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यूपी चुनाव 2017: जाति के गणित में कौन होगा पास और फेल?

राजनीतिक पार्टियों की रणनीति जाति और समुदाय को बांटकर ‘सियासी इंजीनियरिंग’ तैयार करती है.

Pratima Sharma

उत्तर प्रदेश की सियासत जातियों के ईर्दगिर्द ही घूमती रही है. तभी एक विशेष वर्ग की राजनीति ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को सत्ता का सिंहासन दिलाया. लेकिन उसमें भी गणित ये रहा कि दूसरी पार्टियों के वोटबैंक को साधा गया क्योंकि बिना उसके यूपी में सरकार बनाना मुमकिन नहीं था.


जाति का वोट ब्रेक

उत्तर प्रदेश के जाति गणित को समझें तो सवर्ण 18-20 प्रतिशत, ओबीसी 42-45 प्रतिशत, दलित 21-22 प्रतिशत और मुस्लिम 16-18 प्रतिशत है. सवर्णों में सबसे ज्यादा तादाद ब्राह्मणों की 8-9 प्रतिशत है. जबकि राजपूतों की 4-5 प्रतिशत और वैश्य की 3-4 प्रतिशत है.

बीजेपी का जाति वोट ब्रेक

यूपी की सियासत में जातीय समीकरणों के जाल को देखें तो इसमें चुनाव दर चुनाव किसी पार्टी का फायदा बढ़ता गया तो किसी का नुकसान होता चला गया. अगर बीजेपी की बात करें तो उत्तर प्रदेश में उसका वैश्य वोटबैंक सबसे ज्यादा था जो कि पांच साल में गिरा. वहीं ब्राह्मण, राजपूत और कुर्मी-कोइरी वोटों में भी भारी गिरावट हुई. हालांकि इसके पीछे एक वजह मायावती की सोशल इंजीनियरिंग भी मानी जाती है. बीएसपी ने साल 2007 में जातिगत समीकरणों में सबको चित कर दिया था.

साल 2007 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी के पास जाटव,पासी, बाल्मीकि और अन्य दलित की ताकत थी. लेकिन साल 2012 में बदलाव की बयार चली और इस वोट बैंक पर समाजवादी पार्टी सेंध लगाने में कामयाब हुई. साल 2012 के विधानसभा चुनाव में जाटव और बाल्मिकी समाज के अलावा अन्य दलितों का वोट बेस घटा.

कांग्रेस का वोट ब्रेक

कभी कांग्रेस का यूपी में एक छत्र राज हुआ करता था. लेकिन 1989 के बाद ऐसा ग्रहण लगा की धीरे धीरे कांग्रेस से सबका मोहभंग होता चला गया. यूपी में कांग्रेस की जमीन ऐसी दरकी कि वैश्य, मुस्लिम, दलित और राजपूत वोटरों ने हाशिए पर धकेल दिया. हालांकि साल 2012 में कांग्रेस को थोड़ी राहत मिली.

समाजवादी पार्टी का वोट ब्रेक

2007 और 2012 के चुनाव के नतीजों से साफ है कि इस बार भी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी की नजर 35 फीसदी वोट पर है क्योंकि साल 2012 और 2007 में इन दोनों ने 30 फीसदी वोट लेकर पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई थी.

समाजवादी पार्टी ने पिछले 10 साल में जातिगत समीकरणों को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई. साल 2012 में ब्राम्हण, राजपूत, जाटव और अन्य ओबीसी वोटों का ग्राफ बढ़ा.

राजनीतिक पार्टियों की रणनीति सामाजिक बंटवारे पर टिकी होती है जो जाति और समुदाय को बांटकर ‘सियासी इंजीनियरिंग’ तैयार करता है. उत्तर प्रदेश का समाजशास्त्र बताता है कि वहां के मतदाता पर साफ तौर पर सोशल इंजीनियरिंग का असर है. उन्हें जाति और समुदाय में बांटकर देखा जाता है. तमाम पार्टियों की रणनीति भी इसी सामाजिक बंटवारे पर आधारित होती है. इस खेल में बड़ी पार्टियों से लेकर छोटे दल तक शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश के चुनाव में भले ही चुनावी मुद्दे ला एंड ऑर्डर हों या फिर सांप्रदायिक दंगे, करप्शन, बेरोजगारी, महंगाई या विकास हों लेकिन सभी पार्टियां ये जानती हैं कि सिर्फ मुद्दों से चुनाव नहीं जीता जा सकता. इसलिए जातियों और धर्म का तिकड़म ही सत्ता के घुमावदार रास्ते को सीधा बनाता है. क्योंकि वोटर अक्सर भावनाओं में बहकर वोट देने का फैसला करता हैं.