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ट्रिपल तलाक को आस्था का विषय कहना कपिल सिब्बल का गलत तर्क है

इस्लाम में तीन तलाक की शुरुआत महिलाओं की हिफाजत के मकसद से हुई थी

Sandipan Sharma

तीन तलाक के मसले पर कपिल सिब्बल का तर्क है कि यह मुस्लिम समुदाय की आस्था का मामला है, ठीक वैसे ही जैसे हिंदू समुदाय के लिए राम जन्मभूमि आस्था का विषय है.

यह तर्क कोई और देता तो निश्चित ही उसकी हंसी उड़ाई जाती लेकिन इस बात का क्या कीजिएगा कि यह तर्क कपिल सिब्बल पेश कर रहे हैं. जो देश के जाने-माने वकील तो हैं ही, यूपीए सरकार में कानून मंत्री और मानव संसाधन मंत्री का भी ओहदा संभाल चुके हैं.


पल भर के लिए मान लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट कपिल सिब्बल की दलील मंजूर कर लेता है, मान लेता है कि आस्था के विषय को संवैधानिकता के ऊपर माना जाना चाहिए, तो फिर ऐसे में क्या होगा?

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ऐसा मान ले तो कपिल सिब्बल के लिए मुंह छिपाने की भी जगह नहीं बचेगी क्योंकि फिर यही फार्मूला अयोध्या के मसले पर भी लागू होगा, वहां भी हिंदुओं की आस्था को संवैधानिकता पर तरजीह देते हुए मंदिर का निर्माण किया जाएगा.

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दरअसल हिंदुत्व ब्रिगेड का तर्क भी यही है. बीजेपी और इसकी भगवा ब्रिगेड ने हमेशा यही तर्क दिया है कि मंदिर का निर्माण राष्ट्रीय आस्था का प्रश्न है, कोई कानून का मामला नहीं.

तीन तलाक का चलन ज्यादातर इस्लाम के सुन्नी संप्रदाय में 

कपिल सिब्बल और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के साथ दिक्कत यह है कि उनकी दलील गलत, असंगत और अमर्यादित है. ऐसी दलील पेश कर वह इस्लाम के मकसद को ही चोट पहुंचा रहे हैं. कुप्रथाओं और गलत धारणाओं को मजबूत कर रहे हैं और ऐसा कर के अपने आलोचकों को सही साबित कर रहे हैं.

तीन तलाक पर कपिल सिब्बल की दलील गलत और अमर्यादित है

मिसाल के लिए जरा इस दलील पर गौर कीजिए जिसमें कहा गया है कि तीन तलाक का प्रचलन उतना ही पुराना है जितना की इस्लाम. तीन तलाक का चलन ज्यादातर इस्लाम के सुन्नी संप्रदाय में है.

चलन के मुताबिक कोई भी मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नियों से तीन बार तलाक बोल कर शादी तोड़ सकता है. सुन्नी संप्रदाय के इस खास चलन की तरफदारी में कपिल सिब्बल ने दलील दी कि तीन तलाक की बात हदीस में कही गई है और पैगंबर मुहम्मद साहब के वक्त में तीन तलाक की प्रथा अमल में आ चुकी थी.

तीन तलाक को गैर-कानूनी ठहराने की एक याचिका पर सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस दलील की बड़ी कारगर काट पेश की. देश के चीफ जस्टिस जे एस खेहर ने अपने हाथ में कुरान उठाए हुए इसकी आयतों को पढ़ा और कहा कि 'इस मुकद्दस किताब में कहीं भी तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) का जिक्र नहीं है.'

चीफ जस्टिस ने कहा कि '...तलाक-ए-बिद्दत का कुरान में कहीं भी जिक्र नहीं है. हम सिर्फ इस तरफ आपका ध्यान खींचना चाहते हैं क्योंकि आपको पता होना चाहिए जो कुछ यहां हो रहा है उसे हम भी जानते हैं और ऐसा नहीं है कि हम समझ नहीं पा रहे.'

एआईएमपीएलबी और उसके वकील यह नहीं देख पा रहे कि तीन तलाक के चलन को इस्लामी आचरण बताकर उचित ठहराने से इस्लाम के उन बुनियादी उसूलों की हानि होती है जिसमें शादीशुदा महिलाओं को बहुत से अधिकार दिए गए हैं.

कई विद्वानों ने इस बात की तरफ ध्यान दिलाया है कि इस्लाम में विवाह को स्त्री और पुरुष के बीच हुआ एक करार माना जाता है. पूरी कोशिश की गई है कि दोनों पक्ष में से कोई एकतरफा इस करार को तोड़ना चाहे तो ऐसा कर पाना उसके लिए बहुत मुश्किल साबित हो.

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तीन तलाक वाले अदालती मुकदमे में मशहूर वकील सलमान खुर्शीद को एमीकस क्यूरे (किसी मामले में कोर्ट द्वारा नियुक्त एक तटस्थ सलाहकार) बनाया गया है. सलमान खुर्शीद ने सुप्रीम कोर्ट का ध्यान इस बात की तरफ दिलाया कि इस्लाम में विवाह-संबंध की समाप्ति के नियम बड़े कठोर हैं.

अगर कोई पुरुष अपनी पत्नी को तलाक देना चाहता है तो उसे तलाक की अपनी मर्जी का इजहार करने के बाद तीन महीने तक इंतजार करना होता है.

इंतजार की अवधि को इद्दत कहते हैं. बीच के इस समय में सुलह-समझौते और रिश्ते पर फिर से गौर करने का अवसर होता है. इद्दत की अवधि गुजर जाने के बाद भी कोई पुरुष विवाह तोड़ने पर आमादा हो तो वह अपनी पत्नी से अलग हो सकता है. लेकिन इस सूरत में उसे पत्नी को मेहर की रकम देनी होगी जो उसने शादी के दिन कबूल किया था.

तलाक के बाद मुस्लिम पति को पत्नी को मेहर के तौर पर तयशुदा रकम देनी होती है

तलाक देने के बाद पत्नी को एक तयशुदा रकम और जेवरात देने होंगे

इस्लाम के कई विद्वानों का कहना है कि कोई पुरुष एक बैठकी में चाहे लाखों बार तलाक-तलाक कहे लेकिन इसे इद्दत की अवधि की शुरुआत ही माना जायेगा. (यह प्रथा महिलाओं के प्रति नाइंसाफी जान पड़ सकती है लेकिन यह एक अलग मसला है.

बाकी कई धर्मों के विपरीत दरअसल इस्लाम में महिलाओं को बहुत से अधिकार दिए गए हैं. मेहर की प्रथा के जरिए महिला को एक हद तक आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने की कोशिश की गई है. मेहर एक तरह का करार है. इस करार के मुताबिक अगर पति अपनी पत्नी से तलाक लेता है तो उसे पत्नी को एक तयशुदा रकम और जेवरात देने होंगे.

विधवा स्त्री को पुनर्विवाह की मंजूरी है बल्कि कहना चाहिए कि विधवा विवाह को बढ़ावा दिया गया है. पैगंबर मुहम्मद साहब ने खुद अपने से कई वर्ष बड़ी एक विधवा स्त्री से विवाह किया था. बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी का अधिकार दिया गया है.

इस्लामी विषयों के मशहूर विद्वानों की दलील है कि कुरान में कहीं भी तलाक का जिक्र नहीं है. यहां तक कि पैगंबर मुहम्मद साहब ने भी तलाक को खराब बताया है, कहा है कि अगर कोई पुरुष तीन दफे भी तलाक कहे तो भी यह एक तलाक कहने के बराबर होगा और यही माना जायेगा कि इद्दत की तीन माह की अवधि की शुरुआत हुई है.

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संयोग देखिए कि खलीफा उमर के समय में तीन तलाक को शादी के रिश्ते के खात्मे के एक जरिये के तौर पर मंजूर किया गया. उस वक्त असल इरादा महिलाओं की हिफाजत का था कि पुरुष पत्नी को छोड़ने के मामले में अपनी मनमर्जी ना चला सकें. विद्वानों का मानना है कि खलीफा उमर के वक्त मुस्लिम पुरुषों ने तलाक को एक मजाक बना डाला था.

महिलाओं को दुष्चक्र से बचाने के लिए तीन तलाक को मिली मंजूरी

पुरुष कई दफे तलाक-तलाक कहने के बावजूद अपनी पत्नी के साथ फिर से रहने लग जाते थे. इससे महिलाएं एक दुष्चक्र में फंसी रह जाती थीं. अलगाव और सुलह के दुष्चक्र से निकल पाना उनके लिए मुश्किल था. खलीफा उमर ने महिलाओं को इस दुष्चक्र से उबारने के लिए तीन तलाक को मंजूरी दी.

कपिल सिब्बल गैरकानूनी चलन का समर्थन कर रहे हैं

तीन तलाक की शुरुआत महिलाओं की हिफाजत के मकसद से हुई थी लेकिन समय बीतने के साथ यह प्रथा महिलाओं से गैर-बराबरी और नाइंसाफी के बर्ताव का आसान औजार साबित हुई है.

इस प्रथा का पक्ष लेकर एआईएमपीएलबी और कपिल सिब्बल एक गैर कानूनी चलन का समर्थन तो कर ही रहे हैं. साथ ही इस्लाम को रुढ़िपसंद और महिला-विरोधी जताते हुए उसकी मूल भावना को भी चोट पहुंचा रहे हैं. इस्लाम के आलोचक इस धर्म पर अक्सर यही आरोप लगाते आए हैं.

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तीन तलाक के चलन को आस्था का विषय बताकर जायज ठहराने की कोशिश कर कपिल सिब्बल हिंदुत्व ब्रिगेड के हाथ में एक ऐसा तर्क थमा रहे हैं जिसकी काट कर पाना उनके मुवक्किल के लिए नामुमकिन साबित होगा.