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पंजाब चुनाव 2017: अकालियों की किस्मत बदल सकता है डेरों का समर्थन

पंजाब में त्रिकोणीय चुनावी मुकाबले ने सभी बड़े नेताओं का भरोसा हिलाया

Jagtar Singh

पंजाब में पहली बार हुए त्रिकोणीय चुनावी मुकाबले ने सभी बड़े नेताओं का भरोसा हिला दिया है. यहां तक कि निजी बातचीत में भी ये नेता बड़े-बड़े दावे करने से बच रहे हैं.

दूसरी ओर प्रकाश सिंह बादल की अगुवाई में चल रही अकाली दल-बीजेपी सरकार के खिलाफ जबरदस्त एंटी-इनकम्बेंसी लहर और बदलाव का नारा भी लोगों को पोलिंग बूथ तक लाने में ज्यादा उत्साहित नहीं कर पाया है.


राज्य में इस बार भी साल 2012 के बराबर ही मतदान हुआ है. जितने आक्रामक तरीके से पंजाब में चुनावी जंग लड़ी गई है उससे राज्य में जीत-हार को लेकर और ज्यादा भ्रम पैदा हुआ है.

आप की पंथिक राजनीति

आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों को अपनी सरकार बनने का भरोसा है.

आम आदमी पार्टी एक गैर-सिख पार्टी के तौर पर अलग खड़ी नजर आ रही है, जिसने पंथिक क्षेत्र में राजनीति की है, इस पर पहले अकाली दल का कब्जा था. बाद में अकाली दल गैर-पंथिक हो गई.

सुखबीर को अभी भी उम्मीद

शिरोमणि अकाली दल के चीफ और बेहद कद्दावर नेता उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने उम्मीद नहीं छोड़ी है और वह सतर्कता बरतते हुए बेहद आशावादी हैं.

दूसरी ओर, उनकी ओवर-कॉन्फिडेंट पत्नी और केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल के बारे में माना जा रहा है कि वह पार्टी के नेताओं से कह रही हैं कि पार्टी लगातार तीसरी बार भी सत्ता हासिल करने जा रही है.

राज्य के कांग्रेस चीफ कैप्टन अमरिंदर सिंह निश्चित तौर पर इस बार लूजर के टैग को मिटा देना चाहते हैं क्योंकि उनकी लीडरशिप में पार्टी 2012 में चुनाव हार गई थी.

केवल आम आदमी पार्टी ने ही इस चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए अपने कैंडिडेट का ऐलान नहीं किया है.

हालांकि, इसके स्टार प्रचारक और संगरूर से सांसद भगवंत मान ने खुद को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कोशिश जरूर की थी.

लेकिन उन्हें अपने सुर बदलने के लिए कह दिया गया था. मान ने राज्य में सबसे ज्यादा रैलियां की हैं.

वोटिंग प्रतिशत में इजाफा नहीं

राज्य की कुल 117 विधानसभा सीटों में से केवल 41 सीटें ऐसी रही हैं जहां वोटिंग प्रतिशत 2012 के आंकड़े को पार कर पाया है. जबकि 61 सीटों पर वोटिंग प्रतिशत में गिरावट आई है.

इसके अलावा, जिन सीटों पर ज्यादा मतदान हुआ है वहां भी यह प्रतिशत मामूली ज्यादा है. खासतौर पर ऐसा मालवा रीजन में हुआ है, जहां 45 सीटें आती हैं.

मालवा में मानी जाने वाली 69 सीटों में वह इलाका भी माना जाता है जो तकनीकी तौर पर मालवा में नहीं आता है और हकीकत में पुआध का हिस्सा है. यह क्षेत्र आनंदपुर साहिब से लेकर पटियाला तक फैला है. इन सभी 69 सीटों मालवा में माना जाता है. यहां तक कि फिरोजपुर और फाजिल्का जिले भी मालवा का हिस्सा नहीं हैं.

माझा और दोआबा में पोलिंग कम रही है. डेराओं की भूमिका एक ऐसा अहम फैक्टर रहा है जिसकी वजह से राजनीतिक पार्टियों और सोशल साइंटिस्ट्स में कनफ्यूजन पैदा हो रहा है.

डेरा का अकाली दल को सपोर्ट

कभी संत जरनैल सिंह भिंडरावाले की अगुवाई में चलने वाले दमदमी टकसाल, सिरसा के सच्चा सौदा, ब्यास के राधास्वामी, जालंधर के सचखंडबल्लन और दिव्यज्योतिसंस्थान और बाकी कई डेरा अकाली दल के साथ खड़े थे.

लेकिन, अकाली दल को इन डेराें का समर्थन दिलचस्पी पैदा करता है क्योंकि 2007 में सिखों की सबसे बड़ी संस्था अकाल तख्त ने डेरा सच्चासौदा के सामाजिक बहिष्कार का हुक्म जारी कर दिया था.

ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि डेरा सच्चा सौदा के चीफ गुरमीत सिंह राम रहीम 10वें सिख गुरु, गुरु गोविंद सिंह की भेषभूषा में नजर आए थे.

अकाल तख्त का उनके खिलाफ यह फरमान अब भी जारी है. दमदमी टकसाल और अन्य सिख संगठन डेरा सच्चासौदा के विरोध में मुख्यतौर पर सामने आए थे. लेकिन, इन चुनावों में ये सब एकसाथ खड़े दिख रहे हैं.

सुखबीर बादल ने अकाली दल के अध्यक्ष के तौर पर अपनी व्यक्तिगत हैसियत से डेराओं को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की है. देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी के तौर पर अकाली दल के संविधान में मुख्य मकसद सिख मान्यताओं को सुरक्षित रखना और आगे बढ़ाना है.

अकाल तख्त जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह ने शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी से अकाली दल को डेराओं के समर्थन की जांच करने को कहा है. इसके लिए 3 मेंबरों वाली एक कमेटी बनाई गई है.

अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के कई मेंबर सिरसा में डेरा पर दिखाई दिए हैं. हालांकि, बठिंडा में एक समागम के दौरान औपचारिक रूप से जब सपोर्ट का ऐलान किया गया, उस वक्त पहली कतार में कई अकाली दल उम्मीदवारों समेत कई मौजूदा मंत्री बैठे हुए थे.

तलवंडी साबू से दोबारा नामांकित हुए जीत मोहिंदर सिंह सिद्धू इतने खुश हुए कि वह मंच पर ही नाचने लगे. सुखबीर इस सपोर्ट पर हर सवाल से बचते नजर आए.

हालांकि, अकाली दल को शर्मिंदगी का सामना 26 फरवरी को दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी की आमसभा के चुनाव में करना पड़ सकता है. इन चुनावों में बैनरों समेत अन्य सामग्री से प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल दोनों की तस्वीरें गायब हैं.

कमजोरों और दलितों में डेराओं का प्रभाव

डेराओं और खासतौर पर डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों की बड़ी संख्या समाज के कमजोर तबके और दलितों की है. ऐसे में इससे पूरा गणित गड़बड़ा गया है. आप का भी समाज के इन वर्गों में बड़ा प्रभाव है.

डेरा सच्चा सौदा एकमात्र ऐसा डेरा है जिसकी पॉलिटिकल विंग है. इसके हेड राम सिंह ने दावा किया है कि उनके डेरा के सपोर्ट ने अकाली दल को भारी हार से बचा लिया है.

किसी भी वर्ग का एकमुश्त वोट किसी एक पार्टी को नहीं गया होगा, लेकिन इस वर्ग का 25 फीसदी भी अगर अकाली दल की ओर शिफ्ट हुआ होगा तो यह काफी आंकड़ों को बदलकर रख देगा.

त्रिकोणीय कड़ा मुकाबला

राज्य की तीन विधानसबा सीटों- पटियाला सिटी, लांबी और जलालाबाद पर सबकी नजरें टिकी हैं. इन सीटों पर जबरदस्त मुकाबला है.

अकाली दल ने जनरल जेजे सिंह (रिटायर्ड) को राज्य कांग्रेस चीफ कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ उतारा है.

इस सीट पर त्रिकोणीय मुकाबला है. अमरिंदर लांबी सीट पर प्रकाश सिंह बादल को टक्कर दे रहे हैं.

इस सीट पर आप ने दिल्ली के पूर्व एमएलए जरनैल सिंह को उतारा है. जलालाबाद सीट पर मुकाबला आप सांसद भगवंत मान और कांग्रेस सांसद रवनीत बिट्टू के बीच है, ये दोनों अकाली दल के सुखबीर बादल को टक्कर दे रहे हैं.

मजेदार चीज यह है कि इस इलाके से मौजूदा अकाली दल सांसद शेर सिंह गुबाया ने सुखबीर का विरोध किया है.

गुबाया राय सिख समुदाय से आते हैं, इस समुदाय का जलालाबाद सीट पर प्रभाव है और गुबाया का एकमात्र एजेंडा सुखबीर को हराना है. ऐसे में 11 मार्च को आने वाले नतीजों तक का इंतजार काफी लंबा लग रहा है.