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जात-पात-मजहब के कीचड़ में फंसा विकास का पहिया

जातीय समीकरण के शोरगुल में फंसे हैं काम, विकास और मजहब के मुद्दे

Amitesh

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में चर्चा विकास की हो रही है. अखिलेश बाबू अपने-आप को विकास पुरुष बताते नहीं थकते. बीजेपी नेता मोदी सरकार के विकास का ढिंढोरा पीटते नहीं थक रहे. बहनजी इन दोनों के विकास को खोखला बताकर इनकी हवा निकालने में लगी हैं.

तो सवाल यही है कि क्या विकास का पहिया केवल शोपीस के रूप में पूरे यूपी में घुमाया जा रहा है. लगता तो ऐसा ही है, क्योंकि सारी पार्टियों की रणनीति जाति और मजहब के इर्दगिर्द ही बनाई जा रही है.


बीजेपी की गोलबंदी की कोशिश

बीजेपी की चुनावी रैली

पहले बात अगर बीजेपी की करें तो पार्टी के रणनीतिकारों की तरफ से तरकश के हर तीर छोड़ने की कोशिश हो रही है जिससे गणित उनकी तरफ हो जाए.

ब्राह्मण और बनिया की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी ने अपने-आप को काफी हद तक बदला है. पिछले कुछ सालों में पार्टी के साथ पिछड़ी और दलित जाति के लोग भी जुड़े हैं. खास तौर से गैर-यादव पिछड़े तबके और गैर-जाटव दलित तबके को अपने पास लाने में बीजेपी काफी हद तक सफल रही है.

बीजेपी के पास पहले से ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर मतदाताओं का काफी हद तक समर्थन रहा है. अब इस नए तबके को साथ लाकर बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग के उस फॉर्मूले को फिर से खड़ा करने की कोशिश की है जिसे 90 के दशक में लोध नेता कल्याण सिंह ने खड़ा किया था.

बीजेपी के उस वक्त के थिंक टैंक गोविंदाचार्य की कोशिश और सूझबूझ की बदौलत ही बीजेपी ने उस वक्त लगभग 35 फीसदी आबादी वाली गैर-यादव पिछड़ी जातियों को अपने पाले में लाने की कवायद शुरू की थी. राम मंदिर आंदोलन के चलते हिंदुत्व के मुद्दे के सहारे पिछड़ी जातियां बीजेपी के साथ गोलबंद हो गई थीं.

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पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त भी ये सभी बीजेपी के साथ खड़ी दिख रही थीं. एक बार फिर से बीजेपी की कोशिश इन्हीं जातियों को साथ लेने की है.

उत्तर प्रदेश में कुर्मी, मौर्या, शाक्य, लोध, कश्यप, केवट, सैनी, कुम्हार, लोहार जैसी कई जातियों को साथ लाने में बीजेपी इस बार कामयाब होती दिख रही है. भले ही लोकसभा चुनाव की तरह इस बार गोलबंदी न हो लेकिन फिर भी बीजेपी के साथ इन पिछड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा खड़ा दिख रहा है.

दूसरी तरफ बीजपी की कोशिश गैर-जाटव दलित तबके को अपने साथ लाने की है. कोरी, पासी, खटिक, धोबी जैसी जातियों ने लोकसभा चुनाव के वक्त बीजेपी को एकतरफा वोट दिया था. पार्टी की कोशिश एक बार फिर से इन्हें अपने पास जोड़े रखने की है.

बीजेपी के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि इस बार लोकसभा की तरह मोदी लहर भी नहीं दिख रही है और दलित तबके के सामने मायावती का चेहरा भी दिख रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव के पहले तक गैर-जाटव दलित तबके ने बीएसपी का ही साथ दिया है.

बीजेपी ने हिंदुत्व का कार्ड भी इन चुनावों में खूब खेला है. जातीय समीकरण को अपने पास जोड़कर रखने के लिए बीजेपी ने हिंदुत्व के मुद्दे को भी जोर-शोर से उठाया है. खास तौर से मुस्लिम बहुल पश्चिमी यूपी में तो इस बार एंटी रोमियो स्क्वायड और यांत्रिक कत्लखाने बंद करने की बात कर ध्रुवीकरण की पूरी कोशिश भी की है.

सपा की सियासत

राहुल, अखिलेश का साथ

दूसरी तरफ, सपा-कांग्रेस की बात करें तो गठबंधन की तरफ से विकास की बात कही जा रही है. आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे से लेकर मेट्रो चलाने की बात को जोर-शोर से उठाया जा रहा है. लेकिन चुनावी चौसर पर जब बात आती है तो फिर वही पुराना फॉर्मूला.

कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सपा ने सबसे पहले मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की पूरी कोशिश है. अखिलेश की पूरी कोशिश है कि यादव-मुस्लिम गठजोड़ को फिर से कामयाब बनाया जाए. बाकी जगहों पर कुछ पिछड़ी जातियों में सेंधमारी और कांग्रेस को साथ लेकर चलने से सवर्ण जातियों का कुछ वोट भी शायद मिल जाए.

बीएसपी का पुराना फॉर्मूला

बहनजी की सभा

बीएसपी इस बार पुराने फॉर्मूले को एक बार फिर से मजबूत करने में लगी हैं. बीएसपी इस बार दलित तबके को पूरी तरह से अपने साथ जोड़े रखने में लगी है. पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त बीएसपी से गैर-जाटव वोट पूरी तरह से छिटक गए थे. इस तबके ने नरेंद्र मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट कर दिया था, इस बार बीएसपी गैर-जाटव कोरी, पासी, खटिक और धोबी जैसी जातियों को भी अपने पास फिर से जोड़ने में लगी हैं.

बीएसपी की कोशिश है दलित-मुस्लिम वोट बैंक को मजबूत बनाने की. मायावती ने 99 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े कर मुस्लिम तबके को साथ लाने की पूरी कोशिश भी की है. अपनी चुनावी रैलियों में तो मायावती खुलकर मुस्लिम समुदाय से सपा-कांग्रेस के बजाए बीएसपी के साथ आने की अपील करती हैं.

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मायावती की तरफ से  मुस्लिम समाज को इस बात का डर दिखाया जा रहा है कि सपा-कांग्रेस को वोट देने से मुस्लिम समाज को वोट बंट जाएगा. लिहाजा इस बार दलितों के साथ मिलकर उन्हीं की पार्टी को वोट दें तो बीजेपी को रोका जा सकता है.

यह हाल सभी पार्टियों का है. चुनावी मंच  से दिखाने के लिए विकास की बडी –बड़ी बातें तो करते हैं लेकिन, जब बात जमीन पर आती है तो सारे सियासी समीकरण जाति और मजहब के आधार पर गढ़े जा रहे हैं. जातीय समीकरण के इस शोरगुल में फिलहाल विकास की पुकार दब कर रह जाती है.