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2019 चुनाव: एसपी-बीएसपी गठबंधन के बाद भी बीजेपी पड़ सकती है भारी

2019 के आम चुनाव से पहले बीजेपी ने यह देख लिया है कि एसपी-बीएसपी में तालमेल की कमी है और कांग्रेस में अहंकार है, जिसका पूरा फायदा वह उठाने की कोशिश करेगी

Sreemoy Talukdar

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए बीते शुक्रवार को हुए राज्यसभा के चुनावों से मोटा-मोटी तीन सबक निकलते हैं. पहला सबक यह कि उत्तरप्रदेश में एसपी-बीएसपी महागठबंधन के चुनावी गणित और आपसी समीकरण का झोल उनकी उम्मीदों पर पानी फेर सकता है. दूसरा सबक यह निकलता है कि बीजेपी के विरोध में बनने वाले गठबंधन में क्षेत्रीय पार्टियों की ही मुख्य भूमिका होगी और कांग्रेस को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए. तीसरा यह कि बेशक 2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के पक्ष में कोई हवा नहीं बहे लेकिन बीजेपी देश के हर गली-मोहल्ले तक पहुंचकर अपनी धमक के साथ चुनावी लड़ाई लड़ सकती है. सो, बीजेपी की इस कूबत को कम करके आंकने की जरूरत नहीं.

बीएसपी एक कैडर-आधारित पार्टी है


पहला सबक नया नहीं है लेकिन इससे बीएसपी की मुखिया मायावती के इस बड़े डर की नए सिरे से तर्जुमानी हुई है कि एसपी के साथ महागठबंधन बनता है तो उन्हें सियासी तौर पर इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है. अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए सीटों को लेकर कोई तालमेल बनने की बड़ी संभावना इसी बात की है कि बीएसपी के अपने मुख्य जनाधार के वोट एसपी के खाते में चले जाएं जबकि एसपी के मुख्य जनाधार के वोट मायावती की झोली में शायद ना आ पाएं. इस हाथ से ले और उस हाथ से दे की राह अपनाने की जगह एसपी-बीएसपी का गठबंधन इतना भर कर सकता है कि अंदरुनी जोड़-घटाव को घर के भीतर संभाले और किसी सुरक्षा कवच की तरह काम करते हुए बीजेपी के लिए ऐसी कोई संभावना ना छोड़े कि वह चुनावी जंग में दोनों पार्टियों के चुनावी तालमेल की गड़बड़ियो का फायदा उठा सके.

इसकी एक वजह है- एसपी-बीएसपी महागठबंधन कागज पर एक व्यापक सामाजिक एकता के इशारे करता जान पड़ सकता है और यह एका किसी प्रतिपक्षी को डराने के लिए काफी है. लग सकता है कि चुनावी जंग एसपी-बीएसपी के एक साथ होने पर दोनों का साझा जनाधार बड़ी आसानी से बीजेपी को पटखनी दे देगा लेकिन दोनों पार्टियों का यह एका कोई गणित का सवाल नहीं है जिसे कोई फॉर्मूला लगाकर सुलझा लिया जाए.

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बीएसपी का मुख्य जनाधार जाटव दलित और चर्मकार जाति में है, जबकि एसपी की यादव जाति के बीच और बीएसपी को समर्थन करनी वाली जातियों के ऐतिहासिक रिश्ते कभी आसान नहीं रहे. चूंकि बीएसपी एक कैडर-आधारित पार्टी है इसलिए मतदाताओं से पार्टी की मुखिया के आदेश का सम्मान करते हुए गठबंधन के उम्मीदवार को वोट देने की बात कहना और मनवाना आसान होगा लेकिन यही बात एसपी के बारे में नहीं कही जा सकती क्योंकि एसपी कैडर आधारित पार्टी नहीं है.

महागठबंधन बनाना अब कोई अपनी मर्जी की बात नहीं रही बल्कि एक मजबूरी है, सामने एक साझा दुश्मन खड़ा साफ नजर आ रहा है इसलिए एक-दूसरे के दुश्मन रही पार्टियां आपस में हाथ मिलाने के लिए मजबूर हैं. बेशक चुनावी जंग के तकाजे एक-दूसरे की दुश्मन रही पार्टियों को आपस में हाथ मिलाने के संकेत कर रहे हैं लेकिन चुनावी मजबूरी में कायम होने वाला एका जमीन पर आसान नहीं साबित होने वाला क्योंकि दोनों पार्टी के कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं ने अपना करियर एक-दूसरे के साथ दुश्मनी का बरताव करते हुए ही बनाया है. अगर पार्टी के आलाकमान की तरफ से ज्यादा दबाव डाला गया तो स्थानीय स्तर पर मतभेद बढ़ेंगे और पार्टी में फूट या दरार पैदा हो सकती है.

राज्यसभा के लिए हुए चुनावों के दौरान उत्तरप्रदेश में दसवीं सीट के लिए हुए मुकाबले हमने इसी संभावने को सर उठाते देखा- दसवीं सीट के लिए बीजेपी के उम्मीदवार अनिल कुमार अग्रवाल ने द्वितीयक वरीयता के मतों के जरिए बीएसपी के प्रत्याशी भीमराव अंबेडकर को हराया. यह चुनावी लड़ाई बहुत कठिन साबित हुई और इसमें क्रॉस-वोटिंग भी हुई.

बीएसपी के विधायक अनिल सिंह ने दावा किया कि उनका वोट बीजेपी के पक्ष में पड़ा है लेकिन बीजेपी को मदद एक से ज्यादा ठिकानों से मिली. एसपी के कम से कम एक उम्मीदवार ने पाला बदलकर बीजेपी के उम्मीदवार के पक्ष में वोट डाला. निषाद पार्टी के विधायक विजय मिश्रा का वोट भी बीजेपी उम्मीदवार के खाते में गया और दो स्वतंत्र विधायकों रघुराज प्रताप सिंह तथा विनोद सरोज ने जो अखिलेश यादव के नजदीकी माने जाते हैं, बीजेपी के उम्मीदवार के पक्ष में वोट डाला.

विजय मिश्रा ने हाल में हुए फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में एसपी का साथ दिया था और बीएसपी ने बीजेपी के उम्मीदवार को हराने के लिए अंदरुनी तौर पर सहायता दी थी लेकिन इस बार विजय मिश्र ने बीएसपी के उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर को अपना समर्थन देने से इनकार कर दिया.

इसी तरह रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैय्या ने बुधवार के दिन समाजवादी पार्टी के रात्रिभोज में शिरकत की थी लेकिन मतदान के रोज उन्होंने एक ट्वीट के जरिए यह स्पष्ट किया कि उनके समाजवादी पार्टी का समर्थन करने का मतलब यह नहीं कि वे बीएसपी का भी समर्थन करते हैं. इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक रघुराज प्रताप सिंह ने अपना वोट डालने के तुरंत बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को फोन किया था.

अखिलेश यादव ने अपने एक ट्वीट में रघुराज प्रताप सिंह के साथ अपनी एक तस्वीर शेयर की थी और एसपी को समर्थन देने के लिए उन्हें धन्यवाद कहा था लेकिन बाद में अखिलेश यादव ने ट्वीट को डिलीट कर दिया.

अखिलेश यादव के ट्वीट का स्क्रीनशॉट, जिसे शायद बाद मं डिलीट कर दिया गया, तस्वीर साभार: News18 Twitter

जान पड़ता है कि रघुराज प्रताप सिंह ने एसपी की उम्मीदावर जया बच्चन को राज्यसभा की अपनी सीट कायम रखने में मदद की लेकिन उन्होंने बीएसपी उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर को समर्थन देने से इनकार कर दिया और इस तरह मायावती का राज्यसभा में कोई एक सीट भी हासिल करने का दांव नाकाम हो गया. आइए, अब जरा यह देखें कि महागठबंधन के ऐतबार से मायावती के लिए इस चुनावी जंग के क्या संकेत निकलते हैं?

टीएमसी समर्थन से कांग्रेस उम्मीदवार अभिषेक मनु सिंघवी जीते 

बीएसपी की मुखिया ने गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में बीजेपी के उम्मीदवार को हराने का आह्वान किया और इसका एसपी को फायदा हुआ, लेकिन जब इस उपकार का बदला चुकाने और बीएसपी के उम्मीदवार को राज्यसभा पहुंचाने में मदद देने की बात आई तो अखिलेश यादव नाकाम रहे. हां, उन्हें अपने उम्मीदवार जया बच्चन को राज्यसभा पहुंचाने में जरूर कामयाबी मिली. अगर इन चुनावों को महागठबंधन की जांच की एक कसौटी माना जाए तो फिर मायावती के लिए संदेह पालने की पर्याप्त वजहें हैं. अभी लोकसभा की कैराना सीट और नूरपुर की विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव होने हैं और ये चुनाव महागठबंधन के लिए किसी अग्निपरीक्षा की तरह साबित होंगे.

दूसरा सबक कांग्रेस के लिए निकलता है क्योंकि उसके 10 विजयी उम्मीदवारों में से एक को ममता बनर्जी का धन्यवाद करना चाहिए. तृणमूल कांग्रेस की मुखिया के पास भरपूर ताकत थी और वो चाहतीं तो अपने पांच उम्मीदवार राज्यसभा में बाआसानी भेज सकती थीं लेकिन उन्होंने एक सीट कांग्रेस के लिए छोड़ दी.

अभिषेक मनु सिंघवी को 47 वोट मिले लेकिन पश्चिम बंगाल की विधानसभा में कांग्रेस के कुल वोटों की तादाद 32 ही है यानी अभिषेक मनु सिंघवी को कांग्रेस की कुल ताकत से 15 वोट ज्यादा मिले. यह कदम 2017 के उस वाकिये के एक साल बाद उठाया गया है जब टीएमसी ने कांग्रेस के उम्मीदवार प्रदीप भट्टाचार्य के लिए एक सीट गंवा दी थी.

ममता बनर्जी ने बेशक उदारता का परिचय दिया है लेकिन उनकी यह उदारता पश्चिम बंगाल के जमीनी हालात से मेल नहीं खाती जहां कांग्रेस की टीएमसी से जबर्दस्त होड़ है और कांग्रेस का अनौपचारिक तौर पर वामपंथी पार्टियों के साथ एक तरह से गठबंधन चल रहा है. एक दिलचस्प बात यह भी है कि सोनिया गांधी ने डिनर पार्टी आयोजित की तो तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ने उसमें भाग नहीं लिया और अपनी जगह सुदीप बंदोपाध्याय को भेज दिया लेकिन अब खबर आई है कि नई दिल्ली में शरद यादव जो भोज देने वाले हैं उसमें ममता बनर्जी सोनिया गांधी से मिलने के लिए उत्सुक हैं.

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ममता बनर्जी ने यह बात बेधड़क कही है कि सियासी मामलों पर कोई सहमति बनाने के लिए बातचीत करनी हो तो वो राहुल गांधी की जगह सोनिया गांधी को कहीं ज्यादा वरीयता देंगी. कांग्रेस के नए अध्यक्ष को लेकर उन्होंने कई दफे नाराजगी जाहिर की है. हाल में ऐसा एक वाकया त्रिपुरा विधानसभा के चुनाव के वक्त पेश आया जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि राहुल गांधी ने तृणमूल के साथ गठबंधन करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था.

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव हाल में नाबन्ना (पश्चिम बंगाल के सचिवालय) आए तो ममता बनर्जी ने उनसे भेंट की और संकेत दिया कि के चंद्रशेखर राव के ‘गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी संघीय मोर्चा’ बनाने के विचार में उनकी दिलचस्पी है लेकिन वे कांग्रेस को इस समीकरण से बाहर रखने की बात नहीं कह पाईं.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बड़े जतन के साथ संकेत दे रही हैं और इन संकेतों के सहारे एक संदेश साफ-साफ जताना चाहती हैं कि 2019 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ गठबंधन बनता है तो यह कांग्रेस की शर्तों पर नहीं होने वाला. इस मोर्चे पर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को अपना अहंकार भुलना होगा और जमीनी सच्चाइयों को स्वीकार करना पड़ेगा.

राज्यसभा चुनावों से निकलने वाला तीसरा संदेश विपक्षी पार्टियों के लिए है. इस बात में कोई संदेह नहीं कि हिंदीभाषी पट्टी में बीजेपी अपना 2014 वाला प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी. उसे एंटी- इनकंबेंसी का सामना करना होगा, नरेंद्र मोदी के पक्ष में कोई ‘हवा’ बहती नहीं जान पड़ती, जातियों के समीकरण फिर से हावी हो रहे हैं और इन सारी विपरीत पड़ती बातों से बीजेपी को जूझना होगा, लेकिन इन बातों के कारण बीजेपी पहले की तुलना में कहीं ज्यादा सक्रियता से काम करेगी. बीजेपी हर चुनाव में हर एक सीट के लिए जी-जान से लड़ सकती है और उसकी इस क्षमता पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए.

एसपी और बीएसपी में तालमेल की कमी है

राज्यसभा चुनावों से पहले बीजेपी ने दो रणनीतिक पहलकदमी की थी. एक तो उसने समाजवादी पार्टी से नाराज चल रहे नरेश अग्रवाल को अपने खेमे में शामिल किया. नरेश अग्रवाल इस बात से नाराज थे कि समाजवादी पार्टी उन्हें राज्यसभा की टिकट नहीं दे रही. नरेश अग्रवाल को पार्टी में शामिल करने से एक फायदा यह हुआ कि उनके बेटे नितिन ने बीजेपी के लिए वोट डाला. पार्टी ने केंद्रीय रेल एवं कोयला मंत्री पीयूष गोयल को गुरुवार के दिन उत्तरप्रदेश भेजा था ताकि जीत की रणनीति तैयार की जा सके.

इकोनॉमिक टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है पीयूल गोयल ने एनडीए के सभी विधायकों को गुरुवार के रोज एक मॉक वोटिंग ड्रिल (वोट डालने का पूर्वाभ्यास) करवाई क्योंकि ज्यादातर विधायक पहली दफे चुनकर विधानसभा पहुंचे थे. बीजेपी ने अपने 9वें उम्मीदवार अनिल अग्रवाल के लिए अपने खेमे से बाहर के अगड़ी जाति के तीन विधायकों के वोट बटोरने में कामयाबी हासिल की क्योंकि एनडीए की तरफ से प्रथम वरीयता के 12 वोट अनिल अग्रवाल को आवंटित हुए थे जबकि उन्हें प्रथम वरीयता के कुल 16 वोट मिले.

पार्टी ने पर्दे के पीछे से काम करते हुए बीएसपी के एक विधायक और कुछ स्वतंत्र उम्मीदवारों के वोट भी अपने पक्ष में डालने के लिए मना लिया. पार्टी की रणनीति कामयाब रही और उत्तरप्रदेश से उसके पूरे नौ उम्मीदवार राज्यसभा पहुंचने में सफल रहे.

बीजेपी ने यह भी देख लिया होगा कि एसपी और बीएसपी में तालमेल की कमी है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी तरफ से कोई वक्त जाया ना करते हुए कहा कि राज्यसभा के चुनावों से समाजवादी पार्टी का अवसरवादी रवैया एकदम उजागर हो गया है, समाजवादी पार्टी दूसरों से मदद ले तो सकती है लेकिन अपनी तरफ से कुछ दे नहीं सकती. बगैर किसी का नाम लिए उन्होंने कहा कि राज्यसभा के चुनाव एक तेज दिमाग आदमी का संकेत कर रहे हैं.

अब मायावती के लिए इससे ज्यादा जाहिर कोई संकेत हो नहीं सकता. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की टिप्पणी का एक अर्थ यह भी निकलता है कि मायावती चाहें तो मौके को देखते हुए 2019 के चुनावों के लिए बीजेपी से हाथ मिला सकती है. अभी ऐसा हो पाना नामुमकिन जान पड़ सकता है, लेकिन क्या सियासत संभावनाओं को साकार करने की कला का ही नाम नहीं है?