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यूपी चुनाव 2017: बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग से बनेगी बात?

छठें और सातवें चरण में वोटिंग का गवाह बन रहे पूर्वांचल में पूरा समीकरण एक्सट्रीमली बैकवर्ड जातियों पर निर्भर कर रहा है

Badri Narayan

यूपी का विधानसभा चुनाव अपने आखिरी चरणों में हैं. इन चुनावों का सातवां और आखिरी चरण यूपी के पूर्वांचल में है. सातवें चरण की वोटिंग 8 मार्च को होनी है. सारी राजनीतिक पार्टियां इस आखिरी चरण में पूरे दम-खम के साथ उतर गई हैं.

पूरे चुनाव के लिए प्रचार तो अपनी जगह है. लेकिन पार्टियों ने सोशल इंजीनियरिंग पर खास ध्यान दिया है. ये जान लेना जरूरी है कि छठें और सातवें चरण में वोटिंग का गवाह बन रहे पूर्वांचल में पूरा समीकरण एक्सट्रीमली बैकवर्ड जातियों पर निर्भर कर रहा है.


निर्णायक की भूमिका में हैं ईबीसी मतदाता

पूरे पूर्वांचल में कई छोटी-छोटी जातियां बिखरी हुई हैं. और साथ में मिलकर ये एक बड़ा वोटबैंक बनाती हैं. इन जातियों में नाई, बिंद, मल्हार, लोहार, पाल, राजभर, कुम्हार, चौहान, भड़भूजा (जिसे भुंजवा भी कहते हैं) एक बड़े वोट बैंक हैं.

ये जातियां पूर्वांचल के दूर-दूर के इलाके बलिया, गाजीपुर, मऊ गोरखपुर में फैली हुई हैं. अगर आंकड़ों के हिसाब से देखें तो, बिंद जाति की आबादी मिर्जापुर और गाजीपुर में लगभग 6-7 लाख है. वहीं राजभरों की संख्या मऊ, आजमगढ़, चंदौली में लगभग 12 लाख है.

इन जातियों की इतनी बड़ी आबादी स्पष्ट रूप से राजनीतिक पार्टियों का बड़ा लक्ष्य होगी. और सभी पार्टियां इसे अपने वोटबैंक में बदलना चाहेंगी.

बीजेपी ने इस दिशा में उल्लेखनीय काम किया है. पिछले दो सालों में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष अमित शाह इन जातियों का झुकाव बीजेपी की ओर मोड़ने में लगे हुए हैं और ये कहा जा सकता है कि उन्होंने अच्छा काम कर लिया है.

किस रणनीति पर चल रही है पार्टी

इस काम में पार्टी और शाह के साथ-साथ आरएसएस भी लगी हुई है. पार्टी इसके लिए कुछ खास रणनीतियों के तहत चलती है.

वो पहले इन जातियों को भावनात्मक रूप से खुद से जोड़ने के लिए इन जातियों की लोककथाओं और इतिहास से इनके नायकों की खोज करती है.

उनकी मूर्तियां बनवाती है. उनके नाम पर आयोजन करवाती है. इन नायकों के जरिए इन जातियों को खुद से जोड़ना आसान हो जाता है.

इसके साथ-साथ इन जातियों के लोगों को अपने संगठनों में पद देती है, जिम्मेवारियां देती हैं.

इससे ये सुनिश्चित होता है कि इन जातियों को पता हो कि इनके बीच से कोई उनका प्रतिनिधित्व कर रहा है. साथ ही उन्हें प्रतिनिधियों की कतार में लाने के लिए टिकट भी देती है.

जैसे, बीजेपी ने इन चुनावों के लिए सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर से अलायंस कर रखा है. ओमप्रकाश राजभर की पार्टी में मजबूत स्थिति राजभर समुदाय के लिए एक भरोसा हो सकता है.

फोटो: पीटीआई

कौन लगाएगा बेड़ा पार

वहीं बीजेपी ने सुहेल देव की मूर्ति तो बनवाई ही है, सुहेल देव एक्सप्रेस नाम से ट्रेन भी चलवाई है.

पार्टी ने कई छड़ी के चुनाव चिन्ह वाली पार्टी सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी से राजभरों को टिकट दिया है.

उसी तरह बिंद, चौहान खासकर निषादों को पार्टी लगातार खुद से जोड़ने की कोशिश कर रही है.

निषाद जातियां तो बीजेपी के लिए भगवान राम को नदी पार कराने वाले मल्लाह केवट से कम नहीं. वो भी इनसे ये चुनावी दरिया पार करने की आस लगाए बैठी है.

सब पार्टियां लगी हैं जोड़-तोड़ में

इस सोशल इंजीनियरिंग में बस बीजेपी ही नहीं दूसरी पार्टियां भी जोड़-तोड़ बिठाने में लगी हुई है.

बीएसपी का अपना दलित आधार है, जिस पर पार्टी मुख्य रूप से निर्भर करती है. और इसी आधार पर बीएसपी इन जातियों को अपना वफादार वोटर बताती है और सत्ता में आने के दावे करती है.

अखिलेश यादव की एसपी ने भी इन जातियों के कई उम्मीदवारों को टिकट दिया है. लेकिन बीएसपी और एसपी इन जातियों में टिकट बंटवारे तक रह गई हैं, वहीं बीजेपी की पूरी पूरबिया राजनीति इन जातियों के इर्द-गिर्द ही घूमती है.

बीजेपी इन छोटी और बिखरी-बिखरी जातियों को जोड़कर लंबे समय के लिए अपना वोट बैंक बना लेना चाहती है.

लेकिन ये इतना आसान नहीं है. पहले तो, इन जातियों की आबादी बहुत ज्यादा है. दूसरे ये इतनी बिखरी हुई हैं कि इन्हें संगठित कर पाना आसान नहीं है.

इसके बाद जो सबसे बड़ी समस्या आती है वो ये है कि इनमें से कई जातियां अपने क्षेत्र की डॉमिनेंट जातियों के प्रभाव में रहती हैं और वोट भी इन जातियों के प्रभाव में ही देती हैं.

जैसे, अगर किसी क्षेत्र में ओबीसी, ठाकुर या भूमिहार जैसी बड़ी जातियां हैं, तो इन जातियों का प्रभाव इन छोटी जातियों के वोटिंग पर असर डालेगा.

कितना आसान होगा ईबीसी को वोट बैंक में बदलना?

बिहार विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने कुछ ऐसी ही कोशिश की थी लेकिन बुरी तरह असफल रही थी. बिहार की पचपन जातियों को (जिन्हें पचपनियां कहते हैं) को बीजेपी अपने वोट बैंक में बदलने के लिए बेताब थी लेकिन ओबीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले लालू-नीतीश की जोड़ी के सामने ये रणनीति फेल रही.

इन जातियों का कैरेक्टर इनका पेशा तय करता है. मतलब ये जातियां सालों से अपने किसी पारंपरिक पेशे से जुड़े होते हैं. इन पेशों के जरिए ये जातियां इन बड़ी जातियों के साथ अंतर्संबधों से जुड़ी हुई हैं.

हालांकि वक्त के साथ ये जातियां अलग पेशा चुनकर इन जातियों से अलग मौजूदगी दर्ज करा रही हैं लेकिन अभी तक पूरी तरह से अलग नहीं हुई हैं. इसलिए कहना मुश्किल है कि इस बार भी ये जातियां आपस में मिलकर एक बड़े वोट बैंक के रूप में विकसित हो पाएंगी.

हालांकि, बीजेपी जिस तरह इस समीकरण बिठाने की जुगत में लगी हुई है, अगर वो कुछ जातियों जैसे, राजभर, मल्लाह और निषाद को भी जोड़ लेती है तो उसे फायदा ही होगा.