कुछ तस्वीरें आपके जहन से कभी नहीं मिटतीं. मसलन वो पल जब पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियांदाद ने 1986 में शारजाह में आखिरी गेंद पर छक्का मारकर भारत के हाथों से ऑस्ट्रेलेशिया कप को एक झटके में छीन लिया था.
जिन हिंदुस्तानियों ने वो छक्का देखा है वो चाहे कितने भी खेल प्रेमी हों वो उस पल को याद कर के आज भी कसमसा कर रह जाते हैं.
बाद में क्रिकेट पंडितों ने कहा, 'भारत में जूझकर मौके पर मार गिराने वाले किलर-इंस्टिक्ट की कमी है'.
1990 के दशक में बीजेपी के मार्गदर्शक लाल कृष्ण आडवाणी ने क्रिकेट की जबान के मुहावरों को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया.
बाबरी-मस्जिद के विध्वंस के बाद पार्टी जब यूपी, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश में हार गई तो आडवाणी बोले कि, 'बीजेपी में किलर-इंस्टिंक्ट की कमी है. बाद में एक प्रेस-कांफ्रेंस के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने भी आडवाणी की बात पर हामी भरी.
उन्होंने शरारती मुस्कान के साथ कहा था कि, 'पार्टी में उस किलर-इंस्टिंक्ट की कमी है जिसकी ओर आडवाणी जी ने इशारा किया था'.
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एक पुरानी कहावत है, 'मानव बलि नहीं होत है समय होत बलवान, भीलन लूटीं गोपियां वही अर्जुन वही बान'. अब बीजेपी कितनी भी हिंदूवादी पार्टी हो इस चौपाई में उसका कोई भरोसा है ऐसा कम से कम आज तो नहीं दिखता.
वर्तमान की बीजेपी और कोई कमी बेशी हो सकती है लेकिन किलर इंस्टिंक्ट की कोई कमी नहीं है. महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय के चुनावों में पार्टी की जोरदार जीत यही इंस्टिंक्ट दिखाती है.
दूसरा उदहारण उत्तर प्रदेश है
बीजेपी की किलर इंस्टिंक्ट और देखनी हो तो यूपी में झांकिए. पार्टी ने भाग्य भरोसे कुछ भी नहीं छोड़ा है. चुनावी लड़ाई में हर तरह के दांव को जायज माना जा रहा है.
यूपी में बीजेपी अपने प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को बहुत सोच-समझ कर चुनाव में तैनात कर रही है.
बीजेपी की चुनावी मशीनरी ने वोटरों को खींचने और बांधे रखने के लिए टेक्नोलॉजी को पूरी तरह दूह रही है.
इसका सबसे अच्छा उदाहरण दिया मुझे चुनाव की निगरानी कर रहे एक सरकारी अफसर ने. वोटिंग के दिन दोपहर बाद बीजेपी के लोगों ने व्हाट्स ऐप और फेसबुक जैसे जरियों से वोटिंग के लिए लंबी कतारों में खड़े खांटी मुसलमान दिखने वाले लोगों की तस्वीरें वायरल कर दीं. 'भागो मुसलमान वोट डाल रहे हैं' का नारा नया नहीं लेकिन तस्वीरों ने जो किया वो अफवाहें, फुसफुसाहटें और कसमें नहीं कर पा रही थी.
जात-पात में बंटा वोटर इस तस्वीर को देख कर केवल हिंदू बन गया. इसमें कोई शक नहीं कि चुनावी मुकाबला कीचड़-उछाल प्रतियोगिता में तब्दील हो गया है. लेकिन चुनाव-चर्चा में आई हद दर्जे की गिरावट के लिए सिर्फ बीजेपी के नेतृत्व को दोष देना एकदम गलत होगा. राहुल गांधी के खोखले मगर उकसावा देते चुनावी मुहावरे और अखिलेश यादव की 'गधे' जैसे बेलिहाज चुनावी बयानों ने बहस के स्तर को खूब गिराया.
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कब्रिस्तान और श्मशान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘कब्रिस्तान-श्मशान’ और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह का ‘कसाब’ का मुहावरा दरअसल, अपने विरोधी की ताल ठोंकती भाषा पर पलटवार था.
अगर आपको कोई शक हो तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के नेताओं के बयानों पर एक नजर दौड़ाइए. ज्यादा दिन नहीं हुए जब कपिल सिब्बल ने अमित शाह को भाषणों में ‘तड़ीपार’ कहना चालू कर दिया था.
‘सर्जिकल स्ट्राईक’ पर राहुल गांधी ने मोदी पर ‘खून की दलाली’ करने का दोष मढ़ा.
पुरानी बीजेपी झिझकती, सोचती और हिचकिचाती पर अब उसने जैसे को तैसा दे डाला. पलटवार छोड़ दीजिए अब किसी को पहला पत्थर मारने के लिए वो हाथ उठाने नहीं दे रही.
मिसाल के लिए, गौर कीजिए कि बीजेपी की चुनावी मशीनरी ने सूबे भर में गड़बड़ी की आशंका वाले मतदान केंद्रों की पहचान की. बूथ-कैप्चरिंग की आशंका से निबटने के लिए के लिए इन मतदान-केंद्रों पर बीजेपी ने अब तक के चार चरण के चुनाव में पर्याप्त संख्या में अपने जुझारु कार्यकर्ता तैनात किए हैं.
हालांकि, जिलों में अलग-अलग पदों पर तैनात नौकरशाहों की एक बड़ी तादाद समाजवादी पार्टी के एजेंट जैसा बरताव कर रही थी, लेकिन माना जा रहा है कि बीजेपी कार्यकर्ताओं की तैनाती गड़बड़ी को रोकने में बहुत कारगर साबित हुई.
बाहुबल पर भी बीस
जहां तक बाहुबल का सवाल है बीजेपी अपने विरोधियों पर इस मामले में भी बीस साबित हुई. गड़बड़ी की आशंका वाले मतदान-केंद्रों पर बीजेपी कार्यकर्ताओं की मजबूत टोली क्विक रिस्पांस टीम या कहिए उड़न दस्ते के समान काम कर रही थी.
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दरअसल, यह कहना गलत ना होगा कि बीजेपी सूबे का चुनाव बड़े व्यवस्थित तरीके से लड़ रही है. हालांकि, पार्टी नेतृत्व पर यह कहते हुए अंगुलियां उठीं कि उसने बाहर के उम्मीदवार चुनावी मुकाबले में उतारे हैं, लेकिन जीत की संभावना के आकलन के आधार पर बाहर के तकरीबन 140 उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारना एक बेहतरीन रणनीति साबित हुआ.
खबर है कि, इस रणनीति के कारण गैर-यादव ओबीसी वोटर बीजेपी के पक्ष में लामबंद हुआ है. ठीक इसी तरह पार्टी अपनी हिंदुत्ववादी छवि कायम रखने पर अड़ी रही और उसने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया.
चूंकि, हवा यह बनी है कि एसपी-कांग्रेस और बीएसपी मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में खींचने पर तुले हैं. सो पूर्वी यूपी में होने वाले अगले तीन चरण के चुनावों में बीजेपी को इस रणनीति से बेहतर फायदे की उम्मीद है.
गुजरात का नजीर
इन तमाम बातों से जो तस्वीर उभरती है उस पर गहरी निगाह डालें तो साफ पता चलता है कि पार्टी गुजरात की अपनी राजनीति को नजीर मानकर यूपी में भी उसी राह पर चल रही है.
मोदी की, 'एक हाथ से चोट मारो, दूसरे हाथ से दोस्त जुटाओ', की नीति पार्टी के लिए लगातार फायदेमंद साबित हुई है. 2007 के विधानसभा चुनाव से तुरंत पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रुप में नरेंद्र मोदी ने एक सख्त कदम उठाया.
बिजली का बकाया ना चुकाने और बिजली चोरी करने वाले किसानों की गिरफ्तारी हुई. इससे पटेल समुदाय नाराज हुआ लेकिन गैर-पटेल वोटर मोदी के पक्ष में खड़ा हो गया. साथ ही आदिवासी समुदाय के वोटर भी बड़ी तादाद में बीजेपी के पाले में आ गये.
ठीक इसी तरह नोटबंदी के फैसले ने यूपी के व्यापारी वर्ग को नाराज किया. यह वर्ग बीजेपी का परंपरागत समर्थक माना जाता है. लेकिन ढेर सारी कल्याणकारी योजनाओं के दम पर मोदी ने समाज के वंचित तबके के बहुत सारे मतदाता बीजेपी के पाले में कर लिए हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि बीजेपी ने ना सिर्फ अपना विस्तार किया है बल्कि उसके भीतर अब भरपूर किलर इंस्टिंक्ट भी है.
इसकी छाप यूपी के चुनावों पर साफ-साफ दिख रही है.