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कांग्रेस-एसपी गठबंधन: रस्मे उल्फत किसी सूरत से निभाए ना बने

यूपी चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन के बावजूद अखिलेश नहीं चाहते कि नतीजों में कांग्रेस कहीं से भी बड़ी बनकर उभरे

Sitesh Dwivedi

1945 में फिल्म आई थी हुमायूं, उसकी एक गजल बहुत मशहूर हुई थी. 'रस्मे उल्फत किसी सूरत से निभाए ना बने'. अब ये इत्तफाक ही है कि यूपी में सत्ता के लिए हमसफर बने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस दोनो दलों के नेता इसे गुनगुना रहे हैं.

राज्य में साइकिल के कैरियर पर बैठी कांग्रेस और गद्दी पर बैठी एसपी के बीच भी 'गठबंधन की रस्म भी किसी सूरत में निभती दिख नहीं रही'.


देश की सबसे पुरानी पार्टी का दर्द तो कई बार छलक भी चुका है. खुद कांग्रेस के यूपी प्रभारी गुलाम नबी आज़ाद अखिलेश पर वक्त बदलते ही बदल जाने का आरोप लगा चुके हैं. लेकिन एसपी के मुखिया और मुख्यमंत्री अखिलेश जानते हैं समय सब दर्द की दवा है. सो वह 'गठबंधन 300 सौ से ज्यादा सीटें जीतेगा' की भविष्यवाणी कर कांग्रेस की पीड़ा कम करने की कोशिश करते हैं. हालांकि, रिश्तों के पेंच हैं कि खुलते ही नहीं. टूटते-टूटते बचे गठबंधन में अब साथ प्रचार को लेकर 'बात नहीं बन पा रही है'.

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साथ प्रचार के एसपी के प्रस्ताव पर कांग्रेस ने कुछ खास सीटों की शर्त जोड़ दी है. इस पर एसपी की ओर से कुछ वैसी ही खामोशी है, जैसी 150 सीटों के कांग्रेस के प्रस्ताव पर थी. ये खामोशी एसपी की तरफ से अचानक पार्टी प्रत्याशियों की लिस्ट जारी करने के बाद टूटी थी.

कांग्रेस के झुकने का इंतजार

ऐसे में जहां एसपी कांग्रेस के एक बार फिर झुकने का इंतजार कर रही है. वहीं, साथ प्रचार को लेकर एसपी की चाहत को समझ रही कांग्रेस इस बार कुछ पाकर ही मानने की राह पर है.

दरअसल, पूर्व पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह की उदासीनता को देखते हुए एसपी चाहती है कि राहुल अखिलेश के साथ दर्जन भर रैली करें. जबकि, प्रियंका और डिंपल की भी कम से कम एक रैली हो. जिससे प्रदेश के वोटरों को एक नई तस्वीर दिखाई  जा सके.

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खुद एसपी भी इस तस्वीर के जरिए अपने उथल-पुथल भरे वर्तमान से निजात पाने की कोशिश में है. वहीं, राज्य में वजूद के संकट से गुजर रही  कांग्रेस की मंशा भी यही है. उनके रणनीतिकार प्रशांत उर्फ पीके तो नए नारे भी गढ़ चुके हैं. नारे भी ऐसे की खुद कांग्रेसी भी दबी जुबान में कहते हैं 'पीके हमारे लिए अब भी काम कर रहे हैं या वे भी साझा हो गए हैं'. लेकिन अपमान का घूंट पीकर गठबंधन में बंधी कांग्रेस 'साथ प्रचार' के लिए जाने से पहले 'कुछ चाहती है'.

कांग्रेस को 'कुछ भी' और नहीं देना चाह रही

उधर भविष्य की राजनीति देख रहे अखिलेश कांग्रेस को अब 'कुछ भी' और देना नहीं चाह रहे. दरअसल, सीटों के बंटवारे में बुरी तरह मात खाने के बाद कांग्रेस चाहती है कि उसे कुछ सीटें उसकी पसंद की मिल जाएं. खासकर उसके गढ़- अमेठी और रायबरेली में. इन सीटों से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी लोकसभा चुनाव लड़ते हैं.

कांग्रेस की मंशा यहां पर संगठन को जमीनी मजबूती देने की है. अमेठी में पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार स्मृति ईरानी से मिली टक्कर के बाद अपनी अजेय सीटों को लेकर कांग्रेस अभी से गोलबंदी करना चाह रही है. अभी तक इन सीटों पर कांग्रेस को सत्तारूढ़ एसपी से मदद मिलती रही है. लोकसभा चुनावों में एसपी ने अपने प्रत्याशी इन सीटों पर नहीं दिए थे. जबकि पार्टी के विधायक भी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की मदद करते थे.

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गठबंधन में फिलहाल एसपी की दी हुई 'खुरचन' पर बेमन से संतुष्ट कांग्रेस अमेठी, रायबरेली की कमजोर नस को ठीक करना चाह रहे हैं. लेकिन भविष्य को देख रहे अखिलेश यह नहीं चाहते.

कांग्रेस की कमजोर नस

अब जब समाजवादी पार्टी ने 2019 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के साथ लड़ने का एलान कर दिया है, ऐसे में अखिलेश कांग्रेस की इस कमजोर नस को दबा के ही रखना चाहते है. वह भी तब जब कांग्रेस का भविष्य मानी जा रही प्रियंका वाड्रा के अपनी मां की सीट से लड़ने की संभावना है.

एसपी इन सीटों पर कांग्रेस के लिए कोई राहत देने को तैयार नहीं है. पार्टी के प्रवक्ता गौरव भाटिया कहते हैं 'जो सीटें घोषित हो गई हैं, जहां हम जीतें है वहां परिवर्तन की बात बेमानी है'. इसके अलावा कांग्रेस  नोएडा, लखनऊ, गोरखपुर, बनारस, बुंदेलखंड जैसे इलाकों में जो उसके लिए प्रतीकात्मक रूप से महत्व रखते हैं, वहां की सीटों पर भी अपने प्रत्याशी चाहती है.

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राज्य में बड़े बदलाव के नारों और बड़ी तैयारियों से उतरने के बावजूद महज 105 सीटों पर लड़ने उतरी कांग्रेस उपस्थिति दर्ज करने के लिए कुछ अच्छे मुकाबले अपने पाले में चाहती है. लेकिन आंतरिक विद्रोह से उबर रहे अखिलेश कांग्रेस को ना तो कुछ और देना चाहते हैं. या शायद कुछ और देने की स्थित में ही नहीं हैं. ऐसे में कांग्रेस को एक बार फिर मन मार के झुकना होगा. समझने को कांग्रेस यूं भी समझ सकती है, कुछ तो मजबूरियां रही होंगी...