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तीन तलाक: राजनीतिक खेल या मुस्लिम महिलाओं का सशक्तीकरण?

यूपी विधानसभा चुनाव में मुस्लिमों का वोट हासिल करने के लिए राजनीतिक पार्टियों ‘तीन तलाक’ का विवादित मुद्दा उठा रही हैं

Ghulam Rasool Dehlvi

माना जा रहा है कि यूपी विधानसभा चुनाव में पढ़े-लिखे मुस्लिम वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए बीजेपी ‘तीन तलाक’ के विवादित मुद्दे को इस्तेमाल कर रही है.

हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने ऐसे संकेत दिए हैं कि विधानसभा चुनावों की प्रकिया खत्म होने के बाद सरकार 'तीन तलाक पर बैन लगाने के संबंध में महत्वपूर्ण फैसला कर सकती है'.


तीन तलाक के संवेदनशील धार्मिक विषय पर 24 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के महोबा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार मुखर हुए थे. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि तीन तलाक को लेकर राजनीति नहीं की जानी चाहिए. साथ ही सांप्रदायिक आधार पर मुस्लिम महिलाओं के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए. इस तरह मुस्लिम महिला सशक्तीकरण के मुद्दे को प्रधानमंत्री ने पहली बार इतनी गंभीरता से उठाया.

मोदी के भाषण में सबसे उल्लेखनीय बात यह रही कि इस बहस में शामिल होने वाले सभी राजनेताओं की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि 'तीन तलाक को राजनीतिक और सांप्रदायिक मुद्दा बनाने के बजाय कुरान के जानकारों को बैठाकर इस पर सार्थक चर्चा करवाएं.'

दिलचस्प बात यह है कि बहुत से मुस्लिम लीडरों ने प्रधानमंत्री के इस बयान को 2017 का चुनावी बयान करार दिया है. एक तरफ पीएम मोदी यह कह रहे हैं कि 'चुनाव और राजनीति अपनी जगह पर होती है. लेकिन भारतीय औरतों को उनका हक दिलाना संविधान के तहत हमारी जिम्मेदारी होती है'. जबकि इस बयान पर मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा तबका कड़ी प्रतिक्रिया दर्ज कर रहा है.

सरकार के खिलाफ आंदोलन

एक बैठक में कुछ मुस्लिम नेताओं ने केंद्र सरकार को इस मामले से दूर रहने की चेतावनी दी. साथ ही खबरदार किया है कि यदि सरकार ने अपना रवैया नहीं बदला तो उसके खिलाफ आंदोलन छेड़ा जाएगा.

बहरहाल प्रधानमंत्री का यह संकल्प कि ‘अब मुस्लिम बहनों के अधिकार का हनन नहीं होने दिया जाएगा. महिलाओं को उनका हक दिलाना उनकी सार्वजनिक जिम्मेदारी है.' अपने आप में एक कठिन परिश्रम है.

हर धर्म की महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार पाने में सदियां लग गईं. लेकिन पूर्ण लैंगिक इंसाफ पाने के लिए अब तक संघर्ष जारी है. इस वैश्विक संघर्ष में व्यस्त कई मुस्लिम विद्वानों और कुरान के ज्ञाताओं के अनुसार मुस्लिम समाज में महिला सशक्तिकरण की राह में सब से बड़ी बाधा धार्मिक उपदेशों की कट्टर व्याख्या है.

निसंदेह आज ‘इस्लामी शरीयत’ के चोले में एक ऐसी पुरुषवादी विचारधारा भी प्रचलित है जिसके कारण महिला अधिकार का हनन जारी है. इस विचारधारा में महिलाओं को मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है.

पुरुषवादी सोच का नतीजा

वर्तमान समय में तीन तलाक का मसला, शौहर का अनावश्यक दूसरा, तीसरा तथा चौथा निकाह और महिलाओं को अपनी मर्जी से इबादत करने की अनुमति न देना, यह सब इस्लाम नहीं बल्कि पुरुषवादी सोच का नतीजा है. जिसके अंतर्गत महिला अधिकारों का खुला हनन हो रहा है.

इस्लाम के नाम पर चल रहे कट्टर धार्मिक संगठन जैसे तालिबान, आईएस (दाएश) और बोको हराम ने पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक, सीरिया और नाइजीरिया में महिलाओं को दूसरे नंबर का दर्जा तो दे ही दिया है. लेकिन दुखद स्थिति यह है कि भारत जैसे प्रगतिशील देश में भी आज ऐसी विचारधाराएं किसी न किसी रूप में प्रचलित हैं. जो यह प्रश्न उठती हैं कि मुस्लिम महिला को पुरुषों के समान अधिकार है या नहीं?

कुरान तो स्पष्ट रूप से साबित करता है कि इस्लाम में पुरुष और महिला एक दूसरे के समान हैं. महिलाएं अपने सामाजिक सशक्तिकरण और धर्म से संबंधित दायित्वों, दोनों दृष्टि से बराबर हैं. कुरान में है कि: 'ऐ लोगों! अपने ईश्वर से डरो, जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी जाति का उसके लिए जोड़ा पैदा किया और उन दोनों से बहुत से पुरुष और स्त्रियां फैला दी' (4:1).

महिला अधिकार के हनन का कारण

दरअसल कुरान सामाजिक व्यवस्था में गुथे हुए उन सभी पारंपरिक पुरुषवादी रीति-रिवाजों की मनाही करता है जो महिला अधिकार के हनन का कारण बनते हैं. इस्लाम से पूर्व अरब में माता-पिता अक्सर अपनी बेटियों को जमीन में जिंदा दफन कर देते थे. क्योंकि अरब जगत में बेटी का जन्म परिवार के लिए बुरा शगुन माना जाता था.

कुरान ऐसे ही अरबों की निंदा करते हुए कहता है: 'और जब उनमें से किसी को बेटी की शुभ सूचना मिलती है, तो उसके चहरे पर कलौंस छा जाती है और वह घुटा-घुटा रहता है. जो शुभ सूचना उसे दी गई वह (उसकी दृष्टि में) ऐसी बुराई की बात उत्पन्न हुई जिसके कारण वह लोगों से छिपता फिरता है और [सोचता है] कि अपमान सहन करके उसे रहने दे या उसे मिट्टी में दबा दे. देखो, कितना बुरा फैसला है जो वे करते हैं!' (कुरान 16: 58-59)

विडंबना यह है कि सभ्यता, आर्थिक विकास और शिक्षा के फैलाव के बावजूद आज भी दक्षिण एशिया में विशेषकर हिंदू समाज में बेटी के जन्म के साथ ‘कलंक’ शब्द जुड़ा हुआ है.

जहां तक मुस्लिम समाज का संबंध है, बेहतर शिक्षा और रोजगार के परिणाम स्वरूप महिला सशक्तिकरण के सामाजिक ढांचे को बदलने की कोशिश जारी तो है. लेकिन कुरान में बताई गई लैंगिक समानता के स्तर तक पहुंचने में जो चीज बाधा है वो है ‘शरीअत’ के नाम पर फैलाई जाने वाली पुरुषवाद पर आधारित इस्लाम की मनमानी व्याख्या.

चारदीवारी तक सीमित रखने का रिवाज

जहां एक तरफ देश में हॉनर किलिंग, जबरन शादी तथा संस्कृति या सामाजिक रूढ़ियों के नाम पर महिला को घर की चारदीवारी तक सीमित रखने का रिवाज जिंदा है. वहीं, दूसरी ओर महिला सशक्तिकरण के खिलाफ ऐसे फतवे भी सामने आ रहे हैं जिनका वास्तव में इस्लाम से कोई संबंध नहीं है.

जिस तरह पाकिस्तान के आदिवासी इलाकों में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. ऐसा लगता है भारत में भी इस्लाम के नाम पर रुढ़िवादी और पतनशील विचारधारा का प्रभाव तेजी से काम करने लगा है.

महिला अधिकार के बारे में कुरान के व्यापक दृष्टिकोण के विपरीत एक नई शरीअत की व्याख्या की जा रही है. उदहारण के तौर पर हाल में होने वाली कुछ घटनाएँ उल्लेखनीय हैं.

देश में देवबंदी विचारधारा का प्रमुख इस्लामी शिक्षण संस्थान दारुल उलूम देवबंद ने कुछ समय पहले यह फतवा जारी किया कि नौकरीपेशा औरत की कमाई शरीअत की नजर में 'नाजायज और हराम' है. देवबंद के उलमा के अनुसार ऐसी जगहों पर औरतों का काम करना इस्लाम के खिलाफ है जहां औरत और मर्द एक साथ काम करते हों.

सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का जरिया

सहारनपुर में मौजूद इसी मदरसे के मौलवियों ने हाजी अली दरगाह में महिला प्रवेश के लिए संघर्ष कर रहीं मुस्लिम महिलाओं के अभियान को सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का जरिया बताया था. यह फतवा जारी किया था कि 'ऐसी दरगाहें जहां चादरें चढ़ाई जाती हैं और कव्वाली हो रही होती है, वहां महिलाओं का जाना तो इस्लाम के खिलाफ है ही, मर्दों का भी जाना जायज नहीं'.

लेकिन इसे विडंबना ही कहिए कि देवबंद से अलग विचारधारा रखने के बावजूद कुछ बरेलवी उलमा भी पुरुष वर्चस्ववाद की कट्टर दलील को स्वीकार कर रहे हैं. उन्होंने इस्लामी शास्त्र की कुछ किताबों का हवाला देते हुए यह तर्क दिया कि 'किसी सूफी के मजार के करीब भी महिलाओं का प्रवेश इस्लाम में महापाप है'.

हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर दरगाह के पुरुषवादी संचालनकर्ताओं ने जो हंगामा शुरू किया था. मुंबई हाई कोर्ट ने उसे चैलेंज करते हुए यह सवाल किया कि आखिर 'दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध कुरान में कहां से साबित है? जब मौलवी इसे इस्लामी सूत्रों द्वारा सिद्ध न कर सके, तो उन्होंने ये तर्क दिया कि दरगाह में जाने से मनाही का मकसद महिलाओं की सुरक्षा है.

इस्लाम की रूह के खिलाफ

हाजी अली बोर्ड के तर्कों के जवाब में कई प्रगतिशील इस्लामिक विद्वानों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कुरान या हदीस में ऐसा कहीं नहीं मौजूद है कि महिलाएं ऐसे स्थानों पर नहीं जा सकतीं जहां सूफी संतों को दफनाया गया है. बशर्ते वे ऐसा कोई काम न करें जो अरब के जाहिली रिवाजों की तरह इस्लाम की रूह के खिलाफ हो. उन्होंने यह तर्क दिया कि जब स्वयं पैगंबर मोहम्मद (स.अ) के मजार में दाखिल होने पर महिलाओं पर प्रारंभिक इस्लामी इतिहास में भी पाबंदी नहीं थी. तो फिर आज सऊदी अरब की नक्काली करते हुए सूफी दरगाहों के भीतर महिलाओं को कैसे रोका जा सकता है?

देर आयद दुरुस्त याद. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब दरगाह ट्रस्ट इसके लिए राजी हो गया है कि पुरुषों की तरह महिलाएं भी हाजी अली दरगाह के मुख्य हिस्से तक जा सकेंगी.

एक अंग्रेजी अखबार के अनुसार दरगाह मैनेजमेंट की तरफ से वकील गोपाल ने सुब्रमण्‍यम सुप्रीम कोर्ट के सामने कहा था कि उन्‍होंने मैनेजमेंट को इस बात पर सहमत कर लिया है कि वो एक मैकेनिज्‍म बनाएं ताकि मामले को सुलझाया जा सके.

अब दरगाह ट्रस्ट के जिम्मेदारों ने सर्वोच्च न्यायालय से कहा है कि वह दरगाह के अंदर महिला श्रद्धालुओं की एंट्री के लिए एक अलग मार्ग का निर्माण कर रहे हैं.

शरीयत में अदालत का हस्तक्षेप

भारतीय समाज में मुस्लिम महिला विकास को निश्चित बनाने के लिए हमें कुरान की वास्तविक शिक्षाओं को उन रूढ़िवादी मुस्लिम रिवाजों पर प्राथमिकता देनी होगी. जो महिला सशक्तिकरण के खिलाफ पक्षपात से भरी हुई हैं. मुसलमान उन सभी भारतीय कानूनों का समर्थन करें जो कुरान के मूल भावना से मेल खाते हुए भारतीय समाज में मुस्लिम महिला के स्थान को सिद्ध करते हैं.

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का यह कहना की 'देश में इस समय मुसलमानों को बेवजह परेशान किया जा रहा है और शरीयत में अदालत हस्तक्षेप कर रही है'.

भारतीय आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि, 'यह कहना उचित नही है कि इस्लाम में महिलाओं के लिए आध्यात्मिकता में बराबर का दर्जा नहीं. मैं मुसलमान नहीं हूं, लेकिन मुझे इस्लाम का अध्ययन करने का भरपूर अवसर मिला. कुरान में एक भी ऐसी आयत नहीं है जो इस तरह की बात कहती हो. वास्तव में कुरान यह सिद्ध करता है कि महिलाओं में भी आध्यात्मिकता होती है'.

समानता का अधिकार मिलना चाहिए

महोबा में ‘तीन तलाक’ के मुद्दे पर प्रधानमंत्री के भाषण का सबसे महत्वपूर्ण अंश यह प्रश्न था कि आज जबकि देश की कुछ पार्टियां वोट बैंक की भूख में 21वीं सदी में भी मुस्लिम बहनों से अन्याय करने पर तुली हैं, क्या महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं मिलना चाहिए?'

लेकिन यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि महिला अधिकार के हनन को केवल मुस्लिम समुदाय से जोड़ कर नहीं देखा जाए. बल्कि हिंदू समाज में प्रचलित उन पैतृक व्यवस्थाओं की भी खुल कर निंदा की जाए जो स्त्री जाति से द्वेष को बढ़ावा देती हैं. ‘तत्काल तलाक’ के साथ-साथ कन्या भ्रूण हत्या की भी कड़ी निंदा की जाए. इस तरह देश में महिला अधिकारों के मुद्दे को एक नया आयाम दिया जा सकता है और राजनीति के मौजूदा दुष्चक्र से ऊपर उठाया जा सकता है.

(लेखक इस्लामी मामलों के जानकर, कुरान व हदीस के ज्ञाता एवं जामिया मिलिया इस्लामिया में सेंटर फॉर मीडिया एंड गवर्नेंस में रिसर्च स्कॉलर हैं. ईमेल: grdehlavi@gmail.com)