपने भारतीय होने के आधार पर वोट मांगने चाहिए

Nilanjan Mukhopadhyay

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को वाराणसी का गोद लिया हुआ बेटा कहा. इसके जवाब में गांधी परिवार के भाई-बहनों ने कहा कि न तो उत्तर प्रदेश को न ही इसके किसी शहर को बच्चे गोद लेने की जरूरत है क्योंकि इसके अपने बच्चों की तादाद बहुत अधिक है.

इसके बारे में यह बात बिना शक कही जा सकती है कि भारत की राजनीति के भविष्य को प्रभावित करने वाले इस चुनाव में बहस की ऐसी भाषा अजीब और अनुचित है. इस तरह के संवाद मसाला फिल्मों के नाटकीय दृश्यों में ही अच्छे लगते हैं.


कानून के मुताबिक भारत के किसी भी नागरिक को इस बात की पाबंदी नहीं है कि वे कहां से चुनाव लड़ें. न संसद के दोनों सदनों के लिए न ही राज्य के विधानमंडलों के लिए.

गांधी परिवार ने वहां से चुनाव लड़ा जहां के वे थे नहीं 

अनेक राजनीतिक नेताओं के उदाहरण सामने हैं कि वे ऐसे राज्यों से संसद में चुने गए थे, जहां न तो उनका जन्म हुआ था न ही वे वहां रहते थे.

प्रियंका गांधी के दादा-दादी जिन चुनाव क्षेत्रों के प्रतिनिधि थे, वे वहां के रहने वाले नहीं थे. भुला दिए गए फिरोज गांधी ने रायबरेली को अपनी राजनीति का आधार बनाया और उनकी मौत के बाद इंदिरा गांधी ने उस चुनाव क्षेत्र को अपना बनाया.

इंदिरा गांधी ने 1978 में अपनी राजनीतिक वापसी के लिए चिकमंगलूर क्षेत्र को चुना. करीब दो दशक बाद प्रियंका की मां सोनिया गांधी ने बेल्लारी से चुनाव लड़ने का फैसला किया.

वैसे भी, वाराणसी के मोदी के अपने सूत्र को जोड़ने के ऊपर सवाल उठाकर प्रियंका ने अपनी मां के भारतीय होने के अधिकार के दावे को भी सवालों के घेरे में ला दिया है.

महज कांग्रेस पार्टी में ही नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी में ऐसे नेताओं के उदाहरण हैं, जिन्होंने ऐसे चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ा जहां से उनका कोई निजी ताल्लुक नहीं था.

कई दिग्गजों को मिला अपने राज्य से बाहर पहचान

 

अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म ग्वालियर में हुआ, तब भी 1950 के दशक में वे यूपी के बलरामपुर में हुए उपचुनाव के माध्यम से राजनीति के परिदृश्य पर आए थे. उसके बाद उन्होंने अलग अलग शहरों से चुनाव लड़ा और वहां के प्रतिनिधि बने, जैसे ग्वालियर, विदिशा और लखनऊ. इसके अलावा वे राज्य सभा के सदस्य भी रहे.

लालकृष्ण आडवाणी नई दिल्ली और गांधीनगर दोनों जगहों से चुनाव जीतते रहे. सुषमा स्वराज की कभी कोई अपनी राजनीतिक जमीन नहीं रही. वे कभी एक राज्य से तो कभी दूसरे राज्य से चुनाव लड़ती रहीं. आखिरकार, उनको विदिशा में एक तरह से राजनीतिक आधार मिला.

ऐसे राजनीतिक लुढ़कते पत्थरों के ऊपर कोई अनगिनत पन्ने लिख सकता है जो कहीं टिके ही नहीं. ये एक चुनाव क्षेत्र से दूसरे चुनाव क्षेत्र में लुढ़कते रहे.

उदाहरण के लिए, जॉर्ज फर्नांडीज की मिसाल दी जा सकती है जिन्होंने मुंबई के ट्रेड यूनियन नेता के रूप में राजनीतिक पटल पर अपनी पहचान बनाई. लेकिन अपने राजनीतिक जीवन के बड़े भाग में वे बिहार के प्रतिनिधि के रूप में जाने जाते रहे.

बाहरियों की शरणगाह है राज्यसभा

 

बात सिर्फ लोकसभा की ही नहीं है बल्कि राज्य सभा में भी यह देखने में आया कि अनेक नेता ऐसे राज्यों से चुनकर आते रहे जिन राज्यों से उनका पहले का कोई नाता नहीं था.

मनमोहन सिंह एक दशक तक भारत के प्रधानमंत्री रहे और वे राज्यसभा में असम के प्रतिनिधि रहे. राज्य सभा के सदस्यों के बारे में सरसरी तौर पर देखने से इस बात की पुष्टि हो जा सकती है कि राज्य सभा ऐसे नेताओं के विश्राम स्थल के रूप में रहा है जो रिटायर हो चुके हैं. या इसलिए उनको इसका सदस्य बनाया गया क्योंकि वे लोकसभा का चुनाव जीत नहीं पाए थे.

नाम के आधार पर बनाए गए क्रम के मुताबिक बनाई गई राज्यों की सूची में आंध्र प्रदेश पहला राज्य है जिसका प्रतिनिधित्व सुरेश प्रभु करते हैं.

अंग्रेजी के ए अक्षर से आरम्भ होने वाला दूसरा राज्य असम है जिसका प्रतिनिधित्व मनमोहन सिंह के अलावा अमेठी के भूतपूर्व राजकुमार संजय सिंह भी करते हैं.

शरद यादव ने तीन दशक पहले अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत मध्य प्रदेश में जबलपुर से की थी, अब वे इसलिए राज्यसभा में बिहार का प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकि किसी और राज्य से लोकसभा में आ नहीं सकते.

स्मृति ईरानी और अरुण जेटली गुजरात के प्रतिनिधियों की सूची में हैं. प्रसिद्ध व्यापारी परिमल नाथवानी झारखण्ड से चुन कर आए. यह सूची अंतहीन है.

कई वजहों से लड़ते रहे हैं बड़े नेता दूसरे राज्यों से 

जहां तक लोकसभा की बात है तो बड़े नेता कई कारणों से अपने मूल राज्य के बजाए अलग राज्यों से चुनाव लड़ते हैं. एक तो उन्हें अपने राज्य में जीत का कोई भरोसा नहीं होता या किसी खास चुनाव के लिए वे ऐसा करते हैं.

कई बार सभी को हैरान करने के लिए भी राज्य को बदल लिया जाता है कई बार इस वजह से ऐसा होता है क्योंकि पार्टी को ऐसा लगता है कि उस खास नेता को किसी खास जगह से चुनाव लड़वाने से एक नए इलाके में पार्टी को फायदा हो सकता है.

2014 में मोदी का वाराणसी से लड़ने का फैसला इसी उद्देश्य से लिया गया था ताकि राज्य में बीजेपी के चुनाव प्रचार में जोश भरा जा सके. यह चाल बहुत सफल रही राज्य में पार्टी की मिली आशातीत सफलता के पीछे यह एक महत्वपूर्ण कारण रहा.

मोदी को लड़ने का हक था और इस संबंध में उनको किसी तरह की सफाई देने की कोई जरूरत नहीं लगती. चुनाव प्रचार के दौरान खुद को यूपी वाला कहने का उनका फैसला हैरान कर देने वाला है. क्योंकि एक बार कोई नेता प्रधानमंत्री बन जाता है तो वह पूरे देश का ‘प्रतिनिधि’ हो जाता है और उसको क्षेत्रीय भावनाओं से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए.

सबसे बढ़कर, इस साल के आखिर में गुजरात में चुनाव होने वाले हैं और यूपी से इस तरह संबंध जोड़ने की कोशिश का उल्टा असर भी पड़ सकता है.

'मिट्टी का बेटा' जैसी बात देती है अलगाव को जन्म 

परंपरागत रूप से ‘मिट्टी का बेटा’ की बात को विघटनकारी ताकतों द्वारा इसलिए उठाया जाता है ताकि लोगों के अंदर बैठी असुरक्षा की भावना को भुनाया जा सके.

शिव सेना और उसकी जैसी राजनीतिक शक्तियों के विकास में इसी भावना का योगदान है. इनकी राजनीति लोगों के अन्दर बसे इस डर के ऊपर चल रही है कि मूल निवासियों की कीमत पर बाहर वाले फल फूल रहे हैं.

अनेक अलगाववादी आंदोलनों के पीछे यही भावना काम करती रही है. असम आन्दोलन की शुरुआत ‘बांगला विरोध’ और ‘बिहारी विरोध’ के रूप में हुआ. वहां ऐसा माना जा रहा था कि जो स्थानीय लोग थे उनको विकास का लाभ तो नहीं मिल रहा था जबकि बाहर वाले फल फूल रहे थे.

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए जिम्मेदार नेताओं को किसी राज्य या शहर से निजी रिश्ता जोड़ने की कोशिश से बचना चाहिए. मोदी अगर वाराणसी के गोद लिए बेटे नहीं होते तो भी यूपी में अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार की बागडोर उनको ही संभालनी होती.

और अगर सच में शहर के लोगों ने प्रधानमंत्री को अपने में एक के रूप में देखना शुरू कर दिया है तो राहुल-प्रियंका को इसके ऊपर सवाल उठाने का कोई अधिकार नहीं है.

अब समय आ गया है कि राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को अपने भारतीय होने के आधार पर वोट मांगने चाहिए न कि यूपी वाला और बाहरी बनाम बिहारी के नारों के आधार पर. इसका 2015 के राज्य चुनाव में नकारात्मक असर हुआ था.

लेखक दिल्ली आधारित लेखक और पत्रकार हैं. इन्होंने नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स और सिख्स: द अनटोल्ड एगोनी ऑफ 1984 किताबें लिखी हैं.