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मोदी सरकार के तीन साल: असहिष्णुता बढ़ी नहीं, पहले से चलती आ रही है

हर सरकार ने एक सा रास्ता पकड़ा है और प्रधानमंत्री से चाहे कोई बहुत सी बातों से असहमत हो लेकिन उसे मानना होगा कि वे वही कर रहे हैं जो उनके पहले वालों ने किया है

Aakar Patel

नरेन्द्र मोदी की सरकार पर यह आरोप गलत ही लगाया जाता है कि वह भारत को एक अनुदार (इल्लिबरल) राष्ट्र बनाने पर तुली है. यहां अनुदार का अर्थ है असहनशील और किसी ख्याल के इजहार या उसके बरताव पर पाबंदी लगाने का हिमायती.

मेरा कहना है कि सरकार को गलत ही अनुदार कहा जा रहा है क्योंकि तथ्य बताते हैं कि भारत सरकार कभी खास उदार नहीं रही. कांग्रेस के शासन के वक्त भी नहीं. मैं जो कह रहा हूं उसकी ताईद नागरिक संगठन और स्वयंसेवी संगठन करेंगे जो कुछेक मुद्दों पर दशकों से काम कर रहे हैं.


आदिवासियों, कश्मीरियों और उत्तर-पूर्व के बाशिंदों के अधिकारों का मुद्दा कोई आज ही नहीं उछला. ये मुद्दे दशकों से उठते रहे हैं. यह मान लेना गलत है कि सरकार या प्रधानमंत्री ही इन समस्याओं की असल वजह है. खनिजों से भरी-पूरी आदिवासियों की जमीन का दोहन नेहरू के समय शुरू हुआ, बल्कि कहना चाहिए कि उनसे भी पहले से शुरू हो चुका था.

आदिवासियों के खिलाफ खराब और सख्ती के बरताव मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार के समय हुए. चंद लोगों की कारस्तानी के लिए सभी आदिवासियों को सजा दी जाती है. इंडियन हार्टलैंड में हजारों की तादाद में अर्धसैन्य बलों की मौजूदगी इसका सबूत है.

अपने ही नागरिकों पर हमले की तैयारी?

साल 2015 के अक्टूबर में अखबारों ने सुर्खी लगाई- ‘छत्तीसगढ़ में माओवादियों पर कार्रवाई: भारतीय वायुसेना हवाई हमले करेगी’. समाचारों में कहा गया कि भारतीय वायुसेना अपने ही नागरिकों को निशाना बनाने के लिए रूस से खरीदे एम-17 हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल करेगी.

रिपोर्ट में आया कि भारतीय वायुसेना का ‘अभ्यास सफल’ रहा और ‘तीन हेलिकॉप्टर बीजापुर के ऊपर होकर उड़े तथा स्ट्रैफिंग का अभ्यास किया’. स्ट्रैफिंग का मतलब होता है ‘बहुत नीचे उड़ते जहाज से लगातार बमबारी या फिर मशीनगन से गोलियों की बौछार’.

भारत में ऐसा होता रहता है?

जो लोग भारत से परिचित हैं वे जानते हैं कि यहां कोई भी इलाका एकदम से वीरान या निर्जन नहीं. ऐसे में यह जानना दिलचस्प होगा कि जिन इलाकों में भारतीय वायुसेना मशीनगन की बौछार और बमबारी के जरिए अभ्यास कर रही थी वहां दरअसल क्या कुछ हुआ.

यहां नोट करने की बात यह है कि इस किस्म की हिंसा कोई नई बात नहीं है. भारतीय राजसत्ता विरोध पर उतारु अपने नागरिकों को मशीनगन के जोर से दबाने का काम अंग्रेजी जमाने या उससे पहले से करती रही है. यह मान लेना तो गलत है ही कि यह सब मोदी सरकार के समय शुरू हुआ. यह मान्यता गुमराह करने वाली है क्योंकि यह असल मुद्दे से ध्यान भटकाती है.

मोदी से पहले और दुर्भाग्य से मोदी के बाद भी भारतीय राजसत्ता ने अपने नागरिकों के साथ यही बरताव किया है. कुछ माह पहले मेरी बातचीत पी चिदंबरम से हुई और वे कह रहे थे कि कश्मीर से सशस्त्र बलों को विशेषाधिकार देने वाला कानून अफ्स्पा हटा लेना चाहिए.

एक ही मुद्दे पर अलग-अलग सोच क्यों?

पी चंदबरम सबसे प्रतिभाशाली राजनेताओं में एक हैं. उनके प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है. लेकिन काश! उन्हें ऐसे ख्याल तब आए होते जब वे गृहमंत्री थे. तब उनका ऐसा सोचना ज्यादा मानीखेज होता.

प्रदर्शनकारी कश्मीरियों के साथ मौजूदा सरकार के सख्त बरताव से जो लोग दुखी हो रहे हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि मौजूदा सरकार का बरताव उतना ही सख्त है जैसा कि पहले की सरकारों का रहा है. बस इस बरताव के बारे में पेश किए जाने वाले मुहावरे थोड़े अलग हैं.

कांग्रेस ने भी इतने ही लोग मारे बल्कि कहना चाहिए कि कहीं ज्यादा मारे लेकिन कांग्रेस बड़े धीमे सुर में बोलती थी. बीजेपी कुछ कठोर शब्दों का इस्तेमाल करती है लेकिन दरअसल दोनों में फर्क भी इसी बात का है.

गैर जरूरी कामों पर रहता है सरकार का फोकस 

भारतीय राजसत्ता ने हमेशा उन प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर काम किया है जो इस देश के लोगों के अधिकार और जरूरत से मेल नहीं खाते. हमलोग अंग्रजी राज पर आरोप लगाते हैं कि उसने भारत को लूटा और हमारे संसाधनों का इस्तेमाल अपने स्वार्थ की पूर्ति में किया.

विश्वयुद्ध के समय अपनाई गई नीतियों के कारण 1943 में बंगाल में अकाल पड़ा और इसकी मिसाल अक्सर दी जाती है. दुनिया के एक ऐसे हिस्से में जहां लोग भूख से बेहाल और अशिक्षित हों, अंग्रेजों की वह युद्धनीति एकदम ही अनुचित थी. लेकिन, मैं सोचता हूं कि आखिर अंग्रेजों की उस नीति से हमारे लोकतंत्र में अपनाई जा रही नीतियां कहां तक अलग हैं?

पिछले साल हमने भारतीय वायुसेना के लिए युद्धक जेट की खरीद पर 59000 करोड़ रुपए खर्च किए. इस साल हमलोग भारतीय नौसेना के लिए 57 युद्धक विमान खरीदने के लिए 50000 करोड़ रुपए खर्च कर रहे हैं. और यह सब उस मुल्क में हो रहा है जिसका सालाना केंद्रीय स्वास्थ्य बजट 33000 करोड़ रुपए का है. दरअसल अरुण जेटली के वित्तमंत्री रहते इसमें भी कटौती हुई है.

कुपोषण का कहर

दस हजार बच्चे हर हफ्ते कुपोषण के कारण मर जाते हैं लेकिन हमारे पास उनपर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं लेकिन हम सशस्त्र सेनाओं के लिए कुछ और खिलौने जरूर खरीदेंगे.

क्या यह अंग्रेजी राज के ही जैसा अनैतिक आचरण नहीं है? क्या कोई यह बात साबित कर सकता है कि हमें उन जंगी जहाजों की निहायत ही सख्त जरूरत है.? नहीं, नहीं कर सकता और यहां मौजूं बात यह है कि इसपर हमारे देश में कोई बहस नहीं होती और ना ही कभी हुई है.

हर सरकार ने एक सा रास्ता पकड़ा है और प्रधानमंत्री से कोई चाहे बहुत सी बातों से असहमत हो लेकिन उसे मानना होगा कि वे वही कर रहे हैं जो उनके पहले वालों ने किया है.